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संदेश

टच वुड

धीरे धीरे अब मौसम सर्द होने लगा है  कमरे में आने वाली धूप अब अलसा गयी है  गहरे रंग के कपड़ों से आलमारी भर गयी है  ऊनी कपड़ों से आती नेफ्थलीन की महक तैर रही है  कमरे में  सुबह देर तक तुम्हारे आलिंगन में  बिस्तर पर पड़ा हूँ  ना तुम उठना चाहती हो  ना मैं  देखो हम साथ खुश हैं  तुम हर बार की तरह कहती हो टच वुड  मैं भी कहता हूँ  टच वुड  तुम्हारे साथ घर तक का सफ़र हमेशा लम्बा लगता है  हाँ, जब इसी रास्ते से  स्टेशन जाता हूँ तो राह छोटी हो जाती  मैं देर तक तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ  हम हमेशा साथ रहेंगे  तुम फिर कहती हो  टच वुड  मैं भी तुम्हारे साथ कहता हूँ  टच वुड  एक रिश्ते का ऐसा उत्सव  विकल्पहीन है यह सौंदर्य  तुम्हारी पतली ऊंगलियों के बीच में  अपनी ऊंगलियों को डाल कर  कितना कुछ पा जाता हूँ मैं  तुम्हारे चेहरे पर तैरती हंसी भी  बहुत अच्छी लगती है  इस बार मैं पहले कहूँगा  टच वुड  बोलो  अब तुम भी बोलो ना  टच वुड 

माँ अब व्यस्त है

दो-चार दिनों पहले धूप सर्द सी लगी थी पड़ोस की एक महिला ने भी बताया था कि सर्दी आ गयी है  माँ अब व्यस्त है  बक्से में रखे  कम्बल, स्वेटर और मफलर निकालने में  वो इसे धूप में रखेगी  कई बार उलटेगी पलटेगी  भागती धूप के साथ  चटाई भी बिछाएगी  वो जानती है बच्चों को नेफ्थलीन की महक पसंद नहीं  वो पूरी तरह से इत्मीनान कर लेना चाहती है  बच्चों को खुश रखने का  कई बार बोल बोल कर आखिरकार वह पहना ही देगी  बच्चों को स्वेटर  इस बार अपनी पुरानी शाल में  अपना पुराना कार्डिगन पहने  वो सोचती रहेगी  बच्चों के लिए  एक नया स्वेटर लेने के लिए. 

हंगामा है क्यों बरपा

प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमैन मार्कण्डेय काटजू का भारतीय मीडिया के संबंध में दिया गया बयान आजकल चर्चा में है। हैरानी इस बात की है कि जो लोग काटूज के न्यायाधीश के रूप में दिये गये फैसलों पर खुशी जताते थे आज उन्हीं में से कई लोग काटजू को गलत ठहरा रहे हैं। शायद सिर्फ इसलिये कि इस बार मार्कण्डेय काटजू ने उन्हीं लोगों को आईना देखने की नसीहत दे दी है। मुझे नहीं लगता है कि आईना देखने में कोई हर्ज है। आज भी प्रबल धारणा यही है कि आईना सच ही बताता है। ऐसे में भारतीय मीडिया इस अग्निपरीक्षा को स्वयं स्वीकार करे तो अच्छा होगा।   भारत के लोकतंत्र की नींव में घुन तो बहुत पहले ही लग था लेकिन बात तब और बिगड़ी जब लोकतंत्र के चैथे स्तंभ पर काई लग गई। खबरों का आम जनता के प्रति कोई सरोकार नहीं रहा। खबरों के लिहाज से देश कई वर्गों में बंट गया। खबरों का भी प्रोफाइल होने लगा। किसी ग्रामीण महिला के साथ बलात्कार कोई मायने नहीं रखता बजाए इसके कि किसी नामचीन व्यक्ति ने तेज गति से गाड़ी चलाई हो। मानवीय दृष्टि से महिला के साथ बलात्कार की घटना अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन प्रोफाइल के नजरिये से नामचीन व्यक्ति का त

