यह एक अजीब नज़ारा था....यह वही शहर है जिसे लोग आधुनिक इतिहास के लिहाज से सबसे पुराना जीवंत शहर कहतें हैं... वही शहर जो कई मायने में बेहद खूबसूरत है.....कहतें हैं शिव के त्रिशूल पर बसा है.....यहीं माँ गंगा उलटी बहती है....यही एक ऐसा शमशान है जहाँ कभी भी चितायों कि आग नहीं बुझती लिहाजा इसे महाशमशान भी कहतें हैं.....बहुत कुछ जो इस शहर को और शहरों से अलग बना देता है...अलग इस लिहाज से नहीं कि यहाँ रहने वालो लोग कुछ अलग हैं बल्कि इस शहर कि पूरी कि पूरी आबो हवा ही अजीब है...मेरी एक मित्र हैं जो देहरादून मेंएक प्रोडक्शन हाउस में प्रोग्राम डारेक्टर हैं..उन्होंने कहा कि बनारस घूमने आना चाहती हैं....मैंने पूछा कि क्या कोई ख़ास वजह है...उन्होंने कहा नहीं बस यूं ही ....ज्यादातर लोग आज बनारस को महज घूमने के नज़रिए से ही देखने आते हैं....यह एक अच्छा सन्देश नहीं है....बनारस को समझना होगा .....दरअसल तीर्थाटन और पर्यटन के अंतर को समझना होगा.....हाँ पहले आप को उस शुरूआती वाक्य पर लिए चलता हूँ जहाँ से बात शुरू कि थी....दरअसल मैं बनारस के एक बेहद पॉश मने जाने वाले इलाके सिगरा से गुजर रहा हूँ....यहाँ बनारस के पहला मल्टीप्लेक्स खुला है....यूं तो इसे खुले हुए कुछ दिन हो चुके हैं लेकिन इसमें जाने वाली भीड़ देखता हूँ तो सहसा यकीन ही नहीं होता कि यह पुराना है....इतनी भीड़ रहती है कि रस्ते से चलना मुश्किल....इस मल्टीप्लेक्स में इतनी भीड़ के होने क़ा मकसद मुझे नहीं समझ आता है....गाड़ियों कि लाइन लगी है...पार्किंग में जगह नहीं है लेकिन लोगों के आने क़ा सिलसिला लगातार जारी है....क्या यह महज एक भीड़ है? लेकिन अगर भीड़ भी है तो इसका अपना एक मनोविज्ञान तो होगा....आखिर क्या है वोह सोच....इस मल्टी प्लेक्स में जमा भीड़ में कुछ वोह लोग भी हैं जिन्हें देख कर यह अंदाज़ लगा पाना मुश्किल है कि वोह यहाँ क्यों है...लेकिन वोह यहाँ हैं....क्या भौतिकतावाद आपकी आवश्यक आवाश्यक्तायों पर भी भारी है? इस जमा भीड़ के बड़ा हिस्सा वोह है जिसके कंधों पर देश क़ा भविष्य टिका बताया जाता है...नयी जींस, नयी टी शर्ट एक महंगी सी दुपहिया गाड़ी और महंगा मोबाइल....क्या यह पहचान होगी इस देश के भविष्य कि..? मेरे लिखने क़ा मतलब कुछ यह भी निकाल सकतें हैं है कि मैं भी संघ या लेफ्ट कि विचारधारा से प्रभवित हूँ लेकिन ऐसा हरगिज़ नहीं है...मैं भूतवाद से प्रभावित हूँ...वही भूत वाद जो आपको आपके भारतीय होने का एहसास कराता हैं...इस बनारस जैसे शहर को जो दिखता कम है महसूस अधिक होता है वहां पर हर भीड़ का एक उद्देश्य होता है...यहाँ हर गली हर चौक का मकसद है...यहाँ लोग शाम को हर काम निबटा के बहरी अलंग के लिए जाया करते थे...बहुत से लोगों को अब तो यह पता ही नहीं होगा कि बहरी अलंग होता क्या है......इसमें होता क्या है...खाने कि चीज़ है या पहनने कि ....दरअसल यह ना खाने कि चीज़ है और ना ही कि...यह तो वोह ख़ुशी है जो गंगा के साथ बाटी जाती है...यह वोह दुःख हइ जिससे बाहर आने का रास्ता गंगा से पूछा जाता है..वही गंगा जो हमारी पहचान से जुडी है..वही गंगा जो हमारी संस्कृति कि वाहक है...मैं एक बार फिर कहता हूँ ही मैं मल्टीप्लेक्स में जाने का विरोधी नहीं हूँ लेकिन अपनी पहचान से.... अपनी संस्कृति से दूर होते किसी को देखना मुझे दुःख ज़रूर देता है...हम युवा हैं लिहाजा हमारी ओर यह जमाना आशा भरी निगाह से देखता है....कोशिश हमें भी करनी होगी अतीत को साथ लेकर वर्तमान और भविष्य के लिए तभी शायद हम और हमारा देश अपनी पृथक पहचान के साथ नज़र आएगा.......
Dev anand sahab with Sadhna in '' ASLI NAQLI'' Dev Anand sahab in a pensive mood during the filming of '' MAIN SOLAH BARAS KI'' in Scotland Mr. Dev anand with his leading lady Sabrina ( who he introduced ) in '' MAIN SOLAH BARAS KI'' in Jaipur. Dev sahab with SD Burman, Kishor kumar, Lata ji, poet Neeraj and RD Burman during the recording of ''PREM PUJARI''. Dev sahab with Zeenat Aman in '' ISHK ISHK ISHK'' against the background of Mt. Everst in 1976. Dev sahab with Madhubala in '' KALA PANI''. Dev sahab with Kalpana Kartik in ''HOUSE NO 44" Dev sahab with Geeta Bali in '' BAAZI'' Dev sahab in '' HUM DONO'' Dev sahab with Mumtaaz in '' HARE RAMA HARE KRISHNA''. Dev sahab with Tina Munim ( who he introduced) in '' DES PARDES'' Dev sahab with Waheeda Rahman in ''GUIDE''
...मैं एक बार फिर कहता हूँ ही मैं मल्टीप्लेक्स में जाने का विरोधी नहीं हूँ लेकिन अपनी पहचान से.... अपनी संस्कृति से दूर होते किसी को देखना मुझे दुःख ज़रूर देता है...
जवाब देंहटाएं....प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!
आपकी इस पोस्ट के बहाने "बहरी अलंग" की जानकारी मिली, शुक्रिया!
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