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अप्रैल, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हमें ग़ुस्सा क्यों आता है ?

कुछ लोगों को औरों की अपेक्षा जल्दी ग़ुस्सा आता है और कई लोगों को तो इतना तेज़ ग़ुस्सा आता है कि वो सभ्यता की सभी सीमाएं लांघ जाते हैं.एक नए शोधकार्य का निष्कर्ष है कि कुछ लोगों को ऐसा ग़ुस्सा उनके मस्तिष्क में कुछ ख़राबी की वजह से आता है.अमरीकी मनोवैज्ञानिकों की राय में ग़ुस्से में नियंत्रण खो बैठने वाले लोग, या वो पुरुष जो अपनी पत्नी के साथ हिंसक व्यव्हार करते हैं, अपने मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन की वजह से ऐसा करते हैं.एक लंबे अरसे से डॉक्टर ये भी कहते रहे हैं कि सिर पर लगी चोटें भी इस प्रकार के ग़ुस्से का एक कारण हो सकती हैं.लेकिन पहली बार अनियंत्रित ग़ुस्से को मस्तिष्क के काम करने के तरीक़े से जोड़ कर देखा जा रहा है.अमरीका में चिलड्रेन्स हॉस्पिटल ऑफ़ फ़िलेडेल्फ़िया के वैज्ञानिकों ने इस बारे में एक महत्वपूर्ण खोज की है.इन वैज्ञानिकों ने ऐसे मनोरोगियों के मस्तिष्क का अध्ययन किया जो इंटरमिटंट एक्सप्लोज़िव डिसऑर्डर (आईईडी) से पीड़ित हैं.इस बीमारी से ग्रस्त लोगों को अनजाने में अनियंत्रित ग़ुस्सा आ जाता है. कई बार हम देखते हैं कि भीड़ भरी गाड़ी में या लंबी क़तार में लगे कुछ लोग आसानी स

कौन ज्यादा अस्वस्थ है - जॉर्ज फर्नांडिस या संसदीय राजनीति?

नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान का साथ छोड़कर आये गुलाम रसूल बलियावी का हाथ आपने हाथ में लेकर जैसे ही उन्हें जनतादल यूनाईटेड में शामिल करने का ऐलान किया वैसे ही दीवार पर टंगे तीन बोर्ड में से एक नीचे आ गिरा। गिरे बोर्ड में तीर के निशान के साथ जनतादल यूनाइटेड लिखा था। बाकी दो बोर्ड दीवार पर ही टंगे थे, जिसमें बांयी तरफ के बोर्ड में शरद यादव की तस्वीर थी तो दांयी तरफ वाले में नीतीश कुमार की तस्वीर थी। जैसे ही एक कार्यकर्ता ने गिरे हुये बोर्ड को उठाकर शरद यादव और नीतीश कुमार के बीच दुबारा टांगा, वैसे ही कैमरापर्सन के हुजूम की हरकत से वह बोर्ड एकबार फिर गिर गया। इस बार उस बोर्ड को टांगने की जल्दबाजी किसी कार्यकर्ता ने नहीं दिखायी। पता चला इस बोर्ड को 2 अप्रैल की सुबह ही टांगा गया था। इससे पहले वर्षों से दीवार पर शरद यादव और नीतीश कुमार की तस्वीर के बीच जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीर लगी हुई थी। और तीन दिन पहले ही शरद यादव की प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान पत्रकारों ने जब शरद यादव से पूछा था कि जॉर्ज की तस्वीर लगी रहेगी या हट जायेगी तो शरद यादव खामोश रह गये थे।लेकिन 30 मार्च को शरद यादव के बाद 2 अप्र

ममता की गली में वामपंथ के विकल्प की खोज

कालीघाट की मुख्य सड़क छोड़कर गाड़ी जैसे ही हरीश चटर्जी लेन की पतली सी सड़क में घुसी.....मुहाने पर दस बाय दस के एक छोटे से कमरे में ममता बनर्जी का एक बड़े पोस्टर को कैनवास पर रंगता पेंटर दिखा। बेहद मगन होकर इस्माइल तृणमूल कांग्रेस के चुनाव चिन्ह 'तीन पत्तियों' में उस वक्त जामुनी-गुलाबी रंग को उकेर रहा था। ड्राइवर इशाक ने बताया, यह ममता की गली है। संकरी गली । इतनी संकरी की सामने से कोई भी गाड़ी आ जाये तो एक साथ दो गाड़ियों का निकलना मुश्किल है।ममता की गली के किनारे पर पेंटर की दुकान है तो हाजरा चौक पर निकलती इस गली के दूसरे छोर पर परचून की दुकान है। जहां दोपहरी में अतनू दुकान चलाता है। बीरभूम में बाप की पुश्तैनी जमीन थी, जिसे कभी सरकार ने कब्जे में ले लिया तो कभी कैडर ने भूमिहीनों के पक्ष में आवाज उठाकर कब्जा किया। स्थिति बिगड़ी तो इस परिवार को कलकत्ता का रुख करना पड़ा। ये परिवार कालीघाट में दो दशक पहले आकर बस गया । हरीश चन्द्र लेन यानी ममता गली में ऐसा कोई घर नहीं है, जिसके पीछे दर्द या त्रासदी ना जुड़ी हो। बेहद गरीब और पिछड़े इलाके में इस मोहल्ले का नाम शुमार है। सवाल है कि इसक