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ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है

एक शहर जिसकी पहचान महज घंटे और घड़ियालों से नहीं मंदिर के शिखर और उनपर बैठे परिंदों से नहीं यहाँ ज़िन्दगी ज़ज्बातों से चलती है अविरल, अविनाशी माँ की लहरों पर मचलती है शहर अल्लहड़ कहलाता है ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है यकीनन इसके सीने पर एक ज़ख़्म मिला है कपूर की गंध में बारूद घुला है एक सुबह सूरज सकपकाया सा है गंगा पर खौफ का साया भी है किनारों पर लगी छतरियो के नीचे एक अजीब सी तपिश है सीढ़ियों पर लगे पत्थर कुछ सख्त से हैं डरे- सहमे तो दरख्त भी हैं तभी अचानक एक गली से एक आवाज़ आती है महादेव देखो, दहशत कहीं दूर सिमट जाती है घरों से अब लोग निकल आयें हैं उजाले वो अपने साथ लायें हैं चाय की दुकानों पर अब भट्ठियां सुलग रहीं हैं पान की दुकानों पर चूने का कटोरा भी खनक रहा है देखो, ये शहर अपनी रवानगी में चल रहा है सुनो, उसने पुछा था इस शहर की मिट्टी मिट्टी है या पारस लेकिन उससे पहले दुआ है यही की बना रहे बनारस बना रहे बनारस .

कैसी रही चाय साहब?

>> धमाके के वक़्त पुलिस के बड़े अफसर के घर चल रहा था जश्न. यह सवाल आपको कुछ अटपटा सा ज़रूर लग सकता है लेकिन सवाल जायज है. दरअसल ये सवाल इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मंगलवार 6 दिसम्बर को जिस वक़्त वाराणसी के शीतला घाट पर बम धमाका हुआ ठीक उसी समय जिले के आला अफसर चाय पार्टी में व्यस्त थे. आप को हैरानी होगी ये जानकार कि ये चाय पार्टी दी किस ख़ुशी में गयी थी. दरअसल 6 दिसम्बर की बरसी शहर में शांतिपूर्वक बीत गयी इसका जश्न मनाया जा रहा था. शहर पुलिस महकमे के सबसे बड़े अफसर के बंगले पर इस पार्टी का आयजन किया गया था. बाकायदा पत्रकारों को फ़ोन करके इस पार्टी में बुलाया गया था. खुद एसपी सिटी ने मेरे एक पत्रकार मित्र को फ़ोन किया और चाय पार्टी का निमंत्रण दिया. कारण बताया कि 6 दिसम्बर की बरसी शांति पूर्वक बीत गयी इसलिए जश्न मानेगे. कोशिश थी कि अपनी पीठ खुद ठोक ली जाये. यानी साफ़ है कि 6 दिसम्बर बीत जाने के बाद सभी अधिकारिओं ने मान लिया था कि अब कुछ नहीं होने वाला है. इसी लापरवाही का फायदा उठा लिया इंडियन मुजाहिदीन ने. सूत्रों की हवाले से ख़बर है कि लास्ट के एक दिन पहले तीन संदिग्ध लोग इस इलाक

अद्भुत और अलौकिक

वो दृश्य अद्भुत और अलौकिक होता है उसकी कल्पना मात्र भी आप को रोमांचित कर देती है. वाराणसी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाना वाला उत्सव देव दीपावली देश के भयातम आयोजनों में से एक है. जाह्नवी के तट पर बसे काशी में घाटो पर असंख्य दीये एक साथ जल उठते हैं. देवताओं के लिए मनाई जा रही ये देव्पावाली देश का एकमात्र ऐसा धार्मिक आयोजन है जिसमे देश प्रेम की भावना दिखती है. इस दिन कार्यक्रम की शुरुआत अमर शहीदों को नमन करने के बाद होती है. इसी आयोजन की कुछ तस्वीरें आपके लिए...

how long will it survive?

its a story that i covered in varanasi. it tell us the dangerous results of throwing soil that has been collected in flood at riverbank of ganga ghats, again in ganga. river scientists telling this continue process will change the flow of ganga in varanasi. this change of flow in ganga will dangerous for many ghats like panchganga, scindhiya and some others. these ghats may be in ganga in few years. the one of most important thing is that all this cleaning process is done by local andimistration.

