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हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं.

अरविंद केजरीवाल ने अब लगभग पूरी तरह से राजनीति में कदम रख दिया है। अब ऐसे में सवाल ये हैं कि भारतीय राजनीति के वर्तमान हालात में अरविंद केजरीवाल के सामने आखिर वो कौन सी चुनौतियां होंगी जिनसे वो आने वाले दिनों में दो चार होंगे।  भारतीय राजनीति में पिछले कुछ दिनों में साझा सरकारों का चलन हो गया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी के पास इतना जनाधार नहीं बचा कि वो अकेले दम पर बहुमत हासिल कर सके। दुनिया की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टियों में शामिल कांग्रेस भी अब ऐसी स्थिती में नहीं है कि वो भारत के आम आदमी का विश्वास पूरी तरह से जीत सके। सदस्यों के आधार पर देखें तो कांग्रेस दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन 2004 के आम चुनावों में कांग्रेस को महज 145 सीटें ही मिलीं। 2009 में कांग्रेस 206 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस को सत्ता में आने के लिए छोटे दलों का हाथ थामना पड़ा।  कुछ ऐसा ही हाल भारतीय जनता पार्टी का भी है। सत्ता का सुख बीजेपी को सहयोगियों के साथ बंटा हुआ ही मिला। यही नहीं बीजेपी को सियासी लहरों का इंतजार भी करना पड़ा ताकि वो केंद्र में आ सके। 1996 में बीजेपी

दिशाहीन होती जा रही है इलेक्ट्रानिक मीडिया

इ क्कीसवीं सदी के भारत में मीडियावी चश्मे से देखने पर अब दो हिस्से साफ नजर आते हैं। एक है भारत जो आज भी गांवों में बसता है और दूसरा है इंडिया जो चकाचैंध भरे शहरों में रहता है। मंथन का केंद्र बिंदु मीडिया की भूमिका हो तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक को अलग अलग कर लेना वैचारिक रूप से सहूलियत भरा हो सकता है। युवाओं के इस देश में जब स्मार्ट फोन और टेबलेट्स की समीक्षा के पाठक हमारी कृषि नीति से अधिक हो तो प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या हमने अपने लिए उचित देशकाल का निर्माण किया है? इस संबंध में प्रिंट मीडिया की भूमिका को लेकर चर्चा करना इतना उपयोगी नहीं है जितना न्यूज चैनलों की। चूंकि न्यूज चैनल अभी इस स्थिती में हैं कि वह अपनी दिशाहीनता को त्याग कर लक्ष्य निर्धारण कर सकें। इनका विस्तार अपने प्रारंभिक दौर में तो नहीं लेकिन बदले जा सकने के दौर में तो है ही। आ ज भी भारत के एक बड़े हिस्से में केबल नेटवर्किंग सिस्टम नहीं है। हां यह अवश्य है कि सेट टाॅप बाक्स आने के बाद गांवों में डिजिटल न्यूज चैनल पहुंच गए हैं। लेकिन जब पूरे विश्व की मीडिया स्थानीय खबरों को प्रमुखता से दिखाने के जन स्फूर्त नियम

संत तोड़े बाँध, सिस्टम तोड़े आस्था

गंगा की निर्मलता को लेकर इस देश में आज तक जितना पैसा खर्च हुआ है उसमें शायद उत्तराखंड में लगभग दस बड़े बांध बनाए जा सकते थे। इन बांधों से न्यूनतम 100 मेगावाट की बिजली भी पैदा होती तो कुल 1000 मेगावाट की बिजली इस प्रदेश को मिलती। इतनी बिजली के उत्पादन से उर्जा के क्षेत्र में उत्तराखंड को काफी हद तक निर्भरता मिल जाती। इसके बाद न सिर्फ हरिद्वार में बल्कि उत्तराखंड के कई और क्षेत्रों में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट को चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल जाती और गंगा को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है। इससे पहाड़ के लोगों को रोजगार भी मिलता और पलायन पर रोक भी लगती। यही नहीं सिंचाई और पेयजल की समस्या से भी बहुत हद तक मुक्ति मिल सकती थी। जरा एक नजर डालते हैं गंगा एक्शन प्लान के दो चरणों में खर्च हुई रकम पर   1984 में शुरू हुए गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण में 462 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा गया।  1993 में मंजूर हुये गंगा एक्शन प्लान के दूसरे चरण में लगभग 22 सौ करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान रखा गया  सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक गंगा एक्शन प्लान के पहले चरण में उस वक्त पैदा हो र

उत्तराखंड की हिलती बुनियाद

उत्तरखंड देवभूमि है. लेकिन यह देवभूमि आजकल परेशानियों से जूझ रही है. ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में सब कुछ स्वर्ग सा सुंदर है और यहां की जनता को कोई परेशानी ही नहीं है। देवभूमि का स्याह सच तो ये है कि 13 जिलों और 70 विधानसभाओं वाले इस प्रदेश के कई इलाकों में मूलभूत सुविधाएं भी लोगों को मयस्सर नहीं हैं। पहाड़ों के बीच में बसे कई ऐसे इलाके हैं जिनमें बिजली, सड़क और पीने का पानी तक नहीं मिलता। लोगों को कहीं आने जाने में जबरदस्त दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जिन सड़कों को गांवों तक विकास की किरण लानी थीं वो खुद ही रास्ता भटक गईं। कुछ इलाकों में गिट्टी और तारकोल एक दूसरे में लिपटे तो दिख जाएंगे लेकिन सरकारी फाइलों के अलावा और कोई इन्हें सड़क मानने को तैयार नहीं होता।  पहाड़ों पर किसी तरह बस झूल भर रहे पुलों को देखकर और उनपर लोगों को आते जाते देख यकीन नहीं होता कि ये इक्कीसवीं सदी के भारत के गांव हैं। इन पुलों पर कभी कोई इलाकाई राजनीति का नुमाइंदा पांव नहीं रखता क्योंकि उसे गिर जाने का डर होता है। लेकिन वहां रहने वाले रोज ही ऐसे रास्तों से आते-जाते हैं। उत्तराखंड के कई गांव ऐसे हैं

माँ, मजबूरी और मौत

Ganga Basin par baithak part-1

फंस सकते हैं तरुन विजय

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फंस सकते हैं तरुण विजय