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बहुत कुछ बदल गया इस बीच...

कई दिनों बाद ब्लॉग पर कुछ पोस्ट करने का मौका मिला. जीवन में ऐसी व्यस्तता हो गयी कि बहुत कुछ लिख नहीं पाया. जो कुछ लिखा वो महज एक नाम था. जीवन में बहुत कुछ बदला इस बीच. सामाजिक रूप से इस बदलाव को मेरे साथ मेरा पूरा समाज महसूस कर सकता. मुझे पता है कि आजकल समाज और सामाजिक होने का पहला सबूत यह है कि आपका फेसबुक प्रोफाइल होना चाहिए. वैसे इस लिहाज से मैं बेहद सामाजिक हूँ और मेरी फेसबुक प्रोफाइल भी है. इतने दिनों में मेरे साथ एक बड़ा बदलाव यह हुआ कि मेरी फेसबुक प्रोफाइल पर मेरा मैरिज स्टेटस बदल गया. पहले मैं 'अनमैरिड' था और अब 'मैरिड' हो गया हूँ. कहने को शब्दों का बहुत बदलाव नहीं है लेकिन ज़िन्दगी का बदलाव बहुत बड़ा है. आप के साथ आपका ऐसा बंटवारा जो आपको अच्छा लगे. ऐसा कम ही होता है. कोई वजह मिल जाना किसी भी काम के लिए अच्छा  होता है. नया साल भी मना लिया और अब होली भी बीत गयी. दो जून की रोटी के लिए जिन संस्थानों के साथ जुड़ता हूँ उनके नाम भी इस बीच बदल गए. शहर भी बदल गया. पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हो चुके और सरकारें भी बदल गयीं. उम्मीद और विश्वास के साथ एक अनचाहा डर भ

संपादक केबिन से बाहर बैठें तो !

मुझे नहीं पता कि संपादकों के केबिन में बैठने की परंपरा कब शुरू हुई लेकिन अगर यह परंपरा खत्म हो जाए तो अच्छा। केबिन में संपादक क्यों बैठते हैं इस बारे में अगर गंभीरता से सोचा जाए तो पत्रकारिता में कारपोरेट कल्चर और मीडिया संस्थानों के प्रबंधन का आपसी गठजोड़ सामने आयेगा। इसी का परिणाम पेड न्यूज हैं।  सिद्धांतों की पत्रकारिता में संपादक एक पद मात्र है। इस पद पर बैठा व्यक्ति खबरों और आम जनता के बीच एक सूत्र होता है। इसकी जिम्मेदारी खबरों की विश्वसनीयता बनाए रखने और समाज के प्रति होती है। जनहित के मुद्दों को प्रमुखता से प्रस्तुत करना इनका परम धर्म है। लेकिन वक्त बदलने के साथ संपादक की भूमिका बदल गई।  खबरों पर जब विज्ञापनदाता हावी होने लगे और पत्रकारिता का बीड़ा औद्योगिक समूहों ने उठा लिया तो संपादक की भूमिका गौड़ हो गई। प्रबंधन ऐसे पत्रकार की तलाश करने लगा जो मैनेजर की भूमिका भी बखूबी निभा सके। जिन पत्रकारों में मैनेजमेंट का गुण था उन्हें प्रबंधन ने संपादक की कुर्सी दे दी। अगर उस संपादक में पत्रकारिता का गुण कुछ कम भी हुआ तो चलेगा। यहां से खबरें मैनेज होने लगीं। खबरों का जन संदर्भ विज्ञापन

Some rare photos of Dev anand

Dev anand sahab with Sadhna in '' ASLI NAQLI'' Dev Anand sahab in a pensive mood during the filming of '' MAIN SOLAH BARAS KI'' in Scotland  Mr. Dev anand with his leading lady Sabrina ( who he introduced ) in '' MAIN SOLAH BARAS KI'' in Jaipur.  Dev sahab with SD Burman, Kishor kumar, Lata ji, poet Neeraj and RD Burman during the recording of ''PREM PUJARI''.  Dev sahab with Zeenat Aman in '' ISHK ISHK ISHK'' against the background of  Mt. Everst in 1976.  Dev sahab with Madhubala in '' KALA PANI''.  Dev sahab with Kalpana Kartik in ''HOUSE NO 44" Dev sahab with Geeta Bali in '' BAAZI'' Dev sahab in '' HUM DONO'' Dev sahab with Mumtaaz in '' HARE RAMA HARE KRISHNA''.  Dev sahab with Tina Munim ( who he introduced) in '' DES PARDES'' Dev sahab with Waheeda Rahman in ''GUIDE''

देव साहब की यादों को संजोते हुए

देव आनंद साहब के ऊपर फिल्माए गीतों को गुनगुनाकर एक अजीब सी ख़ुशी मिलती है. लगता है मानो जीवन का नया राग मिल गया. यूं दो देव साहब के ऊपर फिल्माया हर गाना अपने आप में ख़ास है लेकिन यहाँ कुछ चुनिन्दा गानों को आपके साथ बाँट रहा हूँ. उम्मीद है आप भी गुनगुनायेंगे.... देव साहब और नूतन पर फिल्माया गया यह गीत है फिल्म पेईंग गेस्ट का. 1957 में आई इस फिल्म को लिखा था नासीर हुसैन ने. एसडी बर्मन का संगीत था.  यह गीत उनकी फिल्म 'हमदोनों' का है. 1961 में आई नवकेतन के बैनर तले यह फिल्म देव साहब ने ही बनाई थी. इसमें देव साहब का डबलरोल था. नायिकाएं थी साधना और नंदा. जयदेव का संगीत था. यह गीत देव साहब की फिल्म 'गाईड' का है. 1965  में आई इस फिल्म का निर्माण भी नवकेतन के बैनर तले देव साहब ने ही किया था. आरके लक्ष्मण के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में वहीदा रहमान नायिका थी. भारतीय फिल्म जगत में यह फिल्म एक मील का पत्थर है.   इस गीत को लिया गया है देव साहब की फिल्म   'जाली नोट' से. 1960 में बनी इस फिल्म के निर्देशक थे शक्ति सामंत. मधुबाला नायिका थीं. देव साहब ने इसमें एक की सीआईड

ओह देवसाहब! आप लौट आइये।

जीवन का सबसे बड़ा सच यही है कि मौत शाश्वत है। हम हमेशा इस सच से भागने की कोशिश भी करते हैं लेकिन कभी भाग नहीं पाते हैं। हिंदी फिल्मों के सदाबहार नायक देवआनंद साहब भी अब हमारे बीच नहीं हैं। दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई। यह वही दिल है जिसने उन्हें 88 साल की उम्र में भी जवां बना कर रखा था। आखिरकार उसी दिल ने उन्हें हमसे छीन लिया।  देवआनंद साहब अपने आप में एक किवदंती बन चुके थे। जिस उम्र में आम लोग भगवान के भजन में लग जाते हैं उस उम्र में नई फिल्मों की तैयारी में लगे थे। जिस जीवटता की बात हम किताबों में पढ़ा करते हैं उसकी मिसाल थे देवसाहब। मेरे जैसे  करोड़ों  लोग हैं जो कभी देवसाहब से नहीं मिले लेकिन उनकी फिल्मों ने ऐसा खिंचाव था कि सभी अपने को देवसाहब के साथ जोड़ लेते थे।  छह दशक तक हिंदी फिल्म जगत में अपनी अलग पहचान रखने वाले देवसाहब ने कई फिल्मों में काम किया। उन्होंने कभी भी फिल्मों के सेल्समैन के रूप में नायक का रोल नहीं अदा किया। उन्हें कभी इस बात की चिंता नहीं रही कि उनकी फिल्म बाक्स ऑफिस पर चलेगी या पिट जायेगी। यही वजह थी कि उन्होंने 'गाइड' फिल्म बनाई। आरके लक

टच वुड

धीरे धीरे अब मौसम सर्द होने लगा है  कमरे में आने वाली धूप अब अलसा गयी है  गहरे रंग के कपड़ों से आलमारी भर गयी है  ऊनी कपड़ों से आती नेफ्थलीन की महक तैर रही है  कमरे में  सुबह देर तक तुम्हारे आलिंगन में  बिस्तर पर पड़ा हूँ  ना तुम उठना चाहती हो  ना मैं  देखो हम साथ खुश हैं  तुम हर बार की तरह कहती हो टच वुड  मैं भी कहता हूँ  टच वुड  तुम्हारे साथ घर तक का सफ़र हमेशा लम्बा लगता है  हाँ, जब इसी रास्ते से  स्टेशन जाता हूँ तो राह छोटी हो जाती  मैं देर तक तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ  हम हमेशा साथ रहेंगे  तुम फिर कहती हो  टच वुड  मैं भी तुम्हारे साथ कहता हूँ  टच वुड  एक रिश्ते का ऐसा उत्सव  विकल्पहीन है यह सौंदर्य  तुम्हारी पतली ऊंगलियों के बीच में  अपनी ऊंगलियों को डाल कर  कितना कुछ पा जाता हूँ मैं  तुम्हारे चेहरे पर तैरती हंसी भी  बहुत अच्छी लगती है  इस बार मैं पहले कहूँगा  टच वुड  बोलो  अब तुम भी बोलो ना  टच वुड 

माँ अब व्यस्त है

दो-चार दिनों पहले धूप सर्द सी लगी थी पड़ोस की एक महिला ने भी बताया था कि सर्दी आ गयी है  माँ अब व्यस्त है  बक्से में रखे  कम्बल, स्वेटर और मफलर निकालने में  वो इसे धूप में रखेगी  कई बार उलटेगी पलटेगी  भागती धूप के साथ  चटाई भी बिछाएगी  वो जानती है बच्चों को नेफ्थलीन की महक पसंद नहीं  वो पूरी तरह से इत्मीनान कर लेना चाहती है  बच्चों को खुश रखने का  कई बार बोल बोल कर आखिरकार वह पहना ही देगी  बच्चों को स्वेटर  इस बार अपनी पुरानी शाल में  अपना पुराना कार्डिगन पहने  वो सोचती रहेगी  बच्चों के लिए  एक नया स्वेटर लेने के लिए. 

हंगामा है क्यों बरपा

प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के चेयरमैन मार्कण्डेय काटजू का भारतीय मीडिया के संबंध में दिया गया बयान आजकल चर्चा में है। हैरानी इस बात की है कि जो लोग काटूज के न्यायाधीश के रूप में दिये गये फैसलों पर खुशी जताते थे आज उन्हीं में से कई लोग काटजू को गलत ठहरा रहे हैं। शायद सिर्फ इसलिये कि इस बार मार्कण्डेय काटजू ने उन्हीं लोगों को आईना देखने की नसीहत दे दी है। मुझे नहीं लगता है कि आईना देखने में कोई हर्ज है। आज भी प्रबल धारणा यही है कि आईना सच ही बताता है। ऐसे में भारतीय मीडिया इस अग्निपरीक्षा को स्वयं स्वीकार करे तो अच्छा होगा।   भारत के लोकतंत्र की नींव में घुन तो बहुत पहले ही लग था लेकिन बात तब और बिगड़ी जब लोकतंत्र के चैथे स्तंभ पर काई लग गई। खबरों का आम जनता के प्रति कोई सरोकार नहीं रहा। खबरों के लिहाज से देश कई वर्गों में बंट गया। खबरों का भी प्रोफाइल होने लगा। किसी ग्रामीण महिला के साथ बलात्कार कोई मायने नहीं रखता बजाए इसके कि किसी नामचीन व्यक्ति ने तेज गति से गाड़ी चलाई हो। मानवीय दृष्टि से महिला के साथ बलात्कार की घटना अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन प्रोफाइल के नजरिये से नामचीन व्यक्ति का त

कश्मीर को ज्यादा ज़रुरत है अन्ना की

पिछले दिनों कश्मीर के मुद्दे पर प्रशांत भूषण के बयान से अन्ना का किनारा कसना इस बात की ताकीद करता है कि अन्ना हजारे कश्मीर के बारे में उसी तरह से सोचते हैं जिस तरह से सरहद पर अपने मुल्क की सलामती के लिए खड़ा एक सिपाही सोचता है। यही वजह रही होगी कि प्रशांत भूषण पर हमले के कुछ देर बाद जब पत्रकारों ने अन्ना से इस संबंध में प्रतिक्रिया लेनी चाही तो वह चुप लगा गये। साफ है कि आदर्श बुद्धिजीविता का वह स्तर जहां कश्मीर को भारत से अलग कर देने की सलाह दी जाती है अन्ना वहां नहीं पहुंचे हैं। अन्ना हजारे अब भी एक सैनिक की तरह सोचते हैं जो कश्मीर को कभी इस देश से अलग रख कर नहीं सोच सकता। अन्ना हजारे का मौन व्रत भी इस बारे में उठने वाले सवालों से बच निकलने का एक जरिया हो सकता है। अन्ना हजारे देश से भ्रष्टाचार खत्म करने की कोशिश में लगे हुये हैं और उनका एक सहयोगी भ्रष्टाचार से परेशान प्रदेशों को ही खत्म कर देना चाहता है। कश्मीर समस्या से जुड़े कई पहलुओं में एक भ्रष्टाचार का पहलू भी है। केंद्र सरकार ने अपनी प्राथमिकता की सूची में कश्मीर को सबसे उपर रखा है। देश के वार्षिक बजट का एक बड़ा हिस्सा कश्म

तन का बढ़ना ठीक, मन का बढ़ना नही

दिल्ली में प्रशांत भूषण पर हुआ हमला निंदनीय है इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन हमले के पीछे की वजहों को भी तलाशना बेहद जरूरी है। आखिर क्या वजह रही होगी कि इंदर वर्मा को ऐसा दुःसाहस करना पड़ा। क्या टीम अन्ना को लगने लगा है कि अब वो जो चाहेगी वो करवा सकती है ? क्या टीम आत्ममुग्धता की स्थिती में आ चुकी है ?   कोर्ट में किसी वकील को उसी के चैंबर में घुस का मारना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन इंदर वर्मा और उसके साथियों की नाराजगी इस कदर रही होगी कि उन्हें इस बात का भी डर नहीं रहा कि प्रशांत भूषण पर हमला करने के बाद उनके साथ क्या होगा। साफ है कि टीम अन्ना के व्यवहार से देश का एक वर्ग दुखी है। उसे लगने लगा है कि टीम अन्ना का मन बढ़ गया है। हालांकि टीम अन्ना ने हमेशा से इस बात का हवाला दिया है पूरा देश उनके साथ खड़ा है। अगर ऐसा है तो इंदर कहां रह गया था। इंदर इस देश में नया तो नहीं आया है। इंदर का गुस्सा शब्दों में बयां नहीं हो सकता था। ऐसा इंदर को लगा होगा। तभी तो उसने यह रास्ता चुना। अन्ना और उनकी टीम देश में व्याप्त प्रशासनिक भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहती है। देश के लोग भी यही चाहते हैं