अब तो गरियाने से भी नहीं फरियाता

मीडिया के बढ़ते कदमो ने कई बदलाव लायें हैं. लेकिन कुछ बदलाव तो ऐसे हैं जिनके बारे में आमतौर पर सोचा नहीं जा सकता है. अब गालियों को ही ले लीजिये. गालियों में कितना कुछ बदल गया है. नयी नयी तरह की गालियाँ आ गयी हैं. जिन्हें सुनकर आप अपने को आनंदित महसूस करते हैं. गालियों के साथ सबसे बड़ी खासियत ये है कि किसको कौन सी गाली कब लग जाएगी, यह आप पहले से नहीं तय कर सकते. कोई साले से ही बिदक जाता है और कोई माँ बहन करने पर भी नहीं संभलता. ये गाली की माया है. देश के जाने- माने सहित्यकार काशीनाथ सिंह ने इन गालियों को अपनी किताब में भी बेधड़क प्रयोग किया है. किताब के पन्नों पर आने के बाद इन गालियों ने ऐसा चोला बदला कि सामाजिक परिवेश इनके बिना अधूरा लगेगा. ये है गालियों की विशेषता. लेकिन आजकल यही गालियाँ अपने मौलिक स्वरुप को बचाने के लिए गुहार लगा रहीं हैं. वह चाह रहीं हैं कि लोग इन गालियों का सही उच्चारण शुरू करे ताकि इनका आस्तित्व बना रहे. गालियों के स्वरुप में परिवर्तन का एहसास तब से हुआ जब से छोटे पर्दे पर लाफ्टर शो शरू हुए. गंभीर अर्थो वाली गालियों के साथ प्रयोग शुरू हुए और गालियाँ बिगड़ गयीं.

हे आज तक ये 'धर्म' है 'वारदात' नहीं...

धनतेरस के दिन दोपहर में आज तक ने ' धर्मं ' कार्यक्रम में वाराणसी में माँ अन्नपूर्णा मंदिर से जुड़ी एक ख़बर दिखाई. बिल्कुल इण्डिया टीवी वाले तरीके से. ख़बर में दिखाया जा रहा था कि वाराणसी में स्थित माँ अन्नपूर्णा का मंदिर एक ऐसा मंदिर है जो वर्ष में सिर्फ एक दिन धनतेरस के दिन खुलता है. ये तथ्य पूरी तरह गलत है. माँ अन्नपुर्णा का मंदिर तो हर रोज़ खुलता है. ख़ास बात ये है कि धनतेरस वाले दिन माँ अन्नपूर्णा की स्वर्णमयी प्रतिमा के दर्शन होते हैं. यह वर्ष में सिर्फ एक दिन धनतेरस के दिन ही होता है. माँ अन्नपुर्णा की स्वर्ण प्रतिमा बेहद भव्य और आकर्षक है. इसीलिए इस दिन माँ के दरबार में भक्तों का सैलाब उमड़ता है. यही नहीं इस दिन माँ का खजाना भी भक्तों के बीच बांटा जाता है. इसके तहत माँ को दान में मिले धन को भक्तों के बीच में वितरित किया जाता है. इस धन को लेने के लिए माँ के दरबार में जबरदस्त भीड़ उमड़ती है. ऐसा नहीं है कि धन कोई बहुत अधिक होता है. फुटकर पैसे होते हैं जिन्हें भक्तों के बीच उछाला जाता है. मान्यता है कि जिसके पास माँ का ये खजाना होता है वो हमेशा धन धान्य से परि

देश का भविष्य बोस कि कुर्बानी तय करेगी, गिलानी नहीं

विरोध प्रदर्शन की यह तस्वीर है बनारस की. यहाँ बच्चों ने अरुंधती रॉय के उस बयान की खिलाफत की है जिसमे उन्होंने कहा था कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं. देश में अलगाववाद का समर्थन करने वाली अरुंधती के इस बयान का विरोध करते वक़्त विशाल भारत संस्थान के इन बच्चों ने सुभाष चन्द्र बोस की पोशाक पहन रखी थी. इन बच्चों की कोशिश है कि अरुंधती बौद्धिकता के नाम पर वर्तमान के प्रति जो नजरिया रख रहीं हैं उसमे भारत के इतिहास को भी शामिल करें. क्योंकि इस देश के लिए सुभाष चन्द्र बोस. आज़ाद और बिस्मिल ने कुर्बानी दी है. किसी गिलानी ने नहीं. लिहाजा देश का भविष्य यह कुर्बानियां तय करेंगी, बंटवारे की राजनीती करने वाला गिलानी नहीं.

जूते भी ईमानदार हो गए...

दिल्ली में गिलानी की सभा में किसी ने उनपर जूता फेंक दिया. ये जूता उनको लगा नहीं. अब इसे क्या कहेगे आप? इससे पहले भी कई लोगों को निशाना बना कर जूते फेंके जा चुके हैं. कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी नीरिह जूते का निशाना बनाने की कोशिश की गयी थी पर ना जाने क्या हुआ. जूता बिकुल करीब जाकर भी नहीं लगा. यह भी नहीं कह सकते कि जूते के जरिये अपनी भावना को व्यक्त करने वाला नया खिलाडी था. भैया वो तो कश्मीर पुलिस का निलंबित अधिकारी था. और इस देश में पुलिस अधिकारियों को जूते मारने की तो बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है. यकीन ना हो तो देश के किसी भी पुलिस स्टेशन में जाइये और देख लीजिये. किस तरह एक आम आदमी जूते खाता है. वैसे ये काम आप अपने रिस्क पर कीजियेगा हुज़ूर. वहां कहीं एक-आध जूते आपको भी लग गए तो मुझे दोष ना दीजियेगा. लेकिन कलयुगी यक्ष का प्रश्न का आज भी जस का तस है कि जूता अपने मुख्य मार्ग से भटका क्यों? जूता नीतीश कुमार की सभा में भी चला था लेकिन हैरानी की बात यह कि ये भी नीतीश को लगा नहीं. मोदी को भी निशाना बनाने की कोशिश की गयी लेकिन सफलता नहीं मिली. क्या हो रहा है इस देश में? इस देश

एक स्पर्श रचता है मुझे

गूंथ गयी है वह जमीन मेरी आत्मा में सालती है मेरे उतप्त प्राण रचती है मेरी मेधा के त्रसरेणु जगाती है विस्मृत हो चुके कूपों में एक त्वरा , एक त्विषा कोंचती है अपने इतिहास का बल्लम मेरे शरीर में, पीड़ा की शिराओं के अंत तक तोड़ देती है अपने हठ की कटार अस्थियों की गहराई में धीमे से दबा देती है अपने बीज मेरे उदर की की तहों में सींचती है वह नदी मेरे स्वप्न बुनती है मुझे धीमे से मद्धम स्वरों में पिरो कर वो वीथियाँ, जोतती है मेरी बंजर चेतना घुस कर मेरे स्वप्न तंतुओं में छेड़ती है एक राग बहुत महीन, बहुत गाढ़ धंस गयी है वह सुबह मेरी नींदों में धोती है जो मुझे मंदिरों के द्वार तक झांकती है मेरे अंधेरों में कुरेद कर जगाती है मेरे सोये हुए प्रश्नों को पवित्र करती है मुझे मेरे आखिरी बिंदु तक एक स्पर्श रचता है मुझे गढ़ता है अपने चाक पर, अपनी परिभाषा में, पकाता है अलाव में धीमी आंच पर गलाता है मुझे अपने अवसादों तक टेरती हैं मीनारों से लटकी आजानें मेरे दोष बोध को सीढ़ियों पर बैठा जो खोजता है अपने उद्धार के मंत्र, अपनी मुक्ति का तंत्र कन्धों पर लाद कर लाया हूँ उत्कंठा के स्तूप समा गयी है सारी दिशाएं मेरे

शुक्र मनाओ तुम भारत में हो..

भारतीय समाज में बुद्धजीवी का दर्जा पा चुकी अरुंधती रॉय ने कहा है कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा रहा ही नहीं है. गिलानी दिल्ली में सेमिनार में कह रहें है कि उन्हें आज़ादी से कम कुछ भी नहीं चाहिए. गिलानी अगर ऐसी बात कहें तो कोई हैरानी नहीं होती लेकिन अरुंधती ऐसा कहें तो आश्चर्य होता है. हालांकि इसके पहले भी अरुंधती रॉय एक ऐसा ही बयान दे चुकी हैं. तब उन्होंने मावोवाद का समर्थन किया था. कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा ना मानने सम्बन्धी बयान वहां पर अपनी जान कि बाज़ी लगा रहे जवानों के लिए एक तमाचा है. साथ ही शेष देश के लोगों के लिए क्षोभ और शर्मिंदगी की वजह है. चौंदहवी सदी में कश्मीर में इस्लाम के प्रवेश के बाद से लेकर आज तक कश्मीर हमेशा ही अपनी शांति के लिए जलता रहा है. सन १८४६ में कश्मीर में सिखों और अंग्रेजो के बीच संघर्ष हुआ. मुद्दा कश्मीर पर अंग्रेजों के अधिकार से जुड़ा था. बाद में अंग्रेजों ने ७५ लाख रुपये में राजा गुलाब सिंह को कश्मीर दे दिया. समय बीतता गया और सन १९२५ में गुलाब सिंह की ही पीढ़ी हरी सिंह को राजा बनाया गया. इसी समय एक बार फिर से घाटी में मुस्लिम सियासत शुरू

भागती छिपकली और दो अक्टूबर

आज गाँधी जयंती है. लाबहादुर शास्त्री का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था. ये इस देश का सौभाग्य है की यहाँ ऐसे महान सपूत पैदा हुए. इन्होने अपने कार्यों से न सिर्फ भारत में बल्कि संपूर्ण विश्व को राह दिखाई. लेकिन अफ़सोस इस बात का है की भारत देश ने इन सपूतों के आदर्शों को व्यवहार में लाना बंद कर दिया है. स्वतंत्रता के साथ वर्ष बीत चुके हैं. गाँधी और शास्त्री अब महज किताबों में सिमट कर रह गए हैं. क्लास वन से लेकर क्लास टेन तक हम गाँधी और शास्त्री के बारे में पढ़ते हैं. इसके बाद धीरे-धीरे कोर्स में इनका हिस्सा कम होने लगता है. जब बात इन दोनों के आदर्शों को जीवन में उतारने की आती है तब तक हम लोग इन्हें भूलने की कगार पर आने लगते हैं. इसके बाद तो सत्य का सिपाही हो या कर्म का पुजारी दोनों ही बस दो अक्तूबर को याद आते हैं. जो लोग अखबार मंगाते हैं उन्हें सुबह का अखबार देख कर पता चलता है. तमाम सरकारी विभागों को अचानक इस दिन गाँधी और शास्त्री याद आ जाते हैं. लिहाजा देश के लगभग सभी(जो छपते हो या जो न भी छपते हो) अख़बारों में यथा संभव जितने बड़े हो सके उतने बड़े विज्ञापन दिए हैं. भला इससे बेहतर क्

शुक्रिया शशि जी, आपने याद दिलाया हम युवा हैं

एक सुबह जीमेल और ऑरकुट पर लोगिन करते ही फ्रेंड लिस्ट में जुड़े उदय गुप्ता जी ने मुझसे मेरा फ़ोन नंबर पूछा, मैंने दे दिया. इसके थोड़ी देर बाद मुझे लखनऊ से एक फ़ोन आया. इस फ़ोन पर मुझसे कहा गया कि आपके पास थोड़ी देर में देहरादून से फ़ोन आएगा. इतनी देर में मेरे मन में कौतूहल आ चुका था. दो लगभग अनजान फ़ोन और तीसरे का इंतज़ार. हालाँकि ये इंतज़ार लम्बा नहीं चल सका और जल्द ही एक फ़ोन और आया. फ़ोन पर शशि भूषण मैथानी जी थे देहरादून से. कुछ देर कि बातचीत के बाद मुझे पता चल गया कि शशि कि मुझसे उम्र में बड़े और अनुभव में सम्पन्न हैं. शशि जी के हाथ मेरा एक लेख लगा था. शशि जी उसे अपनी पत्रिका' यूथ आईकॉन' में प्रकाशित करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने कई माध्यमों से होते हुए मेरा फ़ोन नंबर प्राप्त किया था. शशि जी युवाओं को ध्यान में रखकर एक पत्रिका का प्रकाशन करते हैं लिहाजा सोच भी युवा थी. मन में कुछ करने की ख्वाहिश और अन्याय के प्रति बागी तेवर. शशि जी के साथ मेरी बातचीत बहुत लम्बी नहीं थी लेकिन इस अल्प अवधि की बातचीत के दौरान मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं आज भी युवा हूँ. किसी मुद्दे प
O! Childhood, Sometimes beginning the day with a whisper, sometimes with a cry Sometimes gaping in the void, at times beginning it with an innocent invite The sudden trance that it takes me into away from the colossal clutches of the trite Dragging away, disconnected, liberating to the elementary momentary amnesia Cruising to the myopic state of bionic reflections jaded by the hyperemia The ephemeral circumvention of the moment drawn away from the empirical hysteria To the cerebral existence of the self-efficacious creation, to that fleeting vision There comes a time, When debates become primordial, when the need of solutions become unreal O! Childhood, Why don't you stay forever transcending me to the realms of that fading Ideal from my friend santosh

