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धूल चेहरे पर होती तो क्या करते?

देश के सबसे विशाल प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला के जूते पर धूल जमी थी। ये देख मैडम के साथ चल रहे एक अफसर से रहा नहीं गया। उसने तुरंत रुमाल निकाली और मैडम की जूतियों को साफ कर दिया। ये देख विपक्ष से रहा नहीं गया, लगे हल्ला मचाने। शाम तक सरकार ने एक बिल्कुल सोलिड कारण पेश कर दिया। बताया गया कि जूतियों पर जो धूल जमी थी उससे मैडम की सुरक्षा को खतरा था। लिहाजा सुरक्षा में लगे अफसरों का फर्ज बनता है कि धूल साफ करें। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मैं भी तो यही कह रहा हूं। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। अब भला देश के इतने बडे राज्य का कोई मुख्यमंत्री है। उसके जूते पर धूल लगी रहे और सुरक्षा में लगे अधिकारी देखते रहें। नहीं, बिलकुल नहीं। भले ही सूबे का मुखिया दलितों का सबसे बडा रहनुमां होने का दावा करता हो। सूबे में दलितों के कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं का जायजा लेने निकला हो। वो तो बस उड.न खटोले में बैठकर दूसरों पर धूल उड़ाता है। अपने जूते धूल में नहीं डालता। अगर गलती से जमीन पर पड.ी धूल ने उसकी जूती तक को छू लिया तो हमारे अफसर उसे कहीं का नहीं छोडगे। प्रदेश की धूल को समझ लेना चाहिए कि वो सिर्फ आम

न जाने वो क्या था.

न जाने वो क्या था. एक रेशमी एहसास था, एक ज़िम्मेदारी थी, एक ख़्वाब था, किसी कहानी कि शुरुआत थी, किसी दास्तान का आखिरी हिस्सा था, किसी बगीचे में खिले पहले गुलाब की महक थी, किसी पहाड़ से लिपटी कोई पवन थी, चांदनी रात में रात रानी का खिलना था, किसी लम्बी और सुनसान सड़क में किसी सड़क का आकर मिलना था, किसी रेगिस्तान में कोई घना पेड़ था, ठण्ड की सुबह में निकली सूरज की पहली किरण थी, दूर तक देख कर लौटी एक नज़र थी, ज़िन्दगी को हर हाल में जी लेने का हौसला था, हाथ कि हर लकीर से अपनी खुशी की इबारत लिखवा लेने का ज़ज्बा था, किसी अँधेरी रात को सुबह होने की उम्मीद थी, सागर में उड़ते किसी परिंदे को मिला कोई ठौर था, पुरानी डायरी के पन्नों पर यूं ही बनी तस्वीरों का कोई साकार रूप था, बादलों के बीच बना कोई मुकाम था, किसी से मन की बात कह पाने का साहस था, किसी के कंधो पर सिर रख बतियाने का अधिकार था, मन्दिर में भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़े हुए तो मन में आई कोई तस्वीर थी, दूर तक बिखरी धूप में साथ चलता साया था, किसी नदी के किनारे पानी में पैर डाले मिला सुकून था, दिन भर ज़िन्दगी की ज़द्दोजहद के बाद शाम को घर लौ

तुम्हे भी तो प्रेम है

अक्सर तुम्हारे बिम्ब का आकार उतर आता है मुझमे निराकार साकार क्या है कुछ भी तो नहीं कह सकता हाँ यह ज़रूर है कि आकार तुम से ही है कभी व्योम का कोई सिरा तलाशते जब दूर निकाल जाता हूँ आक़र तुम्हारे इसी स्वरुप में सिमट जाता हूँ मैं जानता हूँ तुम स्वतंत्र हो पर बंधन भी तुम्हे प्रिय हैं अधिकार और स्वीकार भाव मेरे हैं यह अनुबंध भी तो मेरे हैं तुम तो हमेशा से मुक्त रहे हो रूई के फाहे पर चलने की कोशिश ओह देखो तो, क्या स्वप्न है नहीं आह्लाद से विपन्न है खिलखिलाकर हंस रहे हो ना तुम? हंसो और हंसो कभी कभी विपन्न के लिए भी हँसना चाहिए किसी स्वप्न के लिए भी हँसना चाहिए तभी अचानक रूई के फाहे बदल बन गए ओह नहीं वाह अब बारिश होने वाली है देखना प्रेम बरसेगा तुम भी आना रससिक्त हो जाना आखिर तुम्हे भी तो प्रेम है.

लाहौर पर ही तिरंगा फहरा दोगे क्या?

