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जब नगरिया हो अंधेरी तो राजा हुआ न चौपट

अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने काफी वक्त बीत चुका है। इस दौरान अखिलेश यादव दो बार बजट भी पेश कर चुके हैं। अखिलेश यादव जब देश के सबसे बड़े राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने तो उनके समर्थकों के साथ ही उनसे पार्टीगत तौर पर अलग लोगों में भी एक मौन खुशी देखी गई। अखिलेश के सत्ता संभालते ही लगा कि अब जल्द ही यूपी का काया कल्प हो जाएगा। ले किन हुआ ठीक उलट। मायावती के राज से पीछा छूटने के बाद अखिलेश का राज आया तो कहावत याद आई कि आसमान से गिरे खजूर में अटके। दरअसल अखिलेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री जरूर हैं लेकिन शासन किसी और का है। ये बात छुपाने की कोशिश जरूर होती रहें लेकिन अब लोग समझ चुके हैं कि अप्रत्यक्ष तौर पर शासन अखिलेश के पिता और राजनीतिक गुरू मुलायम सिंह यादव ही चला रहे हैं। इसमें आप कुछ और नाम भी जोड़ सकते हैं। आजम खां, शिवपाल यादव, नरेश अग्रवाल वगैरह वगैरह। यहां पर सपा और कांग्रेस का एक भेद भी सामने आता है। हालांकि दोनों ही पार्टियों ने युवा चेहरे को आगे रखकर चुनाव लड़ा लेकिन अगर कांग्रेस जीत जाती और राहुल सीएम बनते तो सोनिया का इतना हस्तक्षेप शायद नहीं होता। खैर, बा

किस आदमी की बात कर रहें हैं अरविंद ?

नई दिल्ली में बिजली बिलों के मुद्दे पर अनशन पर बैठे अरविंद केजरीवाल आखिर किसी आदमी की बात कर रहे हैं ये एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। यकीनन इस देश की राजनीति आजादी के साठ दशक बाद भी बिजली, सड़क और पानी के इर्द गिर्द ही घूम रही है। राजनीतिज्ञों ने इस देश के हर इलाके तक बिजली, सड़क और पानी को न जाने पहुंचाने की मशक्कत की या फिर न पहुंचाने की इसका फर्क भी अब मुश्किल हो गया है। फिलहाल इस बहस से आगे निकल कर राजनीति में आने की जद्दोजहद में लगे अरविंद केजरीवाल की।  अरविंद केजरीवाल और आवाम से जुड़ने की उनकी कोशिश पर चर्चा करने से पहले हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि अरविंद दुनिया के सबसे  बड़े   लोकतंत्र के राजनीतिक परिदृश्य में आना कैसे चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल असंतोष और मूक बना दिए जाने का दंश झेल रही जनता के लिए बहुत हद तक एक क्रान्तिकारी के रूप में आए। तब उनके साथ अन्ना हजारे थे। ये वही अरविंद हैं जो पहले राजनीति में आने से इंकार करते रहे और इसके बाद आ भी गए। हालांकि इस दौरान उन्हें अन्ना का साथ छोड़ना पड़ा। यहां एक सवाल पैदा होता है कि क्या अरविंद हर हाल में राजनीति में आना ही चाहते

एक बार याद उन्हें भी कर लिया होता।

जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर में जितनी बार नाम राहुल गांधी का लिया गया अगर उसका एक फीसदी हेमराज और सुधाकर को याद किया होता तो शायद हमें गर्व होता कि हमारे देश पर कांग्रेस ने कई साल तक राज किया है। हैरानी होती है कि कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के नेताओं ने विदेश और रक्षा नीति पर एक भी नोट जारी नहीं किया। जबकि मुल्क का एक बड़ा तबका ये उम्मीद लगाए बैठा था कि कांग्रेस सबसे पहले सुधाकर और हेमराज के मुद्दे पर अपना बयान जारी करेगी।  आखिर सुधाकर और हेमराज को याद न करने की मजबूरी कांग्रेस के लिए क्या हो सकती है। ये तो कांग्रेस के नेता ही जाने लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस के इस रवैए से शहीदों के प्रति उसके चरित्र का पता चल गया है। कांग्रेस से उम्मीद थी कि कम से कम राहुल बाबा के ही जरिए कांग्रेस इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करेगी। लेकिन कांग्रेस चुप रही।  मुझे लगता है कि कांग्रेस के पास कहने के लिए बहुत कुछ था भी नहीं। कांग्रेस और कांग्रेसी दोनों ही महज इस बात के चिंतन में लगे रहे कि राहुल को कैसे आगे लाया जाए। कांग्रेस इस देश की ही दुनिया की एक बड़ा राजनीतिक पार्टी है। इसम

बोलिए बाबा राहुल की जय

राजस्थान में कांग्रेस का चिंतन शिविर चल रहा है। कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता इन दिनों एक साथ चिंतन शिविर के ही बहाने सही एक जगह बैठ तो गए ही हैं। लोग बाग न जाने इन नेताओं को क्या क्या कह रहे हैं। चोर, उच्चके, चापलूस, वादाखिलाफ और न जाने क्या क्या। लेकिन मैं इन संबोधनों से जरा सा भी इत्तफाक नहीं रखता। हुजूर आप भी नहीं रखते होंगे। क्योंकि इन नेताओं को तो शायद इससे भी कोई बड़ा संबोधन मिलना चाहिए। खैर छोडि़ए हम इस चिंतन में न पड़े तो ही अच्छा।  कांग्रेस को अपने इस चिंतन शिविर का नाम शायद कुछ और रखना चाहिए था। शायद 'राहुल शिविर', 'मीट विथ राहुल बाबा', 'हाउ टू मेक राहुल बाबा अ पालिटीशियन' या कुछ ऐसा ही। ताकि इस देश के लोगों को पता तो चल जाता कि कांग्रेस का मतलब अब सिर्फ राहुल गांधी ही रहा गया है। इससे आगे और पीछे कुछ नहीं। चिंतन शिविर में कांग्रेस के नेता कहां तक तो दुनिया की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को और मजबूत बनाने की कोशिश करते तो वो महज गणेश परिक्रमा में ही लगे हुए हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में किसी राजनीतिक पार्टी की क्या जवाबदेही हो सकती है इसके ब

हिना रब्बानी खार, खैरियत मनाओ कि हिंदुस्तान में गांधी पैदा हुआ था

शक्ल खूबसूरत, सीरत बदसूरत मैडम हिना रब्बानी खार कह रही हैं कि भारत युद्ध पर आमादा है। बड़ा हैरतअंगेज और हास्यास्पद बयान ये है। मैडम साहिबा को विदेश मामलों का कितना ज्ञान है ये तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर है कि मैडम को अपना लुक बनाए रखने का पूरा ध्यान रहता है। 1977 में जब मैडम हिना का जन्म हुआ उसके बाद उन्होंने आज तक उन्होंने कोई वास्तविक जंग देखी भी नहीं। हां, ये जरूर है कि कारगिल की जंग उन्होंने जरूर देखी होगी। हालांकि उस वक्त मैडम हिना महज 22 साल की ही रहीं होंगी। और उन्हें जंग की कितनी समझ रही होगी ये आप और हम समझ सकते हैं। मैडम की कुल जमा उमर अब भी 36 ही है। अब 36 की उमर में वो न तो 47 की समझ सकती हैं, न 65 को समझ सकती हैं, न 71 को। मैडम हिना ने मैसाच्युट्स यूनिवर्सिटी से व्यापार प्रबंधन में एमएससी की डिग्री ली है। मैडम पहले पाकिस्तान में वाणिज्य मंत्रालय संभाला करती थीं। कुछ दिनों से भारत के साथ रिश्ते सुधारने में लगा दी गईं हैं।  यहां भारतीयों का सौंदर्य प्रशंसक होना भी मैडम के ऐसे बयानों की वजह है। मैडम जब भारत आईं तो भारतीय मीडिया ने उनकी जो ग्लैमरस छवि पेश की, कि बस पूछि

दिन गलती गिनाने के नहीं पीएम साहब सबक सिखाने के हैं

ठीक ठाक से चुप रहने वाले जब पीएम मनमोहन सिंह जी ने पाकिस्तान की तरफ से  हो रही बर्बरता पर मुंह खोला तो लगा कि पीएम साहब का बयान पाकिस्तानी  राजदूत को सामने बैठाकर टाइप कराया गया है। बयान तैयार कराते वक्त एक एक  लाइन के बाद पाकिस्तानी राजदूत से पूछा गया होगा कि ठीक है न भाई साहब  कोई गलती तो नहीं है। कहीं कुछ अधिक तो नहीं हो रहा। फिर पाकिस्तान के  राजदूत ने कहा होगा कि आप ऐसा कैसे कह सकते हैं कि हमने गलती की।  पाकिस्तानी राजदूत ने कहा होगा कि आप लिखिए कि आप अपनी गलती को मानिए।  इसके बाद पाकिस्तान कहेगा कि हमने कोई गलती की ही नहीं तो मानने का तो  सवाल ही नहीं उठता। बस हो गया काम। न भारत के पीएम को चुप रहने पर ताना  सुनना होगा और न ही पाकिस्तान को गलती मानने की जरूरत होगी। शायद पड़ोसी  के साथ रिश्ते सुधारने का इससे बेहतर तरीका हो भी नहीं सकता।  यूं भी इस मुल्क का मुस्तकबिल कुछ ऐसा ही रहा है। हम कहने को शेर हैं  लेकिन गीदड़ों की धमकियों से मांद में छुप जाते हैं। इसके बाद शांती पसंद  होने का हवाला देकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश करते हैं। हमारे दो जवान  शहीद हुए। एक जवान का सिर दुश्मन मुल्

माफ करना हेमराज इस देश के लोग तुम्हारे लिए इंडिया गेट पर नहीं आ सकते।

यकीनन ये सोच कर दुख होता है लेकिन ये सोचना तो पड़ेगा ही। एक छोटा सा सवाल है कि क्या इस देश की सरहद को सलामत रखने वालों का सिर हमारे लिए अहमियत नहीं रखता ? क्या हमारे जवान का सिर इस लायक भी नहीं कि उसके लिए इंडिया गेट पर नहीं उतर सकते ?  हमारे देश में भ्रष्टाचार है इसमें कोई दो राय नहीं है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी इससे प्रभावित होती है इसमें भी कोई दो राय नहीं है। हमारा गणतंत्र, भ्रष्टतंत्र में बदल चुका है लिहाजा हमारी नाराजगी जायज है। इस भ्रष्टाचार की ही देन है कि हमें अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव के दर्शन हुए। इस देश में लाखों लोगों ने भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए देश के अलग अलग हिस्सों में कभी धरना दिया तो कभी प्रदर्शन किया। हमारा हासिल हमें अभी पता नहीं। फिलहाल हम खुश हैं कि हमने आवाज तो उठाई।  दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप हुआ तो देश उबल पड़ा। युवाओं की बड़ी संख्या देश के अलग अलग हिस्सों से इंडिया गेट पर आई और आवाज उठाई। पत्थरों से घिरे लोकतंत्र पर ऐसी चोट लोक की हुई कि पूरा तंत्र हिल गया। देश में एक नई बहस शुरू हो गई।  लेकिन इस सबके बाद ये सवाल भी आ गया कि आख

चुनौतियों भरा एक साल

संभव है कि कोई ये सोचे कि इस आत्मविवेचना को सफलता भरा एक साल नाम देना कहीं अधिक  उचित था। लेकिन मुझे लगता है कि सफलता से कहीं अधिक हमारे लिए चुनौतियां थीं और हैं। एक ऐसा राज्य जो 12 साल का हो चुका है वहां पत्रकारिता के लिहाज से अभी बहुत कुछ बचा हुआ है। विशेष तौर पर टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में। हम एक ऐसी टीम का हिस्सा बने जो उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बैठकर पूरे देश की खबरों पर नजर रख रही थी। आम तौर पर टीवी पत्रकारिता का केंद्र नोएडा और दिल्ली है। जाहिर सी बात है कि देहरादून से क्षेत्रीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर पैनी नजर रखना एक मुश्किल काम था। लेकिन टीम ने वो सब कुछ किया। शुरुआत में ही हमने अपने लिए खुद के लिए प्रतिमान स्थापित कर लिए। तसल्ली रही कि हमने उन प्रतिमानों को बहुत हद तक छू भी लिया। आत्म विवेचना को अगर कुछ बिंदुओं पर केंद्रित करें तो शायद वो बिंदु होंगे चुनौतियां , संभावनाएं , प्रयोग और जनपक्ष। आमतौर पर जब आप एक नई शुरुआत करते हैं तो आपके सामने कई मुश्किलें होती हैं। इसके साथ ही आपके पास हारने के लिए कुछ होता भी नहीं है। आप खुल

संतोष कभी मरते नहीं...

बस 2012 के फरवरी महीने के शुरुआती दिनों में ही मुलाकात हुई थी संतोष वर्मा से। हालांकि अब मेरी धर्मपत्नी बन चुकी अलका अवस्थी उनको पहले से जानती थीं। अलका ने संतोष वर्मा के साथ पत्रकारिता भी की। ठीक ठीक नहीं याद कि वो कौन सी तारीख थी लेकिन इतना याद है कि फरवरी का महीना था। संतोष वर्मा से बनारस से देहरादून पहुंचने के बाद मैं अपनी पत्नी के साथ पहली बार उनसे मिलने पहुंचा था। संतोष वर्मा और मुझमें उम्र का बड़ा फासला था लेकिन संतोष वर्मा ने जिस गर्मजोशी से मुझे गले से लगाया वह अविस्मरणीय है। मैं चूंकि उनसे पहली बार मिल रहा था लिहाजा संकोच और औपचारिकता के चलते मैं सिर्फ हाथ मिला कर रह जाना चाहता था लेकिन संतोष जी ने हाथ मिलाने के बाद मुझसे कहा - ' नहीं  ऐसे नहीं।' इसके बाद संतोष जी ने मुझे गले से लगा लिया। आप जिससे पहली बार मिल रहे हों वो आपको यूं अपनाए ये कम होता है। हम मैंए मेरी पत्नी अलका और संतोष जी सर्द रात में देहरादून की उस सड़क पर थोड़ी देर तक बात करते रहे। चूंकि रात हो रही थी लिहाजा हम जल्द ही घर की और निकल गए। इसके बाद संतोष जी से अक्सर मुलाकात होती रही। संतोष जी भावुक थे औ

सुनो प्रदीप, अब तुम मार्क्स की सोच नहीं, पूंजीवाद के वाहक हो

ये शीर्षक न सिर्फ एक प्रदीप के लिए है बल्कि उन जैसे और मुझ जैसे तमाम प्रदीपों के लिए हैं जो ये सोचते हैं कि पत्रकार बन कर समाज को एक नई दिशा देंगे। अपनी बात लेकर आगे बढ़ूं इससे पहले आपको बता दूं कि आखिर ये प्रदीप हैं कौन। सामान्य कद, गोरा रंग, गोल चेहरा, गालों पर चिपकी ढाढ़ी, सदरी और जींस। इसके साथ ही आजकल मोटे फ्रेम का चश्मा आंखों पर है। ये हुलिया हम तमाम पत्रकारों को अपना सा लगता है। शायद हम ऐसा ही होना चाहते हैं। मन की बेचैनी आंखों के साथ साथ हाव भाव में भी झलक ही जाती है। दरअसल प्रदीप एक पत्रकार बनने की कोशिश में लगे हैं। प्रदीप को उनके सहयोगी कामरेड कहते हैं। प्रदीप को इस लेखन का आधार बनाने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं। प्रदीप युवा हैं, बेचैन हैं, जागरुक हैं। जैसे हम कभी हुआ करते थे। आठ साल के सफर में कई विशेषताएं दब सी गईं हैं। प्रदीप फिलहाल एक अखबार के नए संस्करण के साथ आगे बढ़ रहे हैं। जैसे कभी हम बढ़े थे। पत्रकारिता को मिशन मान कर प्रोफेशन के तौर पर अपनाया और फिर देखा कि अब सब कुछ कमीशन बेसिस पर हो गया है। हम जिस अखबार के साथ बढ़े, वो अखबार आगे बढ़ गया है और हम पीछे रह गए। प