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संदेश

ख़ामोशी

अक्सर चुप सी बैठ जाती है ख़ामोशी  और मुझसे कहती है  बतियाने के लिए  कहती कि आज तुम बोलो  मैं सुनना चाहती हूँ शब्द ही नहीं मिलते हैं मुझको  उससे बात करने के लिए चुप सा रह जाता हूँ  बस फटी आँखों से देखता हूँ  वो कहती कि  तुम भी अजीब हो  मुझे में ही समो जाते हो  खामोश हो जाते हो  बस खिलखिलाकर हंस देती है  ख़ामोशी. मैं चुप बस देखता रहता हूँ उसे. 

माँ तो यह भी है...

गंगा का पानी स्थिर है. किनारों पर जमी काई बयां कर रही है माँ की दशा.  आज भी हम सही अर्थों में उसे माँ का दर्जा नहीं दे पायें हैं. हाँ यह कहते नहीं थकते की यह तो हमारी माँ है. भारतीय समाज में आ रहा बदलाव हमें स्पष्ट रूप से वहां भी दिखता है. अर्थ प्रधान होते भारतीय समाज के लिए शब्दों का भावनात्मक स्वरुप बाज़ार भाव से निर्धारित होता है. हम पैसे खर्च कर अपनी माँ को माँ बनाये रखना चाह रहें हैं.  कलेजा मुंह  को आता हैं जब आप गंगा की स्थिति से रूबरू होते हैं. लगभग ढाई हज़ार किलोमीटर के अपने लम्बे और कठिन सफ़र में गंगा एक नदी की तरह नहीं बल्कि एक माँ की तरह व्यवहार करती आगे बढती है. जिस तरह से माँ के आँचल में हर संतान के लिए कुछ न कुछ होता है वैसा ही गंगा के साथ है. गंगा कभी अपने पास से किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती. जो भी आता है कुछ लेकर ही जाता है. इतने के बावजूद अब गंगा हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती. हमने उसे मल ढोने  वाली एक धारा बना कर छोड़ा है.  राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के अनुसार गंगा बेसिन में रोजाना १२,००० मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न होता है. इसमें से महज ४००० मिलियन लीटर

बोल गिलानी 50 - 50

मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होने वाला है. भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह इस मैच का लुत्फ़ उठाने जायेंगे. उन्होंने पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ राजा गिलानी को भी न्योता भेजा और गिलानी ने मंजूर भी कर लिया. अब दो-दो प्रधानमन्त्री इस मैच का आनंद उठाएंगे. वो भी जानते हैं कि यह मैच महज एक मैच नहीं है. यह जीने मरने का सवाल है. दोनों टीम्स के खिलाड़ी मैच को बैट और बॉल से ही नहीं हाथ और पैर से भी खेलते हैं. आमतौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच का मैच बेहद रोमांचक ही होता है. पूरी दुनिया इसे देखती है. साँसे रोक देने वाला मैच होता है. हालांकि यह सब बातें आप सभी को पहले से पता हैं. इसमें कोई नयी बात नहीं है.  इस बार मेरे दिमाग में एक आईडिया है. फिफ्टी-फिफ्टी का.मौका होली का है और हम होली में दुश्मनों को भी गले लगा लेते हैं. चैती गुलाब की खुशबू माहौल को गमका रही है. हम अमन की बात तो हमेशा से करते आयें हैं लिहाजा मौका भी है और दस्तूर भी. आ गले लग जा. देखो मैच तो हर बार होता है. इस बार अगर कुछ ख़ास हो जाये तो दुनिया देखे. वैसे फिफ्टी-फिफ्टी के कांसेप्ट में नुकसान भारत का ही ह

तो गंगा को राष्ट्रीय नाला घोषित कर दे सरकार

समझ में नहीं आता की केंद्र सरकार अब इस काम में इतनी देर क्यों कर रही है. बिना देर किये केंद्र सरकार को राज्य सरकारों को विश्वास में लेकर सदानीरा को राष्ट्रीय नाला घोषित कर देना चाहिए. गंगा की लगातार बिगड़ती सेहत और केंद्र सरकार के प्रयासों को देखते हुए आम जन को इस बात की पूरी उम्मीद है कि जल्द ही गंगा नदी नहीं रह जाएगी बल्कि मल जल ढ़ोने वाले एक नाले के स्वरुप में आ जाएगी. यह दोनों तस्वीरें वाराणसी के रविदास घाट की हैं घाट के करीब ही अस्सी नाला सीधे गंगा में गिरता है  गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक लगभग २५२५ किलोमीटर का सफ़र तय करने वाली गंगा अपने किनारों पर बसे करोड़ों लोगों को जीवन देती है. देव संस्कृति इसी के किनारे पुष्पित पल्लवित होती है तो दुनिया का सबसे पुराना और जीवंत शहर इसी के किनारे बसा है. माँ का स्थान रखने वाली गंगा भारतीय जनमानस के लिए अत्यन्त आवश्यक है. मोक्ष की अवधारणा में गंगा है. मृत्यु शैया पर पड़े जीव के मूंह में गंगा जल की दो बूंदे चली जाएँ तो उसको मोक्ष मिलना तय माना जाता है लेकिन अब यह अवधारणा बदलने का वक़्त आ गया है. सदानीरा अब अमृतमयी जल से नहीं घरों से न

युगान्तरों तक...

