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गौरी लंकेश को मार दिया गया, फिर बोधिसत्व की ये कविता क्या कह गई

गौरी लंकेश की हत्या के बाद बोधिसत्व की एक कविता  अपना   शुभ   लाभ   देख   कर   मैं   चुप   हूँ   गौरी   लंकेश एक   एक   कर   मारे   जा   रहे   हैं   लोग और   मैं   चुप   हूँ मैं   चुप   हूँ इसीलिए   किसी   भी खतरे   में   नहीं   मैं   गौरी   लंकेश  ? मैं   देख   नहीं   रहा   उधर लोग   मारे   जा   रहे   हैं   जिधर जिधर   जहाँ   आग   लगी   है जिधर   संताप   का   सुराज   है वह   दिशा   ओझल   है   मुझसे   । सुनों   गौरी   लंंकेश   । मैं   बोलूँगा   तो पद्मश्री   नहीं   मिलेगा   मुझे मैं   बोलूँगा   तो पुरस्कार   नहीं   मिलेगा   मुझे मैं   बोलूँगा   तो भारत   रत्न   नहीं   बन   पाऊँगा   । देखो   गौरी कितना सुखी   हूँ   और   सुरक्षित   हूँ   मैं   चुप   रह   कर कितना   उज्जवल   भविष्य   है   मेरा हर   दिशा   से   शुभ   और   लाभ   से   घिरा   हूँ   । और   कितना   बोलूँंगा हर   दिन   होगी   हत्या हत्यारे   कितने   कितने   हैं कितने   रूप   में अनूठे   और   सर्वव्यापी कण - कण   में   है   उनका   प्रभाव उत्तर   दक्षिण

वो महिला जो तीन तलाक की जंग जीत चुकी थी लेकिन राजीव गांधी ने उसे संसद में हरा दिया था

ये वाक्या सन 1978 का है। मध्य प्रदेश के एक वकील हुआ करते थे मोहम्मद अहमद खां। साहब हुजूर ने अपनी पहली शादी को 14 साल गुजारने के बाद दूसरी शादी कर ली।  बाद में अपनी पहली बीवी को तलाक दे दिया। अपने पांच बच्चों को लेकर ये महिला अपने पति से अलग हो गई। यही वो महिला थी जिसने तीन तलाक के खिलाफ सबसे पहले आवाज उठायी। इस महिला का नाम था शाह बानो।     नई शादी करने के बाद वकील अहमद ने कुछ दिनों तक शाह बानो को गुजारा भत्ता दिया। बाद में देना बंद कर दिया। शाह बानो उस वक्त साठ साल की उम्र पार कर चुकी थीं। शाह बानो ने गुजारा भत्ता के लिए निचली अदालत में अपील दायर की। ये 1978 की गर्मियों की बात रही होगी। वकील साहब ने इस्लाम की आड़ लेकर होशियारी दिखाई और शाह बानो को तीन तलाक दे दिया। इसके बाद अहमद खां ने कोर्ट से कहा कि अब वो उनकी बीवी हैं ही नहीं तो गुजारा भत्ता देने का सवाल ही नहीं उठता। हालांकि इसके बावजूद कोर्ट ने 1979 में अहमद खां को शाह बानो को भत्ता देने का आदेश सुनाया।  शाह बानो (pic by - scroll.in) 1980 में शाह बानो अपना भत्ता बढ़वाने के लिए एमपी हाइकोर्ट पहुंच गईं तो वकील अह

माटुंगा की खुशी बांटी जाए, फिर खुशी बढ़ाने की सोची जाए

महाराष्ट्र का माटुंगा रेलवे स्टेशन हाल में पूरी तरह से महिलाओं के हाथ में दे दिया गया। ये देश का ऐसा पहला रेलवे स्टेशन है जिसकी सभी व्यवस्थाएं महिलाओं के हाथ में होंगी। स्टेशन में गाड़ियों के आने जाने के समय के एनाउंसमेंट्स से लेकर यात्रियों के टिकट चेक करने तक के सभी काम महिलाओं के ही जिम्मे हैं। स्टेशन का कंट्रोल रूम भी महिलाएं संभालती हैं। टिकट काटने का काम भी महिलाओं के ही जिम्मे है। ये एक सुखद एहसास है। जिस देश में बच्चियों को गर्भ में मारने की प्रवृत्ति भी समाज में व्याप्त हो उसी देश में जब ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं तो किसी को भी सुखद एहसास स्वाभाविक है। माटुंगा को दिमाग में जब हरियाणा का ख्याल आता है तो मानों दिल ये सोचने को मजबूर हो जाता है कि यदि वहां गर्भ में मरने वाली बच्चियों को बचा लिया जाता तो शायद वो भी किसी 'माटुंगा' को संभाल रहीं होती। देश में महिला और पुरुषों में कई स्तरों में असंतुलन है। बच्चियों के साथ भेदभाव मां के गर्भ में ही शुरु हो जाता है। बच्चियों की स्कूलिंग का हाल भी देश में बुरा है। आंकड़े देने की आवश्यकता नहीं है। ये अब इतना गूढ़ विषय भी नह

