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देख दिनन के फेर...

भा रतीय मीडिया के लिए अरविंद केजरीवील कई माएनों में अहम हैं...भारतीय मीडिया मजबूत हो रही है और सृजन कर सकती है इसकी पुष्टि भी अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं.....भारतीय मीडिया भस्मासुर भी बना सकती है ये बात भी अरविंद केजरीवाल को देख कर पता चलती है... याद कीजिए वो दौर जब अरविंद केजरीवाल अन्ना के मंच पर टोपी पहने किनारे बैठे रहते थे...धीरे धीरे अरविंद केजरीवाल मंच के मध्य में अपनी जगह बनाते गए और अन्ना को किनारे लगाते गए.....सियासत में सुचिता की दुहाई देकर राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल पर सवाल कई बार उठे.....अरविंद केजरीवाल ने हर बार सवाल का जवाब कुछ ऐसे दिया कि मानों सवाल पूछना ही गलत हो....अब जब आधिकारिक तौर पर अरविंद केजरीवाल ने ये साफ कर दिया है कि उन्हें आलोचना पसंद नहीं तो ऐसे में ये भी तय हो जाता है कि मीडिया को अब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका में आना होगा.... इस बात में कोई दो राय नहीं कि 2013 और 2014 के अन्ना आंदोलनों की न्यूज चैनलों के जरिए हुई लगातार लाइव कवरेज से लाइमलाइट में आए अरविंद केजरीवाल ने हर मौके का भरपूर फायदा उठाया....सिद्धांतों की राजनीति का दावा करने व

जो गांव के प्रधान लायक नहीं वो विधायक बन गए...

क्या आपको पता है कि इस देश में एक धरना राज्य भी है। अगर जानकारी नहीं है तो खुद को अपडेट कर लीजिए। इस राज्य का नाम है उत्तराखंड। 8 नवंबर सन 2000 को जमीन का ये टुकड़ा उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक राज्य बना। पहले इसका नाम उत्तरांचल रखा गया और फिर बाद में बदल कर उत्तराखंड कर दिया गया। राज्य के फिलहाल के हालात देखने के बाद जब आपको ये बताया जाएगा कि इस राज्य को बनाने के लिए इस इलाके के लोगों ने एक मजबूत राजनीतिक तंत्र से लड़ाई लड़ी तो आपको हैरानी होगी है। उत्तरांचल कहिए, उत्तराखंड कहिए, पहाड़ों वाला प्रदेश कहिए या फिर धरने का प्रदेश कहिए, शिकायतों का प्रदेश कहिए। इस राज्य को लेकर जो सोच निर्माण के दौरान थी वो अब समाप्त हो चुकी है। उम्मीदों की जो गठरी पहाड़ी ढलानों से उतरकर लखनऊ की सड़कों तक पहुंची थी वो मानों कहीं गुम हो चुकी है। हो सकता है कि राज्य पूरे देश में एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था की नजीर के तौर पर उभर पाता लेकिन राज्य के मुस्तकबिल में कुछ और था। निर्माण के चौदह सालों में राज्य ने शिकायतों का ऐसा कारखाना लगाया कि हर गली से गिले शिकवे सुनाई देने लगे। राज्य में कौन ऐसा है (सिवाए

लिख दिया पेशावर

लिख दिया पेशावर दर्द, आंसू, चीख लिखना था सन्नाटा लिख दिया पेशावर । मौत, जुल्म, जिंदगी लिखना था जज्बात लिख दिया पेशावर । कॉपी, पेंसिल, हरा लिबास लिखना था इम्तहान लिख दिया पेशावर । जनाजा, कब्र, मय्यत लिखना था मातम लिख दिया पेशावर । बेबसी, बेसबब, बदहवास लिखना था बारूद लिख दिया पेशावर ।। 

