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संदेश

दिन गलती गिनाने के नहीं पीएम साहब सबक सिखाने के हैं

ठीक ठाक से चुप रहने वाले जब पीएम मनमोहन सिंह जी ने पाकिस्तान की तरफ से  हो रही बर्बरता पर मुंह खोला तो लगा कि पीएम साहब का बयान पाकिस्तानी  राजदूत को सामने बैठाकर टाइप कराया गया है। बयान तैयार कराते वक्त एक एक  लाइन के बाद पाकिस्तानी राजदूत से पूछा गया होगा कि ठीक है न भाई साहब  कोई गलती तो नहीं है। कहीं कुछ अधिक तो नहीं हो रहा। फिर पाकिस्तान के  राजदूत ने कहा होगा कि आप ऐसा कैसे कह सकते हैं कि हमने गलती की।  पाकिस्तानी राजदूत ने कहा होगा कि आप लिखिए कि आप अपनी गलती को मानिए।  इसके बाद पाकिस्तान कहेगा कि हमने कोई गलती की ही नहीं तो मानने का तो  सवाल ही नहीं उठता। बस हो गया काम। न भारत के पीएम को चुप रहने पर ताना  सुनना होगा और न ही पाकिस्तान को गलती मानने की जरूरत होगी। शायद पड़ोसी  के साथ रिश्ते सुधारने का इससे बेहतर तरीका हो भी नहीं सकता।  यूं भी इस मुल्क का मुस्तकबिल कुछ ऐसा ही रहा है। हम कहने को शेर हैं  लेकिन गीदड़ों की धमकियों से मांद में छुप जाते हैं। इसके बाद शांती पसंद  होने का हवाला देकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश करते हैं। हमारे दो जवान  शहीद हुए। एक जवान का सिर दुश्मन मुल्

माफ करना हेमराज इस देश के लोग तुम्हारे लिए इंडिया गेट पर नहीं आ सकते।

यकीनन ये सोच कर दुख होता है लेकिन ये सोचना तो पड़ेगा ही। एक छोटा सा सवाल है कि क्या इस देश की सरहद को सलामत रखने वालों का सिर हमारे लिए अहमियत नहीं रखता ? क्या हमारे जवान का सिर इस लायक भी नहीं कि उसके लिए इंडिया गेट पर नहीं उतर सकते ?  हमारे देश में भ्रष्टाचार है इसमें कोई दो राय नहीं है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी इससे प्रभावित होती है इसमें भी कोई दो राय नहीं है। हमारा गणतंत्र, भ्रष्टतंत्र में बदल चुका है लिहाजा हमारी नाराजगी जायज है। इस भ्रष्टाचार की ही देन है कि हमें अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव के दर्शन हुए। इस देश में लाखों लोगों ने भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए देश के अलग अलग हिस्सों में कभी धरना दिया तो कभी प्रदर्शन किया। हमारा हासिल हमें अभी पता नहीं। फिलहाल हम खुश हैं कि हमने आवाज तो उठाई।  दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप हुआ तो देश उबल पड़ा। युवाओं की बड़ी संख्या देश के अलग अलग हिस्सों से इंडिया गेट पर आई और आवाज उठाई। पत्थरों से घिरे लोकतंत्र पर ऐसी चोट लोक की हुई कि पूरा तंत्र हिल गया। देश में एक नई बहस शुरू हो गई।  लेकिन इस सबके बाद ये सवाल भी आ गया कि आख

चुनौतियों भरा एक साल

संभव है कि कोई ये सोचे कि इस आत्मविवेचना को सफलता भरा एक साल नाम देना कहीं अधिक  उचित था। लेकिन मुझे लगता है कि सफलता से कहीं अधिक हमारे लिए चुनौतियां थीं और हैं। एक ऐसा राज्य जो 12 साल का हो चुका है वहां पत्रकारिता के लिहाज से अभी बहुत कुछ बचा हुआ है। विशेष तौर पर टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में। हम एक ऐसी टीम का हिस्सा बने जो उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बैठकर पूरे देश की खबरों पर नजर रख रही थी। आम तौर पर टीवी पत्रकारिता का केंद्र नोएडा और दिल्ली है। जाहिर सी बात है कि देहरादून से क्षेत्रीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर पैनी नजर रखना एक मुश्किल काम था। लेकिन टीम ने वो सब कुछ किया। शुरुआत में ही हमने अपने लिए खुद के लिए प्रतिमान स्थापित कर लिए। तसल्ली रही कि हमने उन प्रतिमानों को बहुत हद तक छू भी लिया। आत्म विवेचना को अगर कुछ बिंदुओं पर केंद्रित करें तो शायद वो बिंदु होंगे चुनौतियां , संभावनाएं , प्रयोग और जनपक्ष। आमतौर पर जब आप एक नई शुरुआत करते हैं तो आपके सामने कई मुश्किलें होती हैं। इसके साथ ही आपके पास हारने के लिए कुछ होता भी नहीं है। आप खुल

संतोष कभी मरते नहीं...

बस 2012 के फरवरी महीने के शुरुआती दिनों में ही मुलाकात हुई थी संतोष वर्मा से। हालांकि अब मेरी धर्मपत्नी बन चुकी अलका अवस्थी उनको पहले से जानती थीं। अलका ने संतोष वर्मा के साथ पत्रकारिता भी की। ठीक ठीक नहीं याद कि वो कौन सी तारीख थी लेकिन इतना याद है कि फरवरी का महीना था। संतोष वर्मा से बनारस से देहरादून पहुंचने के बाद मैं अपनी पत्नी के साथ पहली बार उनसे मिलने पहुंचा था। संतोष वर्मा और मुझमें उम्र का बड़ा फासला था लेकिन संतोष वर्मा ने जिस गर्मजोशी से मुझे गले से लगाया वह अविस्मरणीय है। मैं चूंकि उनसे पहली बार मिल रहा था लिहाजा संकोच और औपचारिकता के चलते मैं सिर्फ हाथ मिला कर रह जाना चाहता था लेकिन संतोष जी ने हाथ मिलाने के बाद मुझसे कहा - ' नहीं  ऐसे नहीं।' इसके बाद संतोष जी ने मुझे गले से लगा लिया। आप जिससे पहली बार मिल रहे हों वो आपको यूं अपनाए ये कम होता है। हम मैंए मेरी पत्नी अलका और संतोष जी सर्द रात में देहरादून की उस सड़क पर थोड़ी देर तक बात करते रहे। चूंकि रात हो रही थी लिहाजा हम जल्द ही घर की और निकल गए। इसके बाद संतोष जी से अक्सर मुलाकात होती रही। संतोष जी भावुक थे औ

सुनो प्रदीप, अब तुम मार्क्स की सोच नहीं, पूंजीवाद के वाहक हो

ये शीर्षक न सिर्फ एक प्रदीप के लिए है बल्कि उन जैसे और मुझ जैसे तमाम प्रदीपों के लिए हैं जो ये सोचते हैं कि पत्रकार बन कर समाज को एक नई दिशा देंगे। अपनी बात लेकर आगे बढ़ूं इससे पहले आपको बता दूं कि आखिर ये प्रदीप हैं कौन। सामान्य कद, गोरा रंग, गोल चेहरा, गालों पर चिपकी ढाढ़ी, सदरी और जींस। इसके साथ ही आजकल मोटे फ्रेम का चश्मा आंखों पर है। ये हुलिया हम तमाम पत्रकारों को अपना सा लगता है। शायद हम ऐसा ही होना चाहते हैं। मन की बेचैनी आंखों के साथ साथ हाव भाव में भी झलक ही जाती है। दरअसल प्रदीप एक पत्रकार बनने की कोशिश में लगे हैं। प्रदीप को उनके सहयोगी कामरेड कहते हैं। प्रदीप को इस लेखन का आधार बनाने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं। प्रदीप युवा हैं, बेचैन हैं, जागरुक हैं। जैसे हम कभी हुआ करते थे। आठ साल के सफर में कई विशेषताएं दब सी गईं हैं। प्रदीप फिलहाल एक अखबार के नए संस्करण के साथ आगे बढ़ रहे हैं। जैसे कभी हम बढ़े थे। पत्रकारिता को मिशन मान कर प्रोफेशन के तौर पर अपनाया और फिर देखा कि अब सब कुछ कमीशन बेसिस पर हो गया है। हम जिस अखबार के साथ बढ़े, वो अखबार आगे बढ़ गया है और हम पीछे रह गए। प

हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं.

अरविंद केजरीवाल ने अब लगभग पूरी तरह से राजनीति में कदम रख दिया है। अब ऐसे में सवाल ये हैं कि भारतीय राजनीति के वर्तमान हालात में अरविंद केजरीवाल के सामने आखिर वो कौन सी चुनौतियां होंगी जिनसे वो आने वाले दिनों में दो चार होंगे।  भारतीय राजनीति में पिछले कुछ दिनों में साझा सरकारों का चलन हो गया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी के पास इतना जनाधार नहीं बचा कि वो अकेले दम पर बहुमत हासिल कर सके। दुनिया की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टियों में शामिल कांग्रेस भी अब ऐसी स्थिती में नहीं है कि वो भारत के आम आदमी का विश्वास पूरी तरह से जीत सके। सदस्यों के आधार पर देखें तो कांग्रेस दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन 2004 के आम चुनावों में कांग्रेस को महज 145 सीटें ही मिलीं। 2009 में कांग्रेस 206 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस को सत्ता में आने के लिए छोटे दलों का हाथ थामना पड़ा।  कुछ ऐसा ही हाल भारतीय जनता पार्टी का भी है। सत्ता का सुख बीजेपी को सहयोगियों के साथ बंटा हुआ ही मिला। यही नहीं बीजेपी को सियासी लहरों का इंतजार भी करना पड़ा ताकि वो केंद्र में आ सके। 1996 में बीजेपी