बारात में बसिऔरा

मैं ये दावा तो नहीं करता कि इस शीर्षक को पढ़ने वालों की बड़ी तादात शायद इस शीर्षक का मतलब ना समझ पाए लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि एक आदमी तो कम से कम होगा ही जिसे शायद इसका अर्थ समझने में कुछ परेशानी हो तो साहब बारात का मतलब आप जानते ही होंगे(नहीं जानते तो डूब मरिये कहीं, आजकल नालों में भी इतना पानी है कि काम हो जायेगा) और जहाँ तक बात बसिऔरा कि है तो जब घर मैं खाना बच जाता है तो उसे बासी कहते हैं और जब बारात या किसी अन्य बड़े आयोजन में बचा खाना फिर से परोसा जाता है तो उसे बसिऔरा कहते हैं.....अब समझ गए होंगे आप(नहीं समझे तो......) वर्तमान में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भी हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है..पूरी बारात है लेकिन परोसा जा रह है वही बासी भोजन. दूरदर्शन का एक अपना ज़माना था. सधी हुयी भाषा में किसइ सरकारी प्रेस विज्ञप्ति की तरह ख़बरें पढ़ दी जाती थी. धीरे धीरे परिदृश्य बदलने लगा और निजी क्षेत्र में मीडिया का पदार्पण हुआ. बुद्धू बक्सा समझदार होने लगा. अब टीवी पर ऐसी ख़बरें बोलने और दिखने लगी जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. एदुम से लगा कि इस देश में गरीबों और दलितों का न

You the Indian dog

You the Indian dog, मेरे लिए यही संबोधन था उस व्यक्ति का फेसबुक पर कश्मीर पर चर्चा के दौरान. मई हैरान था, जहाँ तक मुझे पता था, ये कहने वाला एक हिन्दुस्तानी( कश्मीरी) था. बात चल रही थी कश्मीर में उछाले जा रहे पत्थरों की तभी एकायक इस विमर्ष में जगह बना ली इस्लाम ने. मैं अकेला था इस बात को कहने वाला कि कश्मीर समस्या का हल पत्थरों से नहीं हो सकता और कई थे इस मत के पोषक की अब तो इस जन्नत को पत्थरों के सहारे ही बचाया जा सकता है... कश्मीर के हालात पर मुझ जैसे किसी नौसिखिया पत्रकार को कुछ भी लिखने का अधिकार बुद्धजीवियों की और से नहीं दिया गया है लेकिन मै ये दुस्साहस कर रहा हूँ. भारत का कोई भी नागरिक कश्मीर को अपने दिल में रखता है. देश का आम नागरिक जो किसी पार्टी विशेष से सरोकार नहीं रखता हो या कश्मीर के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना से ग्रसित न हो(रखने को कई लोग तो बिहार के प्रति भी दुर्भावना रखते हैं) वो यही कहेगा की कश्मीर हमारे देश का ताज है. आज आखिर ऐसा क्या हो गया की लगभग एक अरब जनता की भावना पर घाटी के कुछ लाख लोगों के पत्थर भारी पड़ गए. सन १९४७ में मिली आज़ादी के बाद स

पाकिस्तान जिंदाबाद

आपको ये शीर्षक कुछ अजीब लग सकता है. आखिर लगे भी क्यों ना, साल में महज दो बार आपको याद आता है कि आज आप स्वतंत्र हैं, आज़ाद मुल्क में रहते हैं और इस आज़ादी को पाने के लिए कुछ लोगों ने कुर्बानी दी थी........१५ अगस्त और २६ जनवरी ना आये तो आप को याद ही ना आये कि आज आप जिस खुली हवा में सांस ले रहें हैं उसके लिए कईयों कि साँसे बंद कर दी गयीं हैं. वैसे आप भी अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं इसमें कोई दो राय नहीं.....साल में एक एक बार आने वाली इन दो तारीखों पर आप फिल्मी गीत बजाते हैं....बच्चों का शौक पूरा करने के लिए २ रूपये में तीन रंगों में रंगा हुआ कागज का एक टुकड़ा खरीदते हैं.....कई दिनों बाद अपने कुछ ख़ास रिश्तेदारों से मिलने जाते हैं, थोड़ी देर आराम करते हैं, शाम को किसी बड़े से मॉल में शॉपिंग करते हैं, बाहर खाना खाते हैं और घर आकर सो जाते हैं. अब भला इससे बेहतर दिनचर्या क्या हो सकती है? अब ऐसे में कोई आपको याद दिलाये कि आज पंद्रह अगस्त है तो आप उसपर नाराज़ तो होंगे ही. अब वो आपका सामान्य ज्ञान जांच रहा है...ऐसे हालात फिलवक्त हर युवा भारतीय के हैं...उन्हें पूरे साल याद नहीं रहता कि वो ए

गुरु, ई मीडिया वाले त.......