आवाज उठेगी बरास्ता तुम्हारे

ब नारस में इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रारंभ से जुड़े रहने वाले वरिष्ठ  पत्रकार नरेश रुपानी जी के आक्समिक निधन से समूचा पत्रकार जगत स्तब्ध है। नरेश रुपानी जी बनारस के सबसे चर्चित टीवी पत्रकारों में से एक थे। प्रारंभ से ही बनारस की स्थानीय मीडिया से जुड़े रहने वाले नरेश रुपानी के नाम को संबोधित करने वाला हमेशा उन्हें रुपानी जी ही कहा करता था। रुपानी जी बनारस की टीवी पत्रकारिता के एक जाने माने चेहरे थे। उनका नाम जेहन में आते ही आंखों पर मोटा चश्मा लगाए , गले में मोबाइल लटकाए और हाथों में लेटर पैड लिए एक ऐसे शख्स की तस्वीर उभर कर सामने आती है जो किसी भी प्रेस कांफ्रेंस में आगे बैठना पसंद करता था। रुपानी जी न सिर्फ आगे बैठते थे बल्कि पूरे आत्मविश्वास के साथ बैठते थे। सवालों की एक लंबी लिस्ट उनके दिमाग में पहले से ही तैयार रहती थी। स्थानीय नेताओं से लगायत राष्ट्रीय नेताओं तक को घेरने के लिए रुपानी जी पूरी तैयारी से आते थे। यह वही शख्स कर सकता है जो हर मुद्दे पर अपनी मुख्तलिफ राय रखता हो। साथ ही जिसे हर विषय के बारे में जानकारी हो। रुपानी जी में वह सबकुछ था। बनारस में स्थानीय स्तर पर टीव

‘मौसेरे भाई‘ सब साथ आए

हैरानी नहीं हुई जब इस देश के तमाम राजनीतिक दल दागियों की परिभाषा तय करने और उन्हें बचाने के लिए एकजुट हो गए। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ही राजनीतिक हलकों में बेचैनी बढ़ गई थी। हमाम में नंगे होेने के लिए बेताब नेताओं ने आखिरकार बेशर्मी की सभी हदें पार कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद की सर्वोच्चता का हथियार चल दिया। सांसदों को लगता है कि जन प्रतिनिधी कैसा हो इसे चुनने का अधिकार सिर्फ जन प्रतिनिधियों को ही है। यही वजह है कि संसद में एक दूसरे पर चीखने चिल्लाने वाले सभी दलों के नेता इस परिस्थिती में एक हो चुके हैं। उन्हें पता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद की सर्वोच्चता का ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं हुआ तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में दागी सांसदों के आने का रास्ता बंद हो जाएगा।  10 जुलाई 2013 को लिली थामस, चुनाव आयोग, बसंत चैधरी और जनमूल्यों को समर्पित संस्था लोकप्रहरी के द्वारा दायर जनहित याचिका पर फैसला देते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ कर दिया कि दो वर्ष या उससे अधिक की सजा पाने वाले व्यक्तियांे को जनप्रतिनिधि नहीं बनाया जा सकता है। य

टुकड़ा टुकड़ा टूट रहा है मुलायम का सपना

यूपी के गौतम बु़द्ध नगर की एसडीएम दुर्गा शक्ति के निलंबन के बाद जिस तरह से अखिलेश सरकार घेरे में आई है उससे साफ हो चला है कि देश के सबसे बड़े सूबे में सपा की सरकार में मुख्यमंत्री अखिलेश से कहीं अधिक उनके रिश्तेदारों का प्रभाव है। गौतम बुद्ध नगर की एसडीएम दुर्गा शक्ति को अखिलेश सरकार ने निलंबित कर के यह साफ कर दिया है सूबे में ईमानदार अफसरों को काम नहीं करने दिया जाएगा। दुर्गा शक्ति को निलंबित करने के पीछे अखिलेश सरकार ने बड़ा अजीब तर्क दिया। पहली बार तो लगा कि सपा सरकार ने अपने बनने के बाद से हुए 27 दंगों से सबक ले लिया है लेकिन जल्द ही सच्चाई सामने आ गई। अखिलेश सरकार ने कहा कि गौतमबुद्ध नगर में एक मस्जिद की दिवार एसडीएम दुर्गा शक्ति ने गिरवाई है। इससे धार्मिक उन्माद पैदा होने का खतरा है लिहाजा एसडीएम को निलंबित करना जरूरी है। यूपी सरकार के इस फैसले के खिलाफ समूचे देश की नौकरशाही के एकजुट होने के बाद इस घटना के जांच के आदेश दिए गए। उसमें साफ हो गया कि दिवार एसडीएम ने नहीं गिरवाई। यहां एक और बात गौर करने वाली है। जिस दिवार को गिराए जाने को यूपी की समाजवादी सरकार सांप्रदायिक चश्मे से