कश्मीर को ज्यादा ज़रुरत है अन्ना की

पिछले दिनों कश्मीर के मुद्दे पर प्रशांत भूषण के बयान से अन्ना का किनारा कसना इस बात की ताकीद करता है कि अन्ना हजारे कश्मीर के बारे में उसी तरह से सोचते हैं जिस तरह से सरहद पर अपने मुल्क की सलामती के लिए खड़ा एक सिपाही सोचता है। यही वजह रही होगी कि प्रशांत भूषण पर हमले के कुछ देर बाद जब पत्रकारों ने अन्ना से इस संबंध में प्रतिक्रिया लेनी चाही तो वह चुप लगा गये। साफ है कि आदर्श बुद्धिजीविता का वह स्तर जहां कश्मीर को भारत से अलग कर देने की सलाह दी जाती है अन्ना वहां नहीं पहुंचे हैं। अन्ना हजारे अब भी एक सैनिक की तरह सोचते हैं जो कश्मीर को कभी इस देश से अलग रख कर नहीं सोच सकता। अन्ना हजारे का मौन व्रत भी इस बारे में उठने वाले सवालों से बच निकलने का एक जरिया हो सकता है। अन्ना हजारे देश से भ्रष्टाचार खत्म करने की कोशिश में लगे हुये हैं और उनका एक सहयोगी भ्रष्टाचार से परेशान प्रदेशों को ही खत्म कर देना चाहता है। कश्मीर समस्या से जुड़े कई पहलुओं में एक भ्रष्टाचार का पहलू भी है। केंद्र सरकार ने अपनी प्राथमिकता की सूची में कश्मीर को सबसे उपर रखा है। देश के वार्षिक बजट का एक बड़ा हिस्सा कश्म

तन का बढ़ना ठीक, मन का बढ़ना नही

दिल्ली में प्रशांत भूषण पर हुआ हमला निंदनीय है इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन हमले के पीछे की वजहों को भी तलाशना बेहद जरूरी है। आखिर क्या वजह रही होगी कि इंदर वर्मा को ऐसा दुःसाहस करना पड़ा। क्या टीम अन्ना को लगने लगा है कि अब वो जो चाहेगी वो करवा सकती है ? क्या टीम आत्ममुग्धता की स्थिती में आ चुकी है ?   कोर्ट में किसी वकील को उसी के चैंबर में घुस का मारना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन इंदर वर्मा और उसके साथियों की नाराजगी इस कदर रही होगी कि उन्हें इस बात का भी डर नहीं रहा कि प्रशांत भूषण पर हमला करने के बाद उनके साथ क्या होगा। साफ है कि टीम अन्ना के व्यवहार से देश का एक वर्ग दुखी है। उसे लगने लगा है कि टीम अन्ना का मन बढ़ गया है। हालांकि टीम अन्ना ने हमेशा से इस बात का हवाला दिया है पूरा देश उनके साथ खड़ा है। अगर ऐसा है तो इंदर कहां रह गया था। इंदर इस देश में नया तो नहीं आया है। इंदर का गुस्सा शब्दों में बयां नहीं हो सकता था। ऐसा इंदर को लगा होगा। तभी तो उसने यह रास्ता चुना। अन्ना और उनकी टीम देश में व्याप्त प्रशासनिक भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहती है। देश के लोग भी यही चाहते हैं

वो आवाज जो हर पल साथ रहती है

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे आप ताजिंदगी नहीं मिलते हैं लेकिन वो लोग आपकी रोजाना की जिंदगी का हिस्सा होते हैं। जगजीत सिंह भी ऐसे ही थे। किसी नाजुक सी शायरी को जब वो अपने सुरीले गले से गाते थे तो लफ्ज मानों जिंदा हो उठते थे। आपकी जिंदगी में किसी बेजान से शब्द का कोई खास मोल नहीं होता लेकिन जब शब्द जगजीत सिंह के गले से निकल रहे हों तो एक-एक लाइन आपको जिंदगी का सच बताने लगती है। गजलें आमतौर पर इश्क का फलसफां बताती हैं। दिल कच्चा होता है और जब मोहब्बत की मझधार में उतरता है तो जगजीत सिंह की गजलें हर उतार-चढ़ाव में आपके साथ खड़ी नजर आती हैं। प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है, नये परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है। यह लाइनें किसी ऐसे जोड़े के लिए बेहद मायने रखती हैं जिसने प्यार की दुनिया में पहला कदम रखा हो। जगजीत सिंह की गाई यह गजल आज भी जेहन में इतनी खलिस के साथ कौंधती है मानों कल ही सुनी हो। जगजीत सिंह की गजलों में किसी तेज झरने के करीब खड़े होने पर मिलनी वाली ताजगी का एहसास होता है। कुछ सालों पहले उन्होंने गाया था- इश्क कीजिए फिर समझिये। इन लाइनों को समझने के लिए आपके दिल मे