प्रात के पहर में अप्रतिम रूप से फैली अरुणिमा की सिन्दूरी विमायें करती हैं सर्जना प्रीत तूलिका की प्रति, दिन- बरस - युग झुरमुटों से झांकती अलसाई पड़ी सुथराई बहकर बयार संग गाती राग फाग का अटा पड़ा है लालित्य हर, पुष्प-विटप-निकुंज पर मुकुलित पड़े हैं सब कचनार-कुमुदनी औ 'कदम्ब' भिन्न रंगों में रंग गए खेत-बाग-वन इक रंग तो मुझ पर भी है रहेगा युगों तक नेह-प्रेम -औचित्य का गहराता जाता है हर क्षण - पल -पहर देता है अपरिसीम पुलकित स्नेह अंतस से करता आलिंगन गूंजता है चहुं ओर चटक जैसे अंशुमाली रंग... बन हर्षिल प्रभाएं करता नव्याभिमाएं भरता पुष्प नवश्वास के हर शिरा - रोम -व्योम में देखो ना 'सांवरे' फाग के इन लाल-पीले-हरे-नीले विविध रंगों से कितना चटक है तुम्हारी प्रीत का रंग रहेगा मुझ पर बरसों-बरस युगान्तरों तक... ( पंक्तियाँ कुछ इस तरह से शब्दों के साथ बुनी गयीं हैं की अर्थ सहज ही स्पष्ट हो जाता है. पार्श्व भाव भी ऐसा की मोहपाश में बंधना निश्चित है. सम्बोधन पूर्ण तो नहीं है लेकिन मेरे अत्यंत प्रिय मित्र द्वारा लिखी गयी यह कविता मुझे बहुत अच्छी लगी और लगा की अपने ब्लॉग पर

इस फाल्गुन न चढ़ेगा कोई रंग सांवरी

फिर एक बार फाल्गुन आ गया है. मदमस्त कर देने वाली एक सुगंध नथुनों से होती हुयी अंतस तक उतर गयी है. इस बार का फाल्गुन हर बार से कुछ अलग है. यह तो ज़रूर है की आने वाली जेठ में धूप त्वचा को झुलसा देगी लेकिन इस विचार से दूर मैं आज फाल्गुन की मुलायम ठण्ड वाली हवा में घुली एक खुशबू को महसूस कर रहा हूँ. शायद यह हवा इस लिए भी अच्छी लग रही है क्योंकि इसमें तुम्हारी बदन से आती महक की अनुभूति होती है. किसी मैदान के किनारे लगे पलाश के पेड़ों पर लगे फूल अचानक उद्देश्यपरक लगने लगे हैं. इन्हें छूना बिलकुल तुम्हरे स्पर्श का एहसास कराता है. इन फूलों को उठा कर देर तक अपनी हथेलियों के बीच दबाये रहता हूँ. लगता है मानो कुछ देर तक तुम्हारा हाथ मेरे हाथों में रहा. इसके बाद जब हथेलियों को खोलता हूँ तो उनपर लाल रंग चढ़ चुका होता है. चटख लाल रंग, खुशबूदार लाल रंग. उत्साह और उर्जा का प्रतीक लाल रंग. कुछ ऐसा ही तो तुम्हारी हथेलियों को अपनी हथेलियों के साथ जोड़ने पर महसूस होता है. इस फाल्गुन में सब के साथ रंग खेलूंगा. जम कर खेलूंगा. सुबह से भरी दोपहर तक खेलूंगा. लेकिन यकीन मानो मेरे ऊपर अब कोई रंग चढ़ने वाला नहीं

ई सरवा अपने के बहुत बड़ा साहित्यकार लगावत हव

मोहल्ला अस्सी की शूटिंग के दौरान काशी नाथ सिंह के लिए आई ये अभिव्यक्ति बता रही है की फिल्म में अस्सी की आत्मा मरी नहीं है. कुछ ऐसे ही वाक्य का प्रयोग किया था उसने उन महानुभाव के लिए। वही जिन्होंने गालियों के प्रति एक ऐसा नजरिया पेश कर दिया कि अब गाली खाना सभी के लिए सम्मान का विषय हो गया। हालांकि उन्होंने कभी ये नहीं सोचा होगा कि कभी इस तरह से कोई उनका सम्मान करेगा। इससे पहले कि आप मुझे गरियाने के मूड में आ जाये मैं आपको बता ही देता हूं कि माजरा क्या है। दरअसल पूरा वाक्या बनारस के अस्सी घाट का है जहां डाक्टर चंद्र प्रकाष द्विवेदी अपनी फिल्म मोहल्ला अस्सी की शूटिंग कर रहे हैं। फिल्म की कहानी प्रख्यात हो चले साहित्यकार काशीनाथ सिंह की अनुपम रचना काषी का अस्सी पर आधारित है। शूटिंग के दौरान ही एक दिन मैं भी वहां पहुंचा। काशी नाथ सिंह जी भी वहीं मौजूद थे। उनके आस-पास कुछ लोग टहल रहे। कुछ ऐसे भी थे जो उनका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहते थे। दुर्भाग्य से काशी नाथ सिंह ने उनकी ओर ध्यान दिये बिना ही पास खड़ी वैनिटी वैन की ओर कदम बढ़ा दिये। ये बात पास खड़े कुछ लोगों को नागवार गुजरी और उन्होंने बेहद

धूल चेहरे पर होती तो क्या करते?

