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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बदल गया है मुस्तकबिल

नार्थ ब्लाक में चल रहा एक संवाद -  इतना हंगामा मचाने की क्या जरूरत है। आखिर ऐसा क्या हो गया। कोई तुफान आ गया? सुनामी आ गई? एक वोट से सरकार के गिरने का खतरा आ गया? सीबीआई ने अपनी क्लीन चिट वापस ले ली? नहीं न। तब इतना शोर क्यों मवा रहे हो। यार चीन ही तो है। भारत की सीमा में 19 किलोमीटर ही तो आए हैं। कोई दिल्ली तक तो नहीं आ गए न चीनी। अगर आ भी जाएं तो उनके साथ पहले फ्लैग मीटिंग करना।  उनको समझाना। बातचीत करके उनको वापस जाने को कहना। न माने तो भी कोई बात नहीं। फिर मनाना। मान ही जाएंगे। तुम तो जानते हो कि चीन की आबादी लगातार बढ़ रही है। रहने की जगह नहीं। दिनचर्या के कई और काम हैं जिनके लिए खुली जगह कम पड़ गई होगी। आने दो, हम सहिष्णुता की मूरत हैं। और हां, उनके खाने पीने का पूरा ध्यान रखना। कोई परेशानी न होने पाए। आखिर पड़ोसी हैं हमारे।  संवाद खत्म।  कुछ ऐसे ही हालात लग रहे हैं। देश की सरकार का जो रवैया चीनी सैनिकों की घुसपैठ को लेकर रहा है। उससे देश का कोई भी नागरिक संतुष्ट नहीं हो सकता।  पहले खबर आई कि चीनी सैनिक देश की सरहद पार कर भारत में घुस आए हैं। जाहिर है कि देश की जनता को पता

आजम खां चले लेक्चर देने

कितनी अजीब बात है न कि आजम खां को अमेरिका के बोस्टन में लोगान एअरपोर्ट पर सुरक्षा जांच के लिए रोक लिया गया। एक भारतीय होने के नाते आप और हम पहली बार में इसकी आलोचना ही करेंगे लेकिन जैसे ही इसके बाद आजम खां के व्यव हार और आरोपों की याद आएगी हम इसका मजा लेने लग रहे हैं। आजम खां काबीना मंत्री हैं ये उनके सरकारी प्रोफाइल में लिखा है लेकिन कुछ चीजें बिना लिखे ही आपको समझ में आ जाएंगी। कभी कभी नहीं बल्कि अक्सर ये लगता है कि आजम खां कैबिनेट मंत्री नहीं बल्कि खुद मुख्यमंत्री हैं। ये व्यवहार यूपी की जनता को कुछ अजीब जरूर लगता है लेकिन उसकी मजबूरी है। हमारे फिलहाल के संविधान में हमारे पास ये अधिकार नहीं है कि हम किसी की चलती साइकिल को रोक सकें। पांच साल तक तो हमें सहना ही होगा।  वैसे सपा के अधिकतर नेताओं को लग रहा है कि यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार होने का मतलब है कि खुला राज। यहां कानून का राज कहने की कोई जरूरत नहीं है। आजम खां की भी स्थिती ऐसी ही होगी। आप समझ सकते हैं। उन दिनों को याद कीजिए जब लग रहा था कि आजम खां का राजनीतिक करियर लगभग खत्म सा हो गया है। ऐसे में आजम खां को भी नहीं आभास र

जब नगरिया हो अंधेरी तो राजा हुआ न चौपट

अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने काफी वक्त बीत चुका है। इस दौरान अखिलेश यादव दो बार बजट भी पेश कर चुके हैं। अखिलेश यादव जब देश के सबसे बड़े राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने तो उनके समर्थकों के साथ ही उनसे पार्टीगत तौर पर अलग लोगों में भी एक मौन खुशी देखी गई। अखिलेश के सत्ता संभालते ही लगा कि अब जल्द ही यूपी का काया कल्प हो जाएगा। ले किन हुआ ठीक उलट। मायावती के राज से पीछा छूटने के बाद अखिलेश का राज आया तो कहावत याद आई कि आसमान से गिरे खजूर में अटके। दरअसल अखिलेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री जरूर हैं लेकिन शासन किसी और का है। ये बात छुपाने की कोशिश जरूर होती रहें लेकिन अब लोग समझ चुके हैं कि अप्रत्यक्ष तौर पर शासन अखिलेश के पिता और राजनीतिक गुरू मुलायम सिंह यादव ही चला रहे हैं। इसमें आप कुछ और नाम भी जोड़ सकते हैं। आजम खां, शिवपाल यादव, नरेश अग्रवाल वगैरह वगैरह। यहां पर सपा और कांग्रेस का एक भेद भी सामने आता है। हालांकि दोनों ही पार्टियों ने युवा चेहरे को आगे रखकर चुनाव लड़ा लेकिन अगर कांग्रेस जीत जाती और राहुल सीएम बनते तो सोनिया का इतना हस्तक्षेप शायद नहीं होता। खैर, बा

किस आदमी की बात कर रहें हैं अरविंद ?

नई दिल्ली में बिजली बिलों के मुद्दे पर अनशन पर बैठे अरविंद केजरीवाल आखिर किसी आदमी की बात कर रहे हैं ये एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। यकीनन इस देश की राजनीति आजादी के साठ दशक बाद भी बिजली, सड़क और पानी के इर्द गिर्द ही घूम रही है। राजनीतिज्ञों ने इस देश के हर इलाके तक बिजली, सड़क और पानी को न जाने पहुंचाने की मशक्कत की या फिर न पहुंचाने की इसका फर्क भी अब मुश्किल हो गया है। फिलहाल इस बहस से आगे निकल कर राजनीति में आने की जद्दोजहद में लगे अरविंद केजरीवाल की।  अरविंद केजरीवाल और आवाम से जुड़ने की उनकी कोशिश पर चर्चा करने से पहले हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि अरविंद दुनिया के सबसे  बड़े   लोकतंत्र के राजनीतिक परिदृश्य में आना कैसे चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल असंतोष और मूक बना दिए जाने का दंश झेल रही जनता के लिए बहुत हद तक एक क्रान्तिकारी के रूप में आए। तब उनके साथ अन्ना हजारे थे। ये वही अरविंद हैं जो पहले राजनीति में आने से इंकार करते रहे और इसके बाद आ भी गए। हालांकि इस दौरान उन्हें अन्ना का साथ छोड़ना पड़ा। यहां एक सवाल पैदा होता है कि क्या अरविंद हर हाल में राजनीति में आना ही चाहते