समझ में नहीं आता कि इस देश के लोगों को हो क्या गया है? आखिर वो करना क्या चाहते हैं? तिरंगा फहराना चाहते हैं. वो भी लाल चौक पर. हद ही तो है. भला ऐसा करने का हक उन्हें किसने दिया? केंद्र सरकार उन्हें रोकने की तैयारी में है तो कोई गलत नहीं है. सीआरपीएफ लगा कर सरकार उन्हें रोकने की तैयारी में है तो रोकने दो. मुझे इसमें कोई गलत बात नहीं नज़र आती. एक भारतीय होने का मतलब ये कतई नहीं है तुम श्रीनगर की लाल चौक पर जा कर तिरंगा फहरा दो. तुम अपनी गली में फहरा लो, बालकनी में फहरा लो. क्या कम जगहें हैं? लेकिन श्रीनगर में लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहर सकता, सुना तुमने. केंद्र सरकार अपने विज्ञापनों में कहती है कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अरुणाचल से गुजरात तक भारत एक है. अब कहने का क्या है? बहुत सी बातें कही जातीं हैं सब की सब सही ही होती है क्यां? यह सब तो कहने भर के लिए है. कश्मीर तो .....है किसी का, मुझे पता करने पड़ेगा. किसी पुरानी किताब में पढ़ा था कि कश्मीर भारत का है. अब पता नहीं ऐसा है या नहीं? हाँ, कन्याकुमारी तो खालिस अपना ही है अभी तक. जहाँ तक बात अरुणांचल कि है तो शायद यह भी भारत का ही

अब तो सपने में भी फुटकर दिखता है

बहुत लोगों को देखा साल के पहले दिन बनारस के संकट मोचन मंदिर के बाहर अपना सिर पटक रहे थे. ठण्ड से परेशान भगवान से चीख चीख कर कह रहे थे की आज साल का पहला दिन है. हम आपके दर्शन करने आयें हैं. हमारा पूरा साल अब आप के जिम्मे है. हम चाहे जो करे हमारा कुछ बिगड़ना नहीं चाहिए. कुछ बिगड़ा तो आप समझिएगा. उसके बाद मंदिर नहीं आयेंगे. भक्तो की प्रार्थना में भाव ऐसा की वो प्रार्थना कम और मांग ज्यादा लग रही थी. गोया भगवान को भगवान उन्होंने ही बनाया हो जैसा हर पांच साल में वोट देकर एक भगवान चुनते हैं. खैर भगवान को इन सब बातों की आदत हो चली है. लेकिन एक बात उन्हें परेशान कर गयी. संकट मोचन भगवान सोचने लगे कि आखिर यह साल नया कैसे हो गया. यह संवत बदला कब. कानो कान ख़बर तक नहीं हुयी. लेकिन अब इतने लोग बाहर जमा है तो सचमुच साल बदल ही गया होगा. फिर भी तसल्ली करने के भगवान ने अपने एक सेवक को बाहर भेजा कि पता लगा कर आयो कि माजरा क्या है. सेवक ने क्या बताया यह आपको उसके लौट कर आने के बाद पता चलेगा. तब तक आपको एक और दृश्य सुनाता हूँ. एक जनवरी को एक मित्र के घर एक काम से एक मिनट के लिए गया. उसके घर पहुंचा तो

ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है

एक शहर जिसकी पहचान महज घंटे और घड़ियालों से नहीं मंदिर के शिखर और उनपर बैठे परिंदों से नहीं यहाँ ज़िन्दगी ज़ज्बातों से चलती है अविरल, अविनाशी माँ की लहरों पर मचलती है शहर अल्लहड़ कहलाता है ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है यकीनन इसके सीने पर एक ज़ख़्म मिला है कपूर की गंध में बारूद घुला है एक सुबह सूरज सकपकाया सा है गंगा पर खौफ का साया भी है किनारों पर लगी छतरियो के नीचे एक अजीब सी तपिश है सीढ़ियों पर लगे पत्थर कुछ सख्त से हैं डरे- सहमे तो दरख्त भी हैं तभी अचानक एक गली से एक आवाज़ आती है महादेव देखो, दहशत कहीं दूर सिमट जाती है घरों से अब लोग निकल आयें हैं उजाले वो अपने साथ लायें हैं चाय की दुकानों पर अब भट्ठियां सुलग रहीं हैं पान की दुकानों पर चूने का कटोरा भी खनक रहा है देखो, ये शहर अपनी रवानगी में चल रहा है सुनो, उसने पुछा था इस शहर की मिट्टी मिट्टी है या पारस लेकिन उससे पहले दुआ है यही की बना रहे बनारस बना रहे बनारस .

कैसी रही चाय साहब?

>> धमाके के वक़्त पुलिस के बड़े अफसर के घर चल रहा था जश्न. यह सवाल आपको कुछ अटपटा सा ज़रूर लग सकता है लेकिन सवाल जायज है. दरअसल ये सवाल इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मंगलवार 6 दिसम्बर को जिस वक़्त वाराणसी के शीतला घाट पर बम धमाका हुआ ठीक उसी समय जिले के आला अफसर चाय पार्टी में व्यस्त थे. आप को हैरानी होगी ये जानकार कि ये चाय पार्टी दी किस ख़ुशी में गयी थी. दरअसल 6 दिसम्बर की बरसी शहर में शांतिपूर्वक बीत गयी इसका जश्न मनाया जा रहा था. शहर पुलिस महकमे के सबसे बड़े अफसर के बंगले पर इस पार्टी का आयजन किया गया था. बाकायदा पत्रकारों को फ़ोन करके इस पार्टी में बुलाया गया था. खुद एसपी सिटी ने मेरे एक पत्रकार मित्र को फ़ोन किया और चाय पार्टी का निमंत्रण दिया. कारण बताया कि 6 दिसम्बर की बरसी शांति पूर्वक बीत गयी इसलिए जश्न मानेगे. कोशिश थी कि अपनी पीठ खुद ठोक ली जाये. यानी साफ़ है कि 6 दिसम्बर बीत जाने के बाद सभी अधिकारिओं ने मान लिया था कि अब कुछ नहीं होने वाला है. इसी लापरवाही का फायदा उठा लिया इंडियन मुजाहिदीन ने. सूत्रों की हवाले से ख़बर है कि लास्ट के एक दिन पहले तीन संदिग्ध लोग इस इलाक

अद्भुत और अलौकिक

वो दृश्य अद्भुत और अलौकिक होता है उसकी कल्पना मात्र भी आप को रोमांचित कर देती है. वाराणसी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाना वाला उत्सव देव दीपावली देश के भयातम आयोजनों में से एक है. जाह्नवी के तट पर बसे काशी में घाटो पर असंख्य दीये एक साथ जल उठते हैं. देवताओं के लिए मनाई जा रही ये देव्पावाली देश का एकमात्र ऐसा धार्मिक आयोजन है जिसमे देश प्रेम की भावना दिखती है. इस दिन कार्यक्रम की शुरुआत अमर शहीदों को नमन करने के बाद होती है. इसी आयोजन की कुछ तस्वीरें आपके लिए...

how long will it survive?

its a story that i covered in varanasi. it tell us the dangerous results of throwing soil that has been collected in flood at riverbank of ganga ghats, again in ganga. river scientists telling this continue process will change the flow of ganga in varanasi. this change of flow in ganga will dangerous for many ghats like panchganga, scindhiya and some others. these ghats may be in ganga in few years. the one of most important thing is that all this cleaning process is done by local andimistration.

अब तो गरियाने से भी नहीं फरियाता

मीडिया के बढ़ते कदमो ने कई बदलाव लायें हैं. लेकिन कुछ बदलाव तो ऐसे हैं जिनके बारे में आमतौर पर सोचा नहीं जा सकता है. अब गालियों को ही ले लीजिये. गालियों में कितना कुछ बदल गया है. नयी नयी तरह की गालियाँ आ गयी हैं. जिन्हें सुनकर आप अपने को आनंदित महसूस करते हैं. गालियों के साथ सबसे बड़ी खासियत ये है कि किसको कौन सी गाली कब लग जाएगी, यह आप पहले से नहीं तय कर सकते. कोई साले से ही बिदक जाता है और कोई माँ बहन करने पर भी नहीं संभलता. ये गाली की माया है. देश के जाने- माने सहित्यकार काशीनाथ सिंह ने इन गालियों को अपनी किताब में भी बेधड़क प्रयोग किया है. किताब के पन्नों पर आने के बाद इन गालियों ने ऐसा चोला बदला कि सामाजिक परिवेश इनके बिना अधूरा लगेगा. ये है गालियों की विशेषता. लेकिन आजकल यही गालियाँ अपने मौलिक स्वरुप को बचाने के लिए गुहार लगा रहीं हैं. वह चाह रहीं हैं कि लोग इन गालियों का सही उच्चारण शुरू करे ताकि इनका आस्तित्व बना रहे. गालियों के स्वरुप में परिवर्तन का एहसास तब से हुआ जब से छोटे पर्दे पर लाफ्टर शो शरू हुए. गंभीर अर्थो वाली गालियों के साथ प्रयोग शुरू हुए और गालियाँ बिगड़ गयीं.