देश के सबसे विशाल प्रदेश की सबसे ताकतवर महिला के जूते पर धूल जमी थी। ये देख मैडम के साथ चल रहे एक अफसर से रहा नहीं गया। उसने तुरंत रुमाल निकाली और मैडम की जूतियों को साफ कर दिया। ये देख विपक्ष से रहा नहीं गया, लगे हल्ला मचाने। शाम तक सरकार ने एक बिल्कुल सोलिड कारण पेश कर दिया। बताया गया कि जूतियों पर जो धूल जमी थी उससे मैडम की सुरक्षा को खतरा था। लिहाजा सुरक्षा में लगे अफसरों का फर्ज बनता है कि धूल साफ करें। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मैं भी तो यही कह रहा हूं। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। अब भला देश के इतने बडे राज्य का कोई मुख्यमंत्री है। उसके जूते पर धूल लगी रहे और सुरक्षा में लगे अधिकारी देखते रहें। नहीं, बिलकुल नहीं। भले ही सूबे का मुखिया दलितों का सबसे बडा रहनुमां होने का दावा करता हो। सूबे में दलितों के कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं का जायजा लेने निकला हो। वो तो बस उड.न खटोले में बैठकर दूसरों पर धूल उड़ाता है। अपने जूते धूल में नहीं डालता। अगर गलती से जमीन पर पड.ी धूल ने उसकी जूती तक को छू लिया तो हमारे अफसर उसे कहीं का नहीं छोडगे। प्रदेश की धूल को समझ लेना चाहिए कि वो सिर्फ आम

न जाने वो क्या था.

न जाने वो क्या था. एक रेशमी एहसास था, एक ज़िम्मेदारी थी, एक ख़्वाब था, किसी कहानी कि शुरुआत थी, किसी दास्तान का आखिरी हिस्सा था, किसी बगीचे में खिले पहले गुलाब की महक थी, किसी पहाड़ से लिपटी कोई पवन थी, चांदनी रात में रात रानी का खिलना था, किसी लम्बी और सुनसान सड़क में किसी सड़क का आकर मिलना था, किसी रेगिस्तान में कोई घना पेड़ था, ठण्ड की सुबह में निकली सूरज की पहली किरण थी, दूर तक देख कर लौटी एक नज़र थी, ज़िन्दगी को हर हाल में जी लेने का हौसला था, हाथ कि हर लकीर से अपनी खुशी की इबारत लिखवा लेने का ज़ज्बा था, किसी अँधेरी रात को सुबह होने की उम्मीद थी, सागर में उड़ते किसी परिंदे को मिला कोई ठौर था, पुरानी डायरी के पन्नों पर यूं ही बनी तस्वीरों का कोई साकार रूप था, बादलों के बीच बना कोई मुकाम था, किसी से मन की बात कह पाने का साहस था, किसी के कंधो पर सिर रख बतियाने का अधिकार था, मन्दिर में भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़े हुए तो मन में आई कोई तस्वीर थी, दूर तक बिखरी धूप में साथ चलता साया था, किसी नदी के किनारे पानी में पैर डाले मिला सुकून था, दिन भर ज़िन्दगी की ज़द्दोजहद के बाद शाम को घर लौ

तुम्हे भी तो प्रेम है

अक्सर तुम्हारे बिम्ब का आकार उतर आता है मुझमे निराकार साकार क्या है कुछ भी तो नहीं कह सकता हाँ यह ज़रूर है कि आकार तुम से ही है कभी व्योम का कोई सिरा तलाशते जब दूर निकाल जाता हूँ आक़र तुम्हारे इसी स्वरुप में सिमट जाता हूँ मैं जानता हूँ तुम स्वतंत्र हो पर बंधन भी तुम्हे प्रिय हैं अधिकार और स्वीकार भाव मेरे हैं यह अनुबंध भी तो मेरे हैं तुम तो हमेशा से मुक्त रहे हो रूई के फाहे पर चलने की कोशिश ओह देखो तो, क्या स्वप्न है नहीं आह्लाद से विपन्न है खिलखिलाकर हंस रहे हो ना तुम? हंसो और हंसो कभी कभी विपन्न के लिए भी हँसना चाहिए किसी स्वप्न के लिए भी हँसना चाहिए तभी अचानक रूई के फाहे बदल बन गए ओह नहीं वाह अब बारिश होने वाली है देखना प्रेम बरसेगा तुम भी आना रससिक्त हो जाना आखिर तुम्हे भी तो प्रेम है.