हमारे 'सोशल' होने का साइड इफेक्ट है 'ब्लू व्हेल' का 'आदमखोर' होना

इन दिनों ब्लू व्हेल नाम के एक ऑनलाइन गेम की दहशत से पूरी दुनिया डरी हुई है। इस गेम के दिए टास्क पूरे करने के चक्कर में दुनिया भर में अब तक 130 लोगों की मौत हो चुकी है। ये गेम रशिया के एक मनोवैज्ञानिक ने ईजाद किया था। हालांकि वो इस समय जेल में है लेकिन उसका गेम आजाद है और लोगों की जान ले रहा है। दरअसल ब्लू व्हेल में पचास दिनों में पचास टास्क दिए जाते हैं। शुुरुआती टास्क आसान होते हैं लेकिन बाद के टास्क जान लेने वाले। इस खेल में खेलने वाले को अपनी जान अनोखे तरीके से लेने का टास्क दिया जाता है। दुनिया में इसी टास्क को पूरा करते हुए 130 लोग मर चुके हैं। भारत में भी इस खेल के टास्क पूरे करते समय मौतें रिकार्ड की जा चुकी हैं। सबसे पहला मामला मुंबई में एक छात्र का सामने आया था। इस खेल और सोशल नेटवर्किंग साइट्स का आपसी तालमेल समझना जरूरी है। दरअसल हम सोशल नेटवर्किंग साइट्स की जिस आभासी दुनिया में जीने लगे हैं, मौत के इस खेल ने इसे नेटवर्किंग साइट्स के जाल को सहारा बनाया। रशिया में एक सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए इसे लोगों तक पहुंचाया गया। धीरे धीरे मौत की नेटवर्किंग होती गई और ब्लू

एक पंद्रह अगस्त यहां भी मना लेकिन झंडा नहीं फहरा, बस चली ताकि बच्चियां स्कूल ना छोड़ें

कैसी कैसी दास्तां है इस देश में। अब यही दास्तां ले लीजिए जिसका जिक्र हम अपनी इस पोस्ट में करने जा रहें हैं। दरअसल राजस्थान के सीकर इलाके में एक डॉक्टर दंपत्ति ने इलाके में स्कूल जाने वाली लड़कियों को बस दी। डाक्टर दंपत्ति के लड़कियों के लिए बस उपलब्ध कराने के पीछे की वजह हमारे समाज के लिए कलंक है। फिर भी आपके लिए जानना जरूरी है। दरअसल डाक्टर आर पी यादव को किसी पारिवारिक काम से सीकर के नीम का थाना इलाके से आना जाना हुआ। कार से आते जाते उन्होंने मिट्टी से सने रास्तों पर स्कूल से लौटती बच्चियों को देखा। लड़कियों की परेशानी देखकर डाक्टर यादव ने कुछ बच्चियों को अपनी गाड़ी में लिफ्ट दे दी। रास्ते में बातचीत के दौरान पता चला कि इलाके की लड़कियों को मिट्टी से सने रास्ते पर चलने से बड़ी एक परेशानी का सामना करना पड़ता है। दरअसल स्कूल आने जाने के दौरान इन लड़कियों को छे़ड़खानी का सामना करना पड़ता। हालात ऐसे थे कि कई बच्चियों ने पढ़ाई तक छोड़ दी थी। डाक्टर साहब को ये बात अंदर तक चुभ गई। गाड़ी में बैठे बैठे डाक्टर साहब ने मानों प्रण ले लिया। बच्चियों को गाड़ी से उतारने के बाद डाक्टर जब घ

अगर ट्रैफिक वाला राष्ट्रपति का काफिला रोक दे तो क्या भारत बदल जाएगा

बंगलुरु से आई खबर जितनी सुखद लगती है उतनी ही दुखद भी। ये खबर दिल को तसल्ली देती है तो सवालों की पोटली भी पीठ पर लाद देती है। हालांकि कई लोगों को जब फेसबुक, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से इस खबर का पता चला तो उन्हें यकीन नहीं हुआ लेकिन अब आप यकीन कर लीजिए क्योंकि ये खबर सौ फीसदी सच है।  वाक्या इस पोस्ट को लिखने से ठीक पहले वाले शनिवार का है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी बंगलुरू में थे। उन्हें मेट्रो का उद्घाटन करना था। राष्ट्रपति को  राजभवन से कार्यक्रम स्थल तक सड़क मार्ग से जाना था। कार्यक्रम खत्म करके महामहिम का काफिला राजभवन को लौट रहा था। इसी बीच त्रिनिटी सर्किल पर तैनात ट्रैफिक पुलिस के एसआई एमएल निजलिंगप्पा ड्यूटी पर थे। निजलिंगप्पा को एक एंबुलेंस दिखाई दी। मैं तो कभी बंगलुरू गया नहीं लेकिन लोगों ने बताया और खबरों में पढ़ा कि वहां ट्रैफिक अधिक रहता है। इसी ट्रैफिक में एंबुलेंस भी थी। यही वक्त राष्ट्रपति के काफिले के गुजरने का भी था। निजलिंगप्पा की नजरें एंबुलेंस पर गईं। निजलिंगप्पा ने एंबुलेंस को रास्ता देना शुरु ही किया था कि राष्ट्रपति का काफिला आ गया, बस फिर क्या था। निज

नहीं सुधर रहें हैं हालात, गंगा पर सिर्फ हो रही है राजनीति

दिल्ली में बंगाल की सीमा पर फरक्का बांध के बहाने बिहार की तरफ आने वाले मलबे के कारण बढ़ते गाद, उत्तर बिहार में भीषण बाढ़ और दक्षिण बिहार में सूखे की समस्या को लेकर एक सेमिनार हुआ। बिहार सरकार के जल संसाधन मंत्रालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम बिहार के गंगा जन्य समस्याओं से जुड़े हुए विषय पर था। स्वनाम धन्य जल पुरुषों का जमावड़ा जो भारत के एनजीओ संस्कृति को पल्लवित, पुष्पित करते रहते हैं, उनके द्वारा अंत में निष्कर्ष स्वरूप यह कहकर सम्मेलन को समाप्त कर दिया गया कि नीतीश कुमार जी भारत के प्रधानमंत्री बनने के योग्य उम्मीदवार हैं। इससे यह संदेश गया कि ये सम्मेलन बिहार में बाढ़ एवं सूखे पर आयोजित था अथवा जिन एनजीओ की रोजी-रोटी एनडीए सरकार में बंद हो गई उनके द्वारा नीतीश कुमार जी को बहाला-फुसलाकर, प्रधानमंत्री का योग्य उम्मीदवार बताकर बिहार के अंदर अपनी जड़े जमाने की कोशिश तो नहीं। १९८० के दशक में गंगा मुक्ति आंदोलन जिसको सफदर इमाम कादरी रामशरण अनिल प्रकाश सरीखें समाजवादियों ने शुरू किया था और उसका निष्कर्ष गंगा जी में मछली मारने की स्वतंत्रता को लेकर समाप्त हुआ। कहीं समाजवादियों का आ

