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दिसंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बस बीत गया साल......

पूरा एक साल बीत गया....क्या नया पाया यह तो नहीं बता सकता लेकिन हाँ इतना ज़रूर है कि खोया बहुत कुछ...भले खोने वाली चीज़ों कि संख्या कम हो लेकिन दर्द बहुत है...और जो चीजें पाई उनकी तुलना में यह अधिक मायने रखती है.....यही ज़िन्दगी है इसे देखना हो तो नज़रिया सड़क पर चलते लोगों को गिनने के नजरिये से अलग रखना पड़ता है.....खैर छोडिये ....देश के सबसे पहले भोजपुरी न्यूज़ चैनल हमार टीवी में काम करते हुए एक साल से अधिक हो गएँ हैं....जिस भाषा को रोज बोलता था.... सुनता था उसे खबर के नजरिये से देख रहा हूँ....रोज़ कुछ नया सिखा...लेकिन ना जाने क्यों साल के अंत में लगता है कि साल बस यू ही गुज़र गया......डे प्लान, फ़ील्ड रिपोर्ट, लाइव, एंकर यही रहा.....अपने लिए सोचने क मानो वक़्त ही नहीं मिला....सुबह सात बजे से लेकर रात कि दस बजे तक बस बाईट और पैकज में समय गुज़र गया और इस सब के बाद भी यही दर मन में रहा कि कहीं मंदी के दौर में मिली नौकरी चली ना जाये......इस बात क भी गिला कम ही रहा कि आप जिन लोगों से काम और योग्यता में कम नहीं हैं लेकिन सेलेरी में कम हैं.....यही एक नौकरी पेशा आदमी कि आदर्श ज़िन्दगी है.....

“थ्री ईडियट्स” में आमिर खान है कहाँ?

जीनियस जीनियस होता है... उसके जरिये या उसमें अदाकारी का पुट खोजना बेवकूफी होती है। शायद इसीलिये थ्री ईडियट्स आमिर खान के होते हुये भी आमिर खान की फिल्म नहीं है। थ्री ईडियट्स पूरी तरह राजू हिराणी की फिल्म है। वही राजू जिन्होने मुन्नाभाई एमबीबीएम के जरीये पारंपरिक मेडिकल शिक्षा के अमानवीयपन पर बेहद सरलता से अंगुली उठायी। यही सरलता वह थ्री ईडियट्स में इंजीनियरिंग की शिक्षा के मशीनीकरण को लेकर बताते हुये प्रयोग-दर-प्रयोग समझाते जाते हैं। राजू हिराणी नागपुर के हैं और नागपुर शहर में नागपुर के दर्शको के बीच बैठ कर फिल्म देखते वक्त इसका एहसास भी होता है कि थ्री ईडियट्स में चाहे रेंचो की भूमिका में आमिर खान जिनियस हैं, लेकिन सिल्वर स्क्रिन के पर्दे के पीछे किसी कैनवस पर अपने ब्रश से पेंटिंग की तरह हर चरित्र को उकेरते राजू हिराणी ही असल जिनियस हैं। यह नजरिया दिल्ली या मुबंई में नहीं आ सकता। नागपुर के वर्डी क्षेत्र में सिनेमा हाल सिनेमैक्स में फिल्म रिलिज के दूसरे दिन रात के आखरी शो में पहली कतार में बैठकर थ्री इडियट्स देखने के दौरान पहली बार महसूस किया कि आमिर खान का जादू या उनका प्रचार चाहे दर्

आडवाणी युग के बाद की भाजपा

नागपुर में पहली बार सीमेंट की सड़क 1995 में बनी तो रिक्शे वालों ने आंदोलन छेड़ दिया । रिक्शे वालों का कहना था कि नागपुर में जितनी गर्मी पड़ती है उससे सीमेंट की सड़क में टायर चलते नहीं हैं। लेकिन कार वाले खुश हो गये कि अब गड्ढ़े में हिचकोले नहीं खाने होंगे। बरसात में अंदाज रहेगा कि सड़क अपनी है, परायी हुई नहीं है। आखिरकार रिक्शे वाले आंदोलन कर थक गये तो फिर पुराने नागपुर में संघ मुख्यालय के बाहर सीमेंट की सड़क बनाने की तैयारी शुरु हो गयी, जहां ज्यादा रिक्शे ही चलते हैं। इस बार आंदोलन हुआ नहीं। और फिर सीमेंट की सड़क बनाने का सिलसिला समूचे महाराष्ट्र में शुरु हुआ। सीमेंट की यह सड़क और कोई नहीं बल्कि भाजपा के अध्यक्ष पद को संभालने जा रहे नीतिन गडकरी ही बनवा रहे थे, जो उस वक्त महाराष्ट्र के पीडब्ल्‍यूडी मंत्री थे। कुछ इसी तरह की सड़क भाजपा के भीतर संघ बनवाना चाहता है और उसका विरोध दिल्ली की आडवाणी चौकड़ी करेगी, लेकिन भविष्य में कहा जायेगा कि नागपुर के गडकरी तब भाजपा अध्यक्ष थे। और उनके पीछे नागपुर के ही सरसंघचालक भागवत का हाथ था। असल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गडकरी के जरिये जो राजनीतिक प्

"20 साल पहले राजीव गांधी का अपहरण करना चाहते थे नक्सली और 20 साल बाद मनमोहन सिंह के अपहरण की जरुरत नहीं समझते माओवादी

ठीक बीस साल पहले 1989 नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव सीतारमैय्या से जब यह सवाल किया गया था कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का भी आपहरण कर लेंगे । जवाब मिला था कि जरुरत पड़ी और परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो जरुर करना चाहेंगे। यह सवाल 1987 में आंध्रप्रदेश के सात विधायकों के अपहरण के बाद पूछा गया था । और बीस साल बाद जब बंगाल के एक पुलिसकर्मी का अपहरण कर उसपर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर ऑफ वार लिखकर रिहा किया गया...तो अपहरण करने वाले सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव से मैंने यही सवाल पूछा कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपहरण कर लेंगे। जवाब मिला बिलकुल नहीं। इसकी जरुरत है नहीं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रधानमंत्री की नीतियों से ही हमारा सीधा टकराव देखा जाने लगा है तो जनता खुद तय करेगी, हमें पहल करने की जरुरत नही है। बीस साल के दौर में राजनीतिक तौर पर नक्सलियों में कितना बड़ा परिवर्तन आया है, यह जवाब उसका बिंब भर है। लेकिन इन बीस वर्षो में राजनीतिक तौर पर नक्सली कितना बदले है और उनकी राजनीत