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दिसंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है

एक शहर जिसकी पहचान महज घंटे और घड़ियालों से नहीं मंदिर के शिखर और उनपर बैठे परिंदों से नहीं यहाँ ज़िन्दगी ज़ज्बातों से चलती है अविरल, अविनाशी माँ की लहरों पर मचलती है शहर अल्लहड़ कहलाता है ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है यकीनन इसके सीने पर एक ज़ख़्म मिला है कपूर की गंध में बारूद घुला है एक सुबह सूरज सकपकाया सा है गंगा पर खौफ का साया भी है किनारों पर लगी छतरियो के नीचे एक अजीब सी तपिश है सीढ़ियों पर लगे पत्थर कुछ सख्त से हैं डरे- सहमे तो दरख्त भी हैं तभी अचानक एक गली से एक आवाज़ आती है महादेव देखो, दहशत कहीं दूर सिमट जाती है घरों से अब लोग निकल आयें हैं उजाले वो अपने साथ लायें हैं चाय की दुकानों पर अब भट्ठियां सुलग रहीं हैं पान की दुकानों पर चूने का कटोरा भी खनक रहा है देखो, ये शहर अपनी रवानगी में चल रहा है सुनो, उसने पुछा था इस शहर की मिट्टी मिट्टी है या पारस लेकिन उससे पहले दुआ है यही की बना रहे बनारस बना रहे बनारस .

कैसी रही चाय साहब?

>> धमाके के वक़्त पुलिस के बड़े अफसर के घर चल रहा था जश्न. यह सवाल आपको कुछ अटपटा सा ज़रूर लग सकता है लेकिन सवाल जायज है. दरअसल ये सवाल इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मंगलवार 6 दिसम्बर को जिस वक़्त वाराणसी के शीतला घाट पर बम धमाका हुआ ठीक उसी समय जिले के आला अफसर चाय पार्टी में व्यस्त थे. आप को हैरानी होगी ये जानकार कि ये चाय पार्टी दी किस ख़ुशी में गयी थी. दरअसल 6 दिसम्बर की बरसी शहर में शांतिपूर्वक बीत गयी इसका जश्न मनाया जा रहा था. शहर पुलिस महकमे के सबसे बड़े अफसर के बंगले पर इस पार्टी का आयजन किया गया था. बाकायदा पत्रकारों को फ़ोन करके इस पार्टी में बुलाया गया था. खुद एसपी सिटी ने मेरे एक पत्रकार मित्र को फ़ोन किया और चाय पार्टी का निमंत्रण दिया. कारण बताया कि 6 दिसम्बर की बरसी शांति पूर्वक बीत गयी इसलिए जश्न मानेगे. कोशिश थी कि अपनी पीठ खुद ठोक ली जाये. यानी साफ़ है कि 6 दिसम्बर बीत जाने के बाद सभी अधिकारिओं ने मान लिया था कि अब कुछ नहीं होने वाला है. इसी लापरवाही का फायदा उठा लिया इंडियन मुजाहिदीन ने. सूत्रों की हवाले से ख़बर है कि लास्ट के एक दिन पहले तीन संदिग्ध लोग इस इलाक