गुरु ई मीडिया वाले त पगला गैयल हववन....धोनिया के बिआयेह का समाचार कल रतिए से पेलले हववन और सबेरे तक वही दिखावत हववन...जब तक एकरे एक दू ठे बच्चा ना पैदा हो जैईहें लगत हव तब तक दिखवाते रहियें....इनकी माँ कि ........... यह वो सहज प्रतिक्रिया थी जो मुझे अपने शहर बनारस में एक चाय की दुकान पर चुस्कियों के बीच सुनायी दी थी..यकीन जानिए मैंने बिल्कुल भी इस बात का खुलासा वहां नहीं किया था कि मैं भी इसी खेत में पिछले पांच सालों से 'उखाड़' रहा हूँ.....अगर मेरे मुहं से ये तथ्य गलती से भी निकल कर बाहर आ गया होता तो आप समझ सकते हैं कि मेरी बारे में वहां क्या क्या कहा जाता? वैसे एक बात जगजाहिर है कि बनारसी पैदा होते ही बुद्धजीवियों की कोटि में आ खड़े होते हैं....नुक्कड़ की चाय और पान की दुकाने इन बुद्धजीवियों के पाए जाने का केंद्र होती हैं और अगर आप उस दुकान के इर्द गिर्द बहने वाली हवा के विपरीत जाते हैं तो आप से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं होगा....हाँ अगर आपको अपनी बात कहने का बहुत शौक है तो बनारसी अंदाज़ में कहिये, शायद कोई सुन भी ले..वरना पढ़े लिखे लोगों की तरह तथ्यात्मक ज्ञान देने लेगे तो आप लौ

क्योंकि ख़्वाब देखने का कोई वक़्त नहीं होता.....

क्या सपने देखने के लिए भी कोई वक़्त तय किया जा सकता है....सोचता हूँ लोग क्यों कहते हैं कि ये दिन में सपने देखता है? क्या सपने महज रातों में देखे जाने चाहिए? क्या सपने देखने के लिए जगह भी ठीक ठाक होनी चाहिए? कहीं भी कभी भी सपने देखने में क्या बुराई है? पता नहीं लेकिन जब से सपने देखने शुरू किया है तभी से यह सुनता रहा हूँ कि सपने देखने का एक वक़्त होता है...हर समय सपने नहीं देखे जाते...मुझे लगता है कि ये बातें तब कहीं गयी होंगी जब लोग किसी ख़ास समय पर सपने देखते होंगे और एक मुख़्तसर वक़्त उन्हें हकीकत में बदलने के लिए मुक़र्रर करते होंगे....लेकिन पवन से भी तेज इस मस्तिष्क में एक सवाल यहाँ और आता है कि क्या उनके सपने इतने छोटे हुआ करते थे कि किसी ख़ास वक़्त में देखे जाएँ और किसी ख़ास समय में उन्हें पूरा कर लिया जाये....और अगर पूरे नहीं हो पाए तो क्या? सपने ही नहीं देखते थे....? एक और सवाल मन में आ जाता है कि वो सपने कब देखते होंगे? जहाँ तक मुझे पता चला है वो वक़्त रात का था....लीजिये अब एक सवाल और आ गया मन में कि लोग रात को ही सपने क्यों देखते थे? क्या दिन में किसी का डर था

गाँधी को समझे अरुंधती..............

क्या आपको याद है कि वर्ष २००४ में सिडनी शांति पुरस्कार किसे मिला था? नहीं याद है तो हम याद दिला देते हैं ..ये पुरस्कार मिला था अरुंधती रॉय को....कितनी अजीब बात है ना! कभी अपने अहिंसात्मक कार्यों के लिए इतने बड़े सम्मान से नवाजे जाने वाली महिला आज उसी अहिंसा को नौटंकी के समकक्ष रखने पर तुली है.....मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान अरुंधती रॉय ने कहा था कि 'गांधीवाद को दर्शकों की ज़रुरत होती है'...ये एक पंक्ति ही काफी है कि हम अरुंधती रॉय की मनोदशा के बारे में समझ सके....अरुंधती रॉय के गाँधी के विचारों के प्रति क्या नजरिया है ये भी आसानी से समझा जा सकता है....जिस तरीके से अरुंधती रॉय ने मावोवादियों के समर्थन में अपने सुर अलापे हैं उसका निहितार्थ देश की वर्तमान राजनीतिक और सामजिक व्यवस्था से परे है..... आज देश में आतंरिक सुरक्षा को लेकर जो सबसे बड़ा खतरा है वो है नक्सालियों और मावोवादियों से और इस बात को आम आदमी से लेकर ख़ास तक जानता है तो क्या इसे अरुंधती रॉय नहीं समझ रही हैं....दंतेवाडा में सुरक्षा बलों पर हमले के बाद जिस तरीके से झारग्राम में ट्रेन को नि

बंधे धागे खोल दो....

ना जाने किस पीर की दरगाह पर कुछ कच्चे धागे बांध आया था मैं किस वाली के दरबार में हथेलियाँ जोड़ मन्नत मांगी थी मैंने गुलाबों की चादर से आती खुशबू और जलती अगरबत्तियों के धुएं के बीच कुछ बुदबुदाया था मैंने किसी मंदिर की चौखट पर सिर झुकाया था मैंने हाथों से घण्टियों को हिलाकर अपने ही इर्द गिर्द घूम कर कुछ तो मनाया था मैंने तपती धूप में शायद किसी साये की आस की थी मैंने या फिर तेज़ बारिश में ठौर की तलाश की थी मैंने या कभी यूँ ही सुनसान राहों पर चलते हुए किसी साथी की ज़रुरत महसूस हुयी थी तभी तो मुझे ' तुम ' मिले हो शायद अब वक़्त आ गया है दरगाह पर बंधे धागों को खोलने का ...............

शुक्र है! ये कौम मुर्दा नहीं....

देश में लोकतंत्र बेहद मजबूत हो गया है लेकिन लोगों की बातें इस तंत्र में नहीं सुनी जाती....लोग बोलते बोलते थक चुके हैं और अब तो मुर्दई ख़ामोशी ओढ़ कर चुप बैठे हैं.....लोकतंत्र का उत्सव मनाया जाता है लेकिन शवों के साथ....कौम सांस लेती तो है लेकिन है मुर्दा...ऐसे में तसल्ली देती है एक मुहिम...अपने अधिकारों की भीख मांग- मांग कर थक चुके बच्चों ने अब वादाई कफ़न उतार दिया है और एक जिंदा कौम की तरह इंतज़ार नहीं करना चाहते....अब वो अपनी राह खुद बना रहें हैं...मंजिलें उन्हें मालूम है और सहारा उन्हें चाहिए नहीं......मैं बात कर रहा हूँ वाराणसी में बनाई गयी दुनिया कि पहली और अभी तक एकमात्र निर्वाचित बाल संसद की.... ये बाल संसद समाज के उस तबके के बच्चों की आवाज बुलंद कर रही है जहाँ तक किसी भी सरकार की योजनायें अपनी पहुँच नहीं बना पाती....इस संसद का गठन दो वर्षों पूर्व वाराणसी की एक स्वयं सेवी संस्था विशाल भारत संस्थान ने किया था ......हालाँकि अब ये संसद अपने तरीके से काम कर रही है...विशाल भारत संस्थान मुख्य रूप से समाज के गरीब तबके के बच्चों के लिए काम करती है...कूड़ा बीनने वाले और गरीब

सर, कोई जुगाड़ है ?

देश में मानसून का इंतज़ार हो रहा है..सब कह रहें हैं की मानसून इस बार अच्छा आएगा, सब इसलिए कह रहें हैं क्योंकि मौसम विभाग कह रहा है... वैसे मौसम विभाग गाहे बगाहे यह भी कह देता है की हो सकता है की कुछ गड़बड़ हो जाये...खैर, भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों पर यकीन करना किसी कचहरी में बैठे तोता गुरु की बातो पर भरोसा करने सरीखा ही है.....वैसे हर साल मानसून में एक और बारिश भी होती है वह है पत्रकारों की बारिश.....हर साल देश के विश्विद्यालयों से सैंकड़ो पत्रकार निकलते हैं( मैं भी कभी इसी तरह निकला था) बारिश के मौसम में निकलते हैं लिहाजा इनमे से कुछ बरसाती मेढ़क की तरह होते है.... जबसे देश में मीडिया ने अपने पाँव औरों की चादर में डालने शुरू किये तब से विश्विद्यालयों में हर साल ये बारिश अच्छी होती है...सबसे बड़ी बात की इसमें मौसम विभाग की एक नहीं सुनी जाती.....वैसे आप अंदाज़ लगा सकते हैं की अगर हर साल सैंकड़ो की संख्या में पत्रकार निकलते हैं तो देश का लोकतंत्र कितना मजबूत हो रहा होगा लेकिन आपको यहीं रोकता हूँ ....ये ज़रूरी नहीं है की पत्रकार बन जाने के बाद कोई पत्रकर

भाग जाओ, नक्सली आ रहें हैं......