दिशाहीन होती जा रही है इलेक्ट्रानिक मीडिया

इ क्कीसवीं सदी के भारत में मीडियावी चश्मे से देखने पर अब दो हिस्से साफ नजर आते हैं। एक है भारत जो आज भी गांवों में बसता है और दूसरा है इंडिया जो चकाचैंध भरे शहरों में रहता है। मंथन का केंद्र बिंदु मीडिया की भूमिका हो तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक को अलग अलग कर लेना वैचारिक रूप से सहूलियत भरा हो सकता है। युवाओं के इस देश में जब स्मार्ट फोन और टेबलेट्स की समीक्षा के पाठक हमारी कृषि नीति से अधिक हो तो प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या हमने अपने लिए उचित देशकाल का निर्माण किया है? इस संबंध में प्रिंट मीडिया की भूमिका को लेकर चर्चा करना इतना उपयोगी नहीं है जितना न्यूज चैनलों की। चूंकि न्यूज चैनल अभी इस स्थिती में हैं कि वह अपनी दिशाहीनता को त्याग कर लक्ष्य निर्धारण कर सकें। इनका विस्तार अपने प्रारंभिक दौर में तो नहीं लेकिन बदले जा सकने के दौर में तो है ही। आ ज भी भारत के एक बड़े हिस्से में केबल नेटवर्किंग सिस्टम नहीं है। हां यह अवश्य है कि सेट टाॅप बाक्स आने के बाद गांवों में डिजिटल न्यूज चैनल पहुंच गए हैं। लेकिन जब पूरे विश्व की मीडिया स्थानीय खबरों को प्रमुखता से दिखाने के जन स्फूर्त नियम

संत तोड़े बाँध, सिस्टम तोड़े आस्था

गंगा की निर्मलता को लेकर इस देश में आज तक जितना पैसा खर्च हुआ है उसमें शायद उत्तराखंड में लगभग दस बड़े बांध बनाए जा सकते थे। इन बांधों से न्यूनतम 100 मेगावाट की बिजली भी पैदा होती तो कुल 1000 मेगावाट की बिजली इस प्रदेश को मिलती। इतनी बिजली के उत्पादन से उर्जा के क्षेत्र में उत्तराखंड को काफी हद तक निर्भरता मिल जाती। इसके बाद न सिर्फ हरिद्वार में बल्कि उत्तराखंड के कई और क्षेत्रों में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट को चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल जाती और गंगा को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। इससे पहाड़ के लोगों को रोजगार भी मिलता और पलायन पर रोक भी लगती। यही नहीं सिंचाई और पेयजल की समस्या से भी बहुत हद तक मुक्ति मिल सकती थी। जरा एक नजर डालते हैं गंगा एक्शन प्लान के दो चरणों में खर्च हुई रकम पर   1984 में शुरू हुए गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण में 462 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा गया।  1993 में मंजूर हुये गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण में लगभग 22 सौ करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा गया  सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण में उस वक्त पैदा हो र

उत्तराखंड की हिलती बुनियाद

उत्तरखंड देवभूमि है. लेकिन यह देवभूमि आजकल परेशानियों से जूझ रही है. ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में सब कुछ स्वर्ग सा सुंदर है और यहां की जनता को कोई परेशानी ही नहीं है। देवभूमि का स्याह सच तो ये है कि 13 जिलों और 70 विधानसभाओं वाले इस प्रदेश के कई इलाकों में मूलभूत सुविधाएं भी लोगों को मयस्सर नहीं हैं। पहाड़ों के बीच में बसे कई ऐसे इलाके हैं जिनमें बिजली, सड़क और पीने का पानी तक नहीं मिलता। लोगों को कहीं आने जाने में जबरदस्त दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जिन सड़कों को गांवों तक विकास की किरण लानी थीं वो खुद ही रास्ता भटक गईं। कुछ इलाकों में गिट्टी और तारकोल एक दूसरे में लिपटे तो दिख जाएंगे लेकिन सरकारी फाइलों के अलावा और कोई इन्हें सड़क मानने को तैयार नहीं होता।  पहाड़ों पर किसी तरह बस झूल भर रहे पुलों को देखकर और उनपर लोगों को आते जाते देख यकीन नहीं होता कि ये इक्कीसवीं सदी के भारत के गांव हैं। इन पुलों पर कभी कोई इलाकाई राजनीति का नुमाइंदा पांव नहीं रखता क्योंकि उसे गिर जाने का डर होता है। लेकिन वहां रहने वाले रोज ही ऐसे रास्तों से आते-जाते हैं। उत्तराखंड के कई गांव ऐसे हैं

माँ, मजबूरी और मौत