सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा, मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा

Kejriwal knew 15 days back abt the scandal bt only took action whn d CD reached LG & news agencies #AAPMantriScandal pic.twitter.com/XhOgzYEfsX — Sabyasachi Banerjee (@MrAmbiDexter) September 1, 2016 आम आदमी पार्टी के मंत्री संदीप कुमार को लेकर पार्टी के भीतर कुछ ऐसी चर्चाएं चल रहीं हों तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुमार विश्वास की कविताओं में यकीन रखने वाली पार्टी के नेताओं से यही उम्मीद की जा सकती है। आम आदमी पार्टी के शैशवकाल में ही उसके जन्मदाताओं ने पार्टी की ऐसी की तैसी कर ऱखी है और इसके बाद सुनने सुनाने के लिए पहले से ही कविता तैयार रखी है। संदीप कुमार, सोमनाथ भारती, जितेंद्र तोमर जैसे नाम न सिर्फ आम आदमी पार्टी के लिए कलंक बन गए हैं बल्कि उस पूरे मिडिल क्लास को तकलीफ दे रहें हैं जो अन्ना के आंदोलन से उम्मीद बांधे हुए थे। अन्ना आंदोलन की बाईप्रोडक्ट आम आदमी पार्टी ने देश के नब्बे फीसदी लोगों की उम्मीदों को यमुना के काले पानी में डुबा कर खत्म कर दिया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने जिस तरह से सुचिता और पारदर्शिता के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई थी उन स

बाप के कांधे पर बेटे की लाश और स्क्रैमजेट इंजन वाला प्रगतिशील भारत

सटीक तो नहीं पता है लेकिन शायद दुनिया में तीसरे या चौथे नंबर की अर्थवस्वस्था वाले देश का अर्धसत्य यही है कि यहां अस्पताल के बाहर बारह साल का एक बच्चा मर जाता है लेकिन उसे इलाज नहीं मिल पाता है। मुझे ये भी सटीक नहीं पता लेकिन शायद दुनिया में पांचवे या छठे नंबर पर अरबपतियों वाले देश में एक शख्स को अपनी पत्नी का शव अपने कांधे पर लादकर 13 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है और उसे एंबुलेंस नहीं मिल पाती। देश के स्क्रैमजेट   इंजन की तकनीक विकसित कर लेने का एक पहलु ये भी है कि ट्रेन एक्सीडेंट में मरी एक वृद्धा का शव पोस्टमार्टम हाउस तक पहुंचाने के लिए उसकी लाश की हड्डियों को पहले तोड़ा जाता है और फिर गठरी बना कर पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाता है। यकीनी तौर पर देश में ये मुद्दे बहस के लिए पसंद ही नहीं किए जाते। हमारी संवेदनाएं ऐसे मुद्दों पर तब तक नहीं जागती जब तक ऐसी कोई घटना न हो जाए और वो टीवी पर न दिए जाए। ये बात दीगर है कि हम ऐसी हर बहस के बीच में इस बात को स्वीकार करते हैं कि ऐसी न जाने कितनी घटनाएं होती हैं और हमें पता नहीं चलता। देश में स्वास्थ सेवाओं के हाल बेहद खराब ह

ट्विटर, बीएमडब्लू और आठ लाख की साड़ियों के बीच दाना मांझी कहां रहा

देश में बहस मुहाबिसों के दौर छोटे, संकीर्ण और संकुचित हो गए हैं। हमारी सोच एक दिन या फिर अधिकतम दो दिनों तक हमारे साथ ठहरती है। वो भी फेसबुक और ट्विटर के ट्रेंड को फालो करते हुए। कितनी हैरानी होती है कि हम दाना मांझी की दारुण कथा को देख-सुन कर दुखी तो होते हैं लेकिन चूंकि दाना मांझी ट्विटर पर ट्रेंड नहीं करता लिहाजा समाज में बहस का मुद्दा नहीं बन पाता। फेसबुक और गूगल में ट्रेंड नहीं करता लिहाजा धारा से अलग हो जाता है दाना मांझी, कालाहांडी और इस देश में गरीब होने के तमगे के साथ जी रहा इंसान। देश बीएमडब्लू का जश्न मना रहा है। आठ लाख की साड़ियां खरीदे जाने पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स चहक रहीं हैं। दाना सिसक रहा है। चौला अपनी मां की याद को अपने टूटे घर की टपकती छत से बचा कर सहेजना चाहती है। वो 12 साल की उम्र में 13 किलोमीटर का ऐसा रास्ता तय कर चुकी है जो उसे कभी पीवी सिंधू नहीं बनाएगा। वो कभी साक्षी मलिक नहीं बनेगी। हो सकता है वो कालाहांडी में सिसकती कौम का हिस्सा जरूर बन कर रह जाए।   आखिर हम उम्मीद भी क्यों करें। हमारे घरों में पिज्जा गरम पहुंच रहें हैं लिहाजा हमें दाना मांझ

...तो साक्षी का पदक सिंधु के पदक से कीमती है

भारत के लिए रियो ओलंपिक में चांदी का पदक लाने वाली पी वी सिंधु की सफलता के पीछे उनके समाज का भी योगदान माना जा सकता है। सिंधु देश के दक्षिण में बसे शहर हैदराबाद से आती हैं। देश का ये इलाका सेक्स रेशियो और चाइल्ड सेक्स रेशियो के लिहाज से देश के अन्य हिस्सों से कहीं बेहतर स्थिती में है। 2011 का सेंसस बताता है कि आंध्र प्रदेश देश में सेक्स रेशियो के क्रम में चौथे नंबर पर है। यहां प्रति 1000 पुरुषों की तुलना में 993 महिलाएं हैं। ये एक सुखद स्थिती कही जा साकती है यदि आप देश के अन्य राज्यों के हाल देखें।  इनमें से कई राज्य तो ऐसे हैं जिन्हें हम बेहद विकसित राज्य के तौर पर मानते हैं। मसलन आप पंजाब और हरियाणा का उदाहरण ले सकते हैं। पंजाब में सेक्स रेशियो 895 है। यानि प्रति 1000 पुरुषों पर महज 895 महिलाएं ही हैं। हालांकि कन्या भ्रूण हत्या को लेकर हरियाणा की चर्चा पहले भी कई बार हो चुकी है लेकिन फिर भी ये एक बार याद किया जा सकता है कि हरियाणा में 2011 के सेंसस के मुताबिक प्रति 1000 पुरुषों पर महज 879 महिलाएं हैं। ये बात और है कि हरियाणा की एक बहादुर लड़की भी रियो ओलंपिक से एक कांस्य पदक

जो सीखा सत्तर सालों में

पिछले कुछ सालों में देश के हालात तेजी से बदले हैं। कई ऐसी चीजें हुईं जो देश में पहली बार इतने बड़े आयाम पर नजर आ रही हैं। देश अब राष्ट्रभक्तों और कथित राष्ट्रभक्तों की श्रेणी में बंट चुका है। एक गाय को माता मानने वाला समाज है और एक बीफ वाला समाज है। मुल्क की आजादी के सत्तर सालों में हम अखलाक और आजाद की आजादी को अब अलग अलग नजरिए से देखने की स्थिती में आ चुके हैं। पिछले सत्तर सालों में हम इतना ही विकास कर पाए कि पंद्रह अगस्त को हम फ्रिज में रखे मटन और बीफ से लेकर गाय के रक्षकों और गाय के मांस के कारोबारियों के बारे में अपना मत बना पाएं। ये देश के शायद नब्बे के दशक में लौटने की शुरुआत है जब देश में सिर्फ और सिर्फ राम मंदिर की बातें हुआ करती थीं। या फिर हम नब्बे के दशक में लौटकर अस्सी के दशक में लौटना चाहते हैं जब हम प्रधानमंत्री की हत्या करने वाले शख्स की पूरी कौम को ही मारने दौड़ पड़े थे। शायद इतिहास के काल खंड में पीछे जाने की हमारी उत्तेजना हमें अस्सी के दशक से भी पीछे उन अमानवीय क्षणों में ले जाना चाहती है जब जमीन पर खिंची एक लकीर मानवीय इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन को देखकर समय स

मनमोहन ने केजरी दिया, मोदी, कन्हैया देंगे !

