प्रात के पहर में अप्रतिम रूप से फैली अरुणिमा की सिन्दूरी विमायें करती हैं सर्जना प्रीत तूलिका की प्रति, दिन- बरस - युग झुरमुटों से झांकती अलसाई पड़ी सुथराई बहकर बयार संग गाती राग फाग का अटा पड़ा है लालित्य हर, पुष्प-विटप-निकुंज पर मुकुलित पड़े हैं सब कचनार-कुमुदनी औ 'कदम्ब' भिन्न रंगों में रंग गए खेत-बाग-वन इक रंग तो मुझ पर भी है रहेगा युगों तक नेह-प्रेम -औचित्य का गहराता जाता है हर क्षण - पल -पहर देता है अपरिसीम पुलकित स्नेह अंतस से करता आलिंगन गूंजता है चहुं ओर चटक जैसे अंशुमाली रंग... बन हर्षिल प्रभाएं करता नव्याभिमाएं भरता पुष्प नवश्वास के हर शिरा - रोम -व्योम में देखो ना 'सांवरे' फाग के इन लाल-पीले-हरे-नीले विविध रंगों से कितना चटक है तुम्हारी प्रीत का रंग रहेगा मुझ पर बरसों-बरस युगान्तरों तक... ( पंक्तियाँ कुछ इस तरह से शब्दों के साथ बुनी गयीं हैं की अर्थ सहज ही स्पष्ट हो जाता है. पार्श्व भाव भी ऐसा की मोहपाश में बंधना निश्चित है. सम्बोधन पूर्ण तो नहीं है लेकिन मेरे अत्यंत प्रिय मित्र द्वारा लिखी गयी यह कविता मुझे बहुत अच्छी लगी और लगा की अपने ब्लॉग पर
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर