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दिशाहीन होती जा रही है इलेक्ट्रानिक मीडिया

इ क्कीसवीं सदी के भारत में मीडियावी चश्मे से देखने पर अब दो हिस्से साफ नजर आते हैं। एक है भारत जो आज भी गांवों में बसता है और दूसरा है इंडिया जो चकाचैंध भरे शहरों में रहता है। मंथन का केंद्र बिंदु मीडिया की भूमिका हो तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक को अलग अलग कर लेना वैचारिक रूप से सहूलियत भरा हो सकता है। युवाओं के इस देश में जब स्मार्ट फोन और टेबलेट्स की समीक्षा के पाठक हमारी कृषि नीति से अधिक हो तो प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या हमने अपने लिए उचित देशकाल का निर्माण किया है? इस संबंध में प्रिंट मीडिया की भूमