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संदेश

पकड़ सौ की पत्ती और बोल अन्ना जिंदाबाद

सुनने में यह अजीब लगता है लेकिन बात है सही। यह मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं। अगर देश में इसी तरह से अन्ना की आंधी चलती रही तो आने वाले समय में अन्ना ईमानदारी के प्रतीक होंगे और बेइमानी को छुपाने का जरिया। रैलियों और सभाओं के ठेकेदार अन्ना के नाम पर नारा लगाने वालों की फौज रखेंगे। उन्हें एक पॉउच और सौ की पत्ती पकड़ा कर नारे लगवायेंगे। ठीक वैसे ही जैसे आज गांधी, सुभाष, आजाद, अंबेडकर के लिए लगाये जाते हैं। न तो नारे लगाने वालों को इससे कोई मतलब होगा कि वो किसके लिए और क्यों नारे लगा रहे हैं और न ही इन नारों को सुनने वालों को कोई फर्क पड़ेगा। एक संवेदनहीनता का जन्म हो जायेगा। आज सरकारी कार्यालयों में महात्मा गांधी की फोटो टंगी होती है और टेबुल के नीचे से लेन-देन होता रहता है। कुछ दिनों बाद गांधी की तस्वीर के बगल में मुस्कुराते अन्ना की भी तस्वीर होगी और हम और आप में से कोई एक टेबुल के नीचे से अपनी फाइल पार करा रहा होगा।  यह ठीक है कि अन्ना के समर्थन में पूरा देश एक हो गया है। लेकिन यह भी सच है कि भ्रष्टाचारियों के खिलाफ मन में गुस्सा अन्ना के लिए प्यार से अधिक है।  इसके साथ ही एक अहम मु

थूक पार्ट -टू, आज नहीं थूके तो कल आप पर थूकेगा

चौंसठ सालों से हम सब अपनी थूक इसलिए निगलते आ रहे हैं क्योंकि सरकारी कागजों में सार्वजनिक स्थानों पर थूकना अपराध है। लिहाजा घोंट कर ही काम चलाना पड़ता है। लेकिन आज जब मौका मिला है तो देश का आम आदमी पीछे नहीं रहना चाहता है। वो जी भर के थूकना चाहता है उस सिस्टम के मुंह पर जो उसे आम आदमी का नाम तो देता है लेकिन सहूलियत जानवरों से भी बदतर। यही वजह है कि मुझे भी थूक पार्ट टू लिखने की अन्र्तप्रेरणा मिली। कुछ लोगों को जरूर बुरा लगा होगा और लग भी रहा होगा इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन एक बात भी लगे हाथ बता देना चाहता हूं कि अगर आज आपने इस सड़ चुके सिस्टम पर नहीं थूका तो आपका कल आप पर थूकेगा। मर्जी आपकी आखिर मुंह है आपका। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम पूरे देश का नेतृत्व नहीं कर सकते। सिविल सोसाइटी की नुमांइदगी चार-पांच लोगों को नहीं दी जा सकती। मैं भी इस बात से इतेफाक रखता हूं लेकिन मुझे लगता है कि सरकार की आंखों पर अहम का चश्मा लगा हुआ है। तभी तो उसे दिल्ली से लेकर चेन्नई तक हो रहे आंदोलन नहीं दिख रहे। लाखों लोग सड़कों पर हैं तो फिर किस बात का सबूत चाहती है सरकार? अगर देश का कानून द

बहुत दिनों से घोंट रहे थे अब थूक रहे हैं

देश में आजकल अन्ना की चर्चा है। हर ओर अन्ना ही अन्ना नजर आ रहे हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने पूरे देश को अन्नामय कर दिया है। अन्ना के समर्थन में देश का एक बड़ा वर्ग सड़कों पर उतर आया है। कोई अनशन कर रहा है तो कोई गा-बजा कर अन्ना का साथ दे रहा है। कई लोग ऐसे भी हैं जो सड़कों पर प्रदर्शन तो नहीं कर रहे हैं लेकिन मुंह से अन्ना के साथ होने की बात कह रहे हैं। इन सब के बीच एक बात सामान्य है। सभी सालों से जिस थूक को घोंट रहे थे उसे जी भर के वहां थूक रहे हैं जहां थूकना चाह रहे हैं। वैचारिक रूप से अन्ना ने देश की ऐसी रग पर हाथ रखा है जिसकी ओर कोई देख भी ले तो दर्द उभर आता है। अन्ना ने उसी रग को दबा दिया है। जनता की वो भीड़ जो राजनीतिक रूप से लोकतंत्र का हिस्सा है चिल्ला रही है। ये भीड़ व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने का यह मौका जाने नहीं देना चाहती है।  राजनीतिक रूप से असंतुष्ट भारत के पास विकल्प बहुत कम हैं। जो हैं भी उनका उपयोग सीमित है और उनका उपयोग कर पाने के लिए लम्बा इंतजार भी करना पड़ता है। लिहाजा अंदर ही अंदर एक घुटन सी होने लगी है। रातों रात सिस्टम को बदला नहीं जा सकता है।
अब यह संकल्प लेना होगा  इस देश में रहने वाले राजनीतिक रूप से तो आजाद हैं लेकिन मानसिक रूप से आजादी का टुकड़ा भर भी हम आज तक हम नहीं ले पाये हैं. जिन संघर्षों और आंदोलनों के सहारे हमें आजादी मिली आज हम उन्हें ही महत्व नहीं देते हैं. शहीदों की शहादत पर भी वक्त-बेवक्त प्रश्नचिह्न लगाने वाले कम नहीं हैं. इतने के बाद अगर किसी ने टोक दिया तो उसे संविधान की दुहाई दी जाती है. कहा जाता है कि संविधान में हर एक को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है. अब जब संविधान की ही दुहाई दे दी तो कोई क्या करेगा?  आजादी की लड़ाई लडऩे में महात्मा गांधी का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है. महात्मा गांधी और संविधान निर्माता बाबा भीमराव अंबेडकर के विचार कभी एक नहीं रहे. यहां तक की स्वतंत्रता आंदोलन में भी बाबा और बापू का मतभेद नजर आता है. कई गोष्ठियों में बाबा भीमराव ने देश में दलितों और शोषित वर्गों के लिए आंदोलन करने को ज्यादा तरजीह दी बजाए इसके कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी जाए. गांधी जी ने कई बार इसका विरोध किया. यही वजह थी बाबा और बापू आपको बहुत कम स्थानों पर ही एक साथ नजर आयेंगे.  अंग्रेजों से जंग जीतने क