बुरके में फाइटर हीरोइन

वह पूरी तरह बुरके से ढंकी हुई है. सिर्फ आंखें और उसकी अंगुलियां देखी जा सकती हैं. जिया पाकिस्तान की नई सुपर हीरोइन हैं. अपने दुश्मनों से लड़ते समय भी वह बुरके में ही रहती है. जिया पाकिस्तान की पहली एनिमेशन सीरीज की हीरोइन है. इस सीरीज में मुख्य किरदार एक महिला का है जो बुरके में अपने दुश्मनों से हाथ दो चार करती है. इसे बनाने वाले हारून रशीद देश में लड़कियों के लिए आदर्श किरदार डिजाइन करना चाहते हैं. अपनी लड़ाई के दौरान जिया किसी हथियार का नहीं बल्कि किताबों और पेंसिलों का इस्तेमाल करती है. डॉयचे वेले के साथ इंटरव्यू में हारून रशीद बताते हैं , " ये प्रतीक के तौर पर हैं कि पेन या कलम हमेशा तलवार से ताकतवर होती है. हम दर्शकों को दिखाना चाहते हैं कि पढ़ाई से कई समस्याएं हल हो सकती हैं." यह टीवी सीरियल 13 एपिसोड वाला है और 22 मिनट दिखाया जाता है. इसमें सुपर हीरोइन की कहानियां हैं जो रोजमर्रा में एक शिक्षक हैं. वह और उनके तीन छात्र काल्पनिक शहर हवालपुर से आते हैं. बुरका दमन का प्रतीक नहीं सीरियल की हीरोइन को बुरका पहनाना पाकिस्तान में पूरी तरह पसंद किया जा रहा हो , ऐस

केदारघाटी में अब उम्मीदें भी चीखने लगीं

इस मुल्क के रहनुमाओं से जितनी भी उम्मीदें थीं वह सब केदारघाटी के सैलाब में बह गईं। इंसानों की लाशों के बीच अब हमारी उम्मीदों की चीख भी सुनाई देने लगी है। इतना तो हमें पहले से पता था कि खद्दर पहनने वालों की सोच अब समाजिक उत्थान से बदलकर व्यक्तिगत उत्थान तक पहुंच गई है। लेकिन केदार घाटी में सैलाब के आने से लेकर अब जो कुछ भी सामने आ रहा है उससे लगता है कि इन रहनुमाओं को मौका मिले तो लाशों के अंगूठे पर स्याही लगाकर अपने नाम के आगे ठप्पा लगवा लेंगे। घिन आने लगी है अब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नुमांइदो से।  ‘देश‘ की जनता पत्थरों के नीचे दब रही है और नेता अपने ‘राज्य‘ के लोगों को बचाने के लिए कुत्तों की तरह लड़ रहे हैं। देहरादून मंे सिस्टम के सड़ने की बू तो बहुत पहले से आ रही थी लेकिन हमारे सिस्टम में कीड़े पड़ चुके हैं यह केदारघाटी में आए सैलाब के बाद पता चला। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आने के बाद एक-एक करके सियासी चोला ओढ़े कुकरमुत्ते देहरादून में पहुंचने लगे। उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए भले ही इनके राज्यों ने हेलिकाप्टर न भेजे हों लेकिन चुनावी तैयारी को ध्यान में रखकर अपने अपने

पहले आपदा ने मारा, अब सिस्टम मार रहा।

यह सच है कि उत्तराखंड में जिस तरह से प्राकृतिक आपदा आई है उसके  आगे सभी आपदा राहत के काम बौने ही है। आपदा प्रबंधन मंत्रालय की सोच से भी कहीं भयावह है यह आपदा। इसमें भी किसी को दो राय नहीं होगी कि इस आपदा से निबटने का काम अकेले उत्तराखंड की सरकार नहीं कर सकती है। पूरे देश को इस घड़ी में साथ खड़ा होना पड़ेगा। लेकिन इसी सब के बीच एक बात साफ है कि जितनी मौतें आपदा से नहीं हुई उससे कहीं अधिक मौतें हमारे अव्यवहारिक सिस्टम से हो रही है। सरकारें संवेदनशून्य होती जा रही हैं और मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों के पास आपदा प्रभावित लोगों के साथ वक्त बिताने का समय नहीं है। साफ है कि हमारा सिस्टम अगर ईमानदार कोशिश करता तो इस तबाही में मरने वालों का आंकड़ा बहुत कम होता।  उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जो प्राकृतिक रूप से बेहद संवेदनशील है। उत्तराखंड को यूपी से अलग होकर अलग राज्य बने हुए लगभग 12 साल हो रहे हैं। इन बारह सालों में बनी सरकारों को सूबे का विकास करने के लिए एक ही माध्यम दिखा और वो है राज्य की लगभग 65 फीसदी क्षेत्र में फैली वन व अन्य प्राकृतिक संपदा। जमकर और बेहद अवैज्ञानिक तरीके से प्रदेश म