१९ मई को राहुल गाँधी की उत्तर प्रदेश के अहरौरा में सभा चल रही थी..उसी समय मेरे एक पत्रकार मित्र ने फ़ोन किया और कहा कि देश का पर्यटन मंत्री आपके करीब पहुंचा है आप वहां है कि नहीं ? मैंने राहुल गाँधी के लिए यह संबोधन पहली बार सुना था...मुझे क्षण भर में ही विश्वास हो गया कि मेरा कमजोर राजनीतिक ज्ञान अब शुन्य हो चला है...मैंने अपने मित्र से पूछा कि भाई यह राहुल गाँधी ने पर्यटन मंत्रालय कब संभाला? सवाल का अंत हुआ ही था कि जवाब शुरू हो गया मानो मित्र महोदय सवाल के लिए पहले ही से तैयार थे....खैर एक अखबार में कार्यकारी संपादक का पद संभाल रहे मित्र ने बताया कि उन्होंने राहुल गाँधी का यह पद स्वयं सृजन किया है...क्योंकि राहुल गाँधी पूरे देश के पर्यटन पर ही रहते हैं....लिहाजा उनके लिए इससे अच्छा मंत्रालय और क्या हो सकता है....मैं मित्र के तर्क से सहमत हो रहा था...अब तो मैं मित्र की बात आगे बढा रहा था..लगे हाथ मैंने राहुल को पर्यटन मंत्री नहीं बल्कि स्वयंभू पर्यटन मंत्री का दर्जा दे दिया.... वैसे मेरी इस बात से हाथ का साथ देने वाले खुश नहीं होंगे लेकिन कमल और हाथी के सवार

जिंदा कौम का इंतज़ार .....

आखिर किस आधार पर बात हो माओवादियों से ? क्या बसों पर हमले और ट्रेन्स पर हमले को लेकर बातचीत होगी ? पिछले दिनों जब प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे उस समय कहीं से भी नहीं लगा था कि केंद्र सरकार आतंरिक सुरक्षा के मामले में कोई बड़ा कदम उठाने जा रही है ... पश्चिमी मिदनापुर के जिस इलाके में यह हादसा हुआ है उस ट्रैक को पिछले छह महीने के भीतर माओवादियों ने कई बार निशाना बनाया....कभी देश के इतिहास में पहली बार किसी ट्रेन का अपहरण किया तो कभी चलती ट्रेन पर गोलियां बरसाईं...और अब यह करतूत...क्या सरकार को इस बात को मान चुकी है कि बातचीत होती रहे खून खराबा तो चलता ही रहेगा...आखिर कौन सी बातचीत हो रही है....? क्या किया जा रहा है?....नक्सल और माओवाद जैसी समस्या से निबटने में सरकार का कोई भी कदम क्यों नहीं निर्णायक साबित हो रहा है.....पश्चिमी मिदनापुर में हुआ रेल हादसा साफ़ बता रहा है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार पूरी तरह से देश में खतरे का घंटा बजा रहे इन वैचारिक आतंकवादियों के आगे घुटने ट

एक माँ थी !

आज माँ का दिन है ... अफ़सोस है की मैं यह बात आपको शाम का अँधेरा होने के बाद बता रहा हूँ लेकिन इस बात का यकीन भी है की आप की जानकारी मेरे बताये जाने का मोहताज नहीं होगी ... आज एक लड़की का दसवां भी है ... या शायद एक बेटी का भी ? आज एक औरत को पेरोल भी मिली है या शायद एक माँ को अपनी बेटी के दसवें और तेरहवें में शामिल होने की कानूनी अनुमति भी मिली है ? हालाँकि मेरा कुछ भी लिखना इस नज़रिए से देखा जायेगा की मैं निरुपमा को न्याय दिलाने की बात करने वाला हूँ या फिर दकियानूसी विचार धारा का पोषक हूँ .... लेकिन इन दोनों ही तरह की बातों से अलग होकर मैं कुछ लिखने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ .... पैराग्राफ बदलते ही निरुपमा का नाम आ गया ... मुझे जहाँ तक लगता है की आप सभी निरुपमा से वाकिफ होंगे इसीलिए इस नाम को लिखने से पहले कोई भूमिका नहीं लिखी .... वैसे मैंने निरुपमा को उसकी दुखद मौत के बाद जाना है ... निरुपमा की मौत की खबर सुनते ही मेरे