इस बार कलमाड़ी कैसे रहेंगे?

लीजिए आ गया एक बार फिर छुट्टी वाला दिन। वही दिन जिसकी छुट्टी आपके कैलेंडर में कभी इधर से उधर नहीं होती। वही दिन जब लाल किले की प्राचीर पर भारत तिरंगा फहराता है इंडिया छुट्टी मनाता है। पता नहीं क्यों लेकिन लगता है कि अब शायद ऐसे त्यौहारों पर लोगों में उत्साह नहीं होता। हो सकता है बार-बार एक ही जगह एक जैसा ही प्रोग्राम करने से लोगों में दिलचस्पी कम हो गई हो। इस बारे में मेरा एक सुझाव है। इससे 15 अगस्त के जश्न का जोश दुगुना हो सकता है। हमें इस बार झण्डा फहराने के स्थान में थोड़ा परिवर्तन करना चाहिए। इस बार झण्डा फहराने के लिए हमें उस स्टेडियम का इस्तमाल करना चाहिए जिसका उपयोग कामन वेल्थ खेलों की ज्यादातर स्पर्धाओं के लिए हुआ है। वहां हम सब को एकत्र होना चाहिए और झण्डा फहराना चाहिए। आखिर यही जगह तो है जहां हमारे देश ने अपनी प्रगतिशीलता अन्य देशों के सामने बताई। अब सवाल ये है कि हर बार देश का प्रधानमंत्री ही लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त को तिरंगा क्यों फहराये। क्या देश में कोई और नहीं है जो प्रधानमंत्री को थोड़ी राहत दे सके। मेरे पास इसका जवाब है। है ना। अपने कलमाड़ी जी। कसम से ऐसा यो

हर बात जुबां से कहना ज़रूरी तो नहीं...

मुझे इस बात का पक्का यकीन तो नहीं लेकिन शायद मेरी लेखनी से निकले शब्दों के पास खुद पर खुश होने के सिवा कोई और विकल्प नहीं होता है. लेकिन फिर भी  अपने दोस्तों द्वारा  पिछले कई दिनों से अपनी आभासी पुस्तिका पर ना लिख पाने की वजहों के बारे में पूछा जाना सुखद रहा. लगने लगा कि रगों में लिपटी एक आग जब कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर शब्द दर शब्द उतरती है है तो कुछ एक यार दोस्त उस आग को धधकते, सुलगते, हाहाकार करते देख खुश होते हैं.  शुक्रिया  दोस्तों.  वैसे जलने का अपना मजा होता है. यकीन जानिए इस बात का पता मुझे भी तब चला जब मैंने जलना सीख लिया. एक ऐसी आग में जो आपको जला कर राख नहीं स्वर्ण बना देती है. बेचेहरा हवाओं में, बेतरतीब बादलों में आपको मकसद नज़र आने लगता है. एक बाँध सा होता है जो उसके स्नेह ज्वार के आने के साथ ही टूट जाता है और आप जी भर के सांस लेते हैं. इसके बाद आपको एक नव जीवन मिलता है. एक गहरी सांस और उसके साथ घुली हुई एक नरगिसी खुशबु. सब कुछ क्षण भर में ही हो जाता है लेकिन हाथों में आया यह मुट्ठी भर आसमान आपको विश्व विजेता होने का एहसास दिला जाता है. अब इसे विरोधाभास कह लीजिये लेकिन अगले

ख़ामोशी

अक्सर चुप सी बैठ जाती है ख़ामोशी  और मुझसे कहती है  बतियाने के लिए  कहती कि आज तुम बोलो  मैं सुनना चाहती हूँ शब्द ही नहीं मिलते हैं मुझको  उससे बात करने के लिए चुप सा रह जाता हूँ  बस फटी आँखों से देखता हूँ  वो कहती कि  तुम भी अजीब हो  मुझे में ही समो जाते हो  खामोश हो जाते हो  बस खिलखिलाकर हंस देती है  ख़ामोशी. मैं चुप बस देखता रहता हूँ उसे. 