ऐ समय

कहो तो  ऐ समय तुम क्यों हुए इतने अधीर तुम तो क्षण क्षण देखते हो ना परकोटे से भविष्य को मैं भी तो देख रहा हूं लिए तुम्हारी दृष्टि संजय तो नहीं हां यह कोई महाभारत भी तो नहीं फिर भी जीवन के कुरुक्षेत्र में मैं चक्रव्यूह में घिरा हूं अठ्ठाहस न करो विकल वेदना का उपहास न करो गर्भस्थ ज्ञान नहीं तो क्या अभिमन्यु सा द्वार तो खुलते और बंद होते रहते हैं मोह और मोक्ष से परे होते हैं उर की विह्वलता मार्ग प्रशस्त करती है युद्ध की व्याकुलता ही जीत का हर्ष करती है जीवन व्योम का तल नहीं है स्पंदनों का धरातल नहीं है आलम्ब है अविलम्ब है तुम पर आवृत है तुम से ही निवृत है वंदन और वरण की चाह में कब कहां कोई अश्रु छलका स्पर्श हुआ तो होगा तुमको भी बोलो अलका अभिसिंचित मन का संकल्प पढ़ लो हे समय अधीरता छोड़ दो मेरी दृष्टि का भविष्य तुम गढ़ लो।

हम लाचार साबित हो जाएंगे

एक बार अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ था। इसके बाद पिछले दस सालों में एक बार भी वहां कोई हमला नहीं हुआ जबकि अमेरिका खुले आम आतंकियों के खिलाफ जंग लड़ रहा है। ब्रिटेन में भी एक बार कई साल पहले हमला हुआ था। वहां भी इसके बाद आतंकी हमले की कोई घटना नहीं सुनाई दी। भारत में महज तीन महीनों के भीतर एक ही स्थान पर आतंकी दो बार हमला कर चुके हैं। वह भी देश की राजधानी दिल्ली में। पहले आतंकी हमले का नमूना पेश करते हैं और उसके बाद हमला करते हैं। साफ है कि हमने साबित कर दिया है कि हम आतंकियों के सामने लाचार हैं। संकीर्ण सोच वाली राजनीति हमें एक ऐसे देश का दर्जा दिला रही है जहां आम नागरिक स्वयं को सुरक्षित नहीं महसूस करता है। पूरा विश्व समुदाय अब यह मान चुका है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत का दावा पिलपिला है। आतंक पर लगाम लगाने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।  देश की सरकार के पास ऐसे कई मंत्री हैं जो किसी भी आतंकवादी हमले के बाद राजनीतिक चाशनी में डुबोया हुआ बयान दे सकते हैं। इनका पूरा फायदा भी उठाया जाता है। नेताओं के बयान आते हैं और घटना स्थल पर उनके दौरे होते हैं लेकिन इन सबके बीच आम नागरिक

अफ़सोस हम लाचार हैं, हम भारतीय जो हैं

आतंकवाद के खिलाफ भारत की जंग अब दिशाहीन हो चली है। पाकिस्तान को हर बार दोषी ठहरा कर अपनी गरदन बचा लेने का नतीजा है कि देश के अलग अलग हिस्सों में पिछले 10 सालों में तीन दर्जन से अधिक आतंकवादी हमले हुए हैं और इनमें 1000 से अधिक लोगों की मौत हुईं हैं। देश का कोई कोना ऐसा नहीं बचा है जहां आतंकवादियों ने अपनी दहशत न फैलायी हो। दिल्ली से लेकर बंगलुरू तक, आसाम से लेकर अहमदाबाद तक दहशतगर्दों ने आतंक फैला रखा है। इन आतंकियों के आगे देश का नागरिक लाचार है। वह जानता है कि उसकी जान खतरे में है।  सुरक्षा एजेंसियों की एक बड़ी फौज है देश के पास लेकिन इनका काम त्यौहारों पर एलर्ट जारी करने से अधिक कुछ भी नहीं रह गया है। यह बात सुनने में अच्छी भले ही न लगे लेकिन देश की आतंरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी जिन एजेंसियों पर है वो आम नागरिकों का विश्वास खो चुकी हैं। धमाके दर धमाके होते रहते हैं और सुरक्षा एजेंसियों को भनक तब तक नहीं लगती जब तक किसी न्यूज चैनल पर विस्फोट की खबर न चलने लगे। सवाल पैदा होता है कि क्या भ्रष्टाचार का घुन इन एजेंसियों को भी लग चुका है। क्या इन एजेंसियों के अफसरों ने मान लिया

रोजाना बुनता हूँ एक ख़्वाब नया

रोजाना बुनता हूँ एक ख़्वाब नया  रख देता हूँ उसे  तुम्हारी आँखों में तुम सो जाते हो देखता हूँ तुम्हे  या शायद अपने ख्वाबों को  आँखे खोलती हो तुम  अंगडाई लेते हुए फिर मुस्कुराती हो  नज़र भर के देखती हो मुझे सिर हिला देती हो हौले से  मानो कुछ पूछ रही हो  मैं क्या जवाब दूं बस मुस्कुरा भर देता हूँ एक ख़्वाब पूरा हो गया.