रहें होंगे पत्रकार कभी नारद लेकिन अब शकुनि हो गए हैं

जरूरी नहीं है कि जिसकी उम्र और अनुभव अधिक हो जाए वो अपने बाल्यकाल की तुलना में अधिक पूजनीय हो जाए। भारतीय पत्रकारिता के साथ भी कमोबेश यही स्थिती है। 30 मई 1826 में कोलकाता के कालू टोला मोहल्ले में पंडित जुगल किशोर ने जब उदन्त मार्तण्ड शुरु किया तो उन्हें नहीं पता रहा होगा कि 188 साल बाद उनका अखबार मीडिया की शक्ल ले लेगा। सामाजिक विमर्श से आगे बढ़कर कॉपरेट कल्चर में बदल जाएगा। खबरें पेड होंगी। सत्ता के समीप और जनता से दूरी बढ़ती जाएगी। प्रेस कॉउंसिल ऑफ इंडिया भले कहे कि अखबारों में विज्ञापन का अनुपात खबरों से कम होना चाहिए लेकिन कौन कहा माने। टीवी चैनल वाले तो उदंत मार्तण्ड की जयंती को पुण्यतिथि में ही बदल देंगे। दरबार और दरबारी काल की मूल प्रेरणा से लबालब चैनल वाले सिर्फ वही गाएंगे और बजाएंगे तो उनके आका को पंसद होगा। लाइजनिंग के लिए बकायदा पूरी एक टीम रखी जाएगी और कॉरपोरेट लॉबी और सरकारी गलियारों के बीच संबंधों की कड़ी बनाई जाएगी। इसके बदले मोटी रकम वसूली जाएगी। राजनीतिक पार्टियों की सैंद्धांतिक विचार विमर्श के आधार पर आलोचना की पंरपरा को त्याग कर पैकेज के आधा

भारतीय मीडिया के लिए ही नहीं, ये संकट लोकतंत्र की विश्वसनीयता का भी है

ये रिपोर्ट हैरान करने वाला कतई नहीं है। सांप बिच्छू दिखाते दिखाते भारतीय मीडिया नेताओं के भाषणों को लाइव दिखाने तक तो पहुंची। ये विकास नहीं है तो क्या है? अब भला कौन कहेगा कि ये देश संपेरों का देश है? कम से भारतीय मीडिया के सहारे इस देश के बारे में अपनी राय बनाने वाले तो नहीं ही कहेंगे। अब ये नेताओं का देश है। दरअसल रिपोर्ट्स विद्आउट बार्डर्स संघठन के जरिए तैयार वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रिपोर्ट आने के बाद ये पता चला कि साल 2017 में भारतीय मीडिया अन्य देशों के साथ रैंकिंग में 136वें स्थान पर है। कुल 180 देशों की रैंकिंग की गई इसमें भारत 2016 की तुलना में 3 स्थान लुढ़क कर 136वें स्थान पर आ चुका है। हालांकि ये सर्वे मुख्य रूप से प्रेस की स्वतंत्रता को लक्ष्य करके किया जाता है लेकिन इस सर्वे का एक पहलु ये भी है कि ये रैंकिंग मीडिया के स्वतंत्र आकलन और व्यवहार को भी प्रदर्शित करती है। रैंकिन गिरने का अर्थ है कि भारतीय मीडिया का व्यवहार स्वतंत्र नहीं रह गया है या फिर यूं कहें कि भारतीय मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर समाचार लिख और दिखा रही है। भारतीय मीडिया के ल

तीन हेलिकॉप्टरों के काफिले में चलते प्रधानमंत्री और ठेले पर लदी गर्भवती।

इस देश के बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इस देश का प्रधानमंत्री आसमान में भी तीन हेलिकॉप्टरों के काफिले के साथ चलता है। यही प्रधानमंत्री इस काफिले में शामिल एक हेलीकॉप्टर से उतरकर एक विशाल मंच पर आता है और गरीबों के लिए एक नई योजना के शुरु होने की घोषणा करता है और फिर हेलीकॉप्टरों के काफिले के साथ उड़ जाता है। इस देश में 2011 के आं कड़ो के मुताबिक तकरीबन छह लाख से अधिक गांव हैं। इन गांवों में देश की 68 फीसदी के करीब जनता रहती है। इन्हीं आंकड़ों में एक ये भी है कि 44 हजार के करीब गांव विरान हो चुके हैं। देश के लिए गांवों का विरान हो जाना न कोई खबर है और न ही नीति निर्माताओं के लिए शोध का विषय। इस देश की आबादी का तकरीबन 16 फीसदी हिस्सा आदिवासियों का है। इनमें से लगभग 11 फीसदी के करीब आदिवासी गांवों में ही रहते हैं। देश के विकास की अधिकतर योजनाओं में इस 16 फीसदी आबादी का हिस्सा कम ही होता है। कम से कम कैशलेस होते भारतीय समाज की अवधारणा में तो इन आदिवासियों को फिट करने में बड़ी मुश्किल हो रही है। हालांकि पीने के साफ पानी, अपने निवास के करीब ही स्वास्थय सेवाओं क