माँ तो यह भी है...

गंगा का पानी स्थिर है. किनारों पर जमी काई बयां कर रही है माँ की दशा.  आज भी हम सही अर्थों में उसे माँ का दर्जा नहीं दे पायें हैं. हाँ यह कहते नहीं थकते की यह तो हमारी माँ है. भारतीय समाज में आ रहा बदलाव हमें स्पष्ट रूप से वहां भी दिखता है. अर्थ प्रधान होते भारतीय समाज के लिए शब्दों का भावनात्मक स्वरुप बाज़ार भाव से निर्धारित होता है. हम पैसे खर्च कर अपनी माँ को माँ बनाये रखना चाह रहें हैं.  कलेजा मुंह  को आता हैं जब आप गंगा की स्थिति से रूबरू होते हैं. लगभग ढाई हज़ार किलोमीटर के अपने लम्बे और कठिन सफ़र में गंगा एक नदी की तरह नहीं बल्कि एक माँ की तरह व्यवहार करती आगे बढती है. जिस तरह से माँ के आँचल में हर संतान के लिए कुछ न कुछ होता है वैसा ही गंगा के साथ है. गंगा कभी अपने पास से किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती. जो भी आता है कुछ लेकर ही जाता है. इतने के बावजूद अब गंगा हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती. हमने उसे मल ढोने  वाली एक धारा बना कर छोड़ा है.  राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के अनुसार गंगा बेसिन में रोजाना १२,००० मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न होता है. इसमें से महज ४००० मिलियन लीटर

बोल गिलानी 50 - 50

मोहाली में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होने वाला है. भारत के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह इस मैच का लुत्फ़ उठाने जायेंगे. उन्होंने पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ राजा गिलानी को भी न्योता भेजा और गिलानी ने मंजूर भी कर लिया. अब दो-दो प्रधानमन्त्री इस मैच का आनंद उठाएंगे. वो भी जानते हैं कि यह मैच महज एक मैच नहीं है. यह जीने मरने का सवाल है. दोनों टीम्स के खिलाड़ी मैच को बैट और बॉल से ही नहीं हाथ और पैर से भी खेलते हैं. आमतौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच का मैच बेहद रोमांचक ही होता है. पूरी दुनिया इसे देखती है. साँसे रोक देने वाला मैच होता है. हालांकि यह सब बातें आप सभी को पहले से पता हैं. इसमें कोई नयी बात नहीं है.  इस बार मेरे दिमाग में एक आईडिया है. फिफ्टी-फिफ्टी का.मौका होली का है और हम होली में दुश्मनों को भी गले लगा लेते हैं. चैती गुलाब की खुशबू माहौल को गमका रही है. हम अमन की बात तो हमेशा से करते आयें हैं लिहाजा मौका भी है और दस्तूर भी. आ गले लग जा. देखो मैच तो हर बार होता है. इस बार अगर कुछ ख़ास हो जाये तो दुनिया देखे. वैसे फिफ्टी-फिफ्टी के कांसेप्ट में नुकसान भारत का ही ह

तो गंगा को राष्ट्रीय नाला घोषित कर दे सरकार

समझ में नहीं आता की केंद्र सरकार अब इस काम में इतनी देर क्यों कर रही है. बिना देर किये केंद्र सरकार को राज्य सरकारों को विश्वास में लेकर सदानीरा को राष्ट्रीय नाला घोषित कर देना चाहिए. गंगा की लगातार बिगड़ती सेहत और केंद्र सरकार के प्रयासों को देखते हुए आम जन को इस बात की पूरी उम्मीद है कि जल्द ही गंगा नदी नहीं रह जाएगी बल्कि मल जल ढ़ोने वाले एक नाले के स्वरुप में आ जाएगी. यह दोनों तस्वीरें वाराणसी के रविदास घाट की हैं घाट के करीब ही अस्सी नाला सीधे गंगा में गिरता है  गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक लगभग २५२५ किलोमीटर का सफ़र तय करने वाली गंगा अपने किनारों पर बसे करोड़ों लोगों को जीवन देती है. देव संस्कृति इसी के किनारे पुष्पित पल्लवित होती है तो दुनिया का सबसे पुराना और जीवंत शहर इसी के किनारे बसा है. माँ का स्थान रखने वाली गंगा भारतीय जनमानस के लिए अत्यन्त आवश्यक है. मोक्ष की अवधारणा में गंगा है. मृत्यु शैया पर पड़े जीव के मूंह में गंगा जल की दो बूंदे चली जाएँ तो उसको मोक्ष मिलना तय माना जाता है लेकिन अब यह अवधारणा बदलने का वक़्त आ गया है. सदानीरा अब अमृतमयी जल से नहीं घरों से न