याद कीजिए वो दौर जब मनमोहन सिंह की सरकार पर लग रहे भ्रष्ट्राचार के आरोपों के बीच देश में एक पारदर्शी सरकार बनाने के लिए रालेगांव के अन्ना के नेतृत्व में जनसमूह उमड़ पड़ा था। भारत के लोकतंत्र ने विचारों का ऐसा प्रवाह पहली बार देखा था। पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि देश में सिर्फ भीड़ नहीं रहती। सैंतालिस का संग्राम से चूकी पीढ़ी को पहली बार ये एहसास हुआ कि इस देश में लोकतंत्र है तो क्यों है, क्यों हमें संविधान निर्माताओं ने ऐसा मंच दिया। इस देश की आजाद पीढ़ी ने पहली बार समझा कि लोकतंत्र में विचारों के सहारे, बहस के जरिए बेहतरी की राह निकाली जा सकती है...हालांकि ये सच है कि इस युवा पीढ़ी को ये राह दिखाने वाला एक बुजुर्ग ही था और सच ये भी है कि अन्ना के आंदोलन से जिस निहितार्थ की उम्मीद थी वो पूरी तो नहीं हुई लेकिन एक उम्मीद सी जरूर बंध गई....लगा कि अब इस देश में खुलकर भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आवाज उठाई जा सकती है.... लेखपाल, पटवारी, मुंशी, बाबू, दरोगा, सिपाही....हम कितने जकड़े थे.....हालांकि आज भी ये बेड़ियां टूटीं तो नहीं हैं लेकिन ढीली तो हुईं हैं...28 – 30 साल का युवा जिस घुटन को महसूस कर

केजरी बाबा का एसएमएस पैक खत्म हो गया क्या !

चु नाव से पहले हर बात के लिए जनता से एसएमएस मंगाने वाले स्वघोषित महापुरुष अरविंद केजरीवाल का एसएमएस पैक अब खत्म हो गया है। अब उनके पास जनता का एसएमएस पढ़ने का समय नहीं है। यही वजह है कि अब अरविंद केजरीवाल वैट प्रतिशत बढ़ाने से पहले जनता से राय शुमारी नहीं करते। यही वजह है कि अपने प्रचार पर 526 करोड़ रुपए खर्च करने से पहले वो जनता से नहीं पूछते। जाहिर है कि अरविंद केजरीवाल भी उसी रास्ते पर चल चुके हैं जिस पर देश के अन्य राजनीतिक दल चल रहे हैं। मुलभूत प्रश्न ये है कि क्या अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता के साथ विश्वासघात किया है या फिर दिल्ली की जनता का राजनीतिक प्रयोग अब धीरे धीरे गलत साबित होने लगा है। अरविंद केजरीवाल ने भारतीय जनमानस के उस साठ फीसदी हिस्से में उम्मीद की अलख जगाई जिसे हम युवा कहते हैं। हालांकि लोकतांत्रिक व्यवस्था की गहरी जानकारी रखने वालों को अरविंद केजरीवाल से कोई बड़ी उम्मीद पहले से ही नहीं थी लेकिन फिर भी अरविंद केजरीवाल को लोग एक बार देखना चाहते थे। अरविंद केजरीवाल की जनसभाओं में युवाओं ने बड़ी संख्या में शिरकत की। कइयों ने अपनी अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी

जनता करेगी फाइव फिंगर टेस्ट, तब देखेंगे केजरी बाबू...

मा निए या न मानिए लेकिन एहसास दिल्ली को हो रहा होगा कि अरंविद केजरीवाल को इतना बड़ा जनमत देना उनकी भूल थी। दिल्ली के विकास के लिए छटपटाने का दावा कर रहे अरविंद केजरीवाल का जितना ध्यान मनपसंद अफसरों की तैनाती करने, कांग्रेस की गलतियां गिनने और उपराज्यपाल से विवाद में है उसका आधा भी वो सही माएने में दिल्ली पर देते तो सूरत के बदल जाने का एहसास होने लगता। हैरानी होती है अरविंद केजरीवाल को देखकर। दिल्ली अपनी आने वाली पीढ़ियों को ये कैसे बता पाएगी कि उसके अरविंद केजरीवाल को चुनने की वजह क्या थी। सवाल ये भी उठेगा कि अरविंद केजरीवाल को बदलने से दिल्ली क्यों नहीं रोक पाई और इस प्रयोग से दिल्ली को मिला क्या। सरकार में आते ही अरविंद केजरीवाल की सरकार ने पूरा ध्यान कांग्रेस सरकार की गलतियों तलाशनें में लगा दिया। हालात ये हैं कि अभी तक दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल के दौरान होने वाले विकास कार्यों का खाका सार्वजनिक नहीं कर पाई है। अफसरों की तैनाती के विवाद इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल की सरकार का ध्यान अपने मुताबिक अफसरों की तैनाती पर अधिक है। ह

कहानी मैगी से आगे भी है, जो अनसुनी है

मै गी पर देश भर में बैन लग जाने के बाद ये लग रहा है मानों पूरे देश में खाद्य पदार्थ पूरी तरह से सुरक्षित हो गए हैं लेकिन सच इससे परे है। इस देश में एक संस्था काम करती है जिसका नाम है, भारतीय खाद्य सरंक्षा एवं मानक प्राधिकरण। अंग्रेजी में इसे ही फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड ऑफ इंडिया कहते हैं। संक्षेप में fssai । भारत सरकार के इस प्राधिकरण का काम देश भर में खाद्य पदार्थों के लिए मानक तय करना और ये सुनिश्चित करना है कि मानकों का पूरा अनुपालन हो। अब ये संस्था करती क्या है हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे बल्कि हम आपको ये बताना चाहते हैं कि ये संस्था जो कुछ भी करती है वो भी इस देश के काम नहीं आ रहा है। ऐसा नहीं है कि fssai ने देश में सिर्फ मैगी की ही जांच की है और उसे ही खाद्य मानकों के विपरीत पाया है। मैगी से अलावा भी इस देश में हजारों ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जो मानकों पर खरे नहीं पाए गए हैं लेकिन दुर्भाग्य से उनपर कभी चर्चा नहीं हुई। ऐसा क्यों हुआ इस पर चर्चा करना जरूरी है लेकिन उससे पहले आपको ये बताते हैं कि देश में मिलावट का जाल कितना बड़ा हो चुका है। fssai के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। आंकड़

गंगा के लिए अब कोई भगिरथ नहीं...

कै सी विडंबना है कि इस देश की जिस जलधारा में करोड़ों सनातनियों की सहर्ष आस्था हो....जिसकी एक बूंद पर लौकिक जगत के भंवर से पार अलौकिक आनंद का मार्ग प्रशस्त करती हो....उसी जलधारा को भौतिक जगत में पैसों के जरिए साफ करने की दो दशकीय व्यवस्था के असफल होने के बाद एक बार फिर वैसी ही कोशिशें हो रहीं हैं.... गंगा में प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने नमामि गंगे नाम से एक योजना शुरू की है...ऐसी कोशिशों की शुरुआत राजीव गांधी ने की थी और उसके बाद कई और प्रधानमंत्रियों ने इस कोशिश को कोशिश के तौर पर बरकरार रखा...भले ही आप जुमले के तौर पर ये मानते हों कि कोशिशें कभी बेकार नहीं जाती लेकिन यहां आपको कोशिशों के बेकार होने का पता चल जाता है....दरअसल 1984 में राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गंगा एक्शन प्लान शुरू तो किया लेकिन बेहद अनप्लैन्ड रूप में...राजीव गांधी से लगायत मनमोहन सिंह तक गंगा को साफ करने की कोशिश ही करते रह गए और गंगा हर आज में बीते कल से कहीं अधिक गंदी होती रही...गंगा एक्शन प्लान के चरण एक और दो खत्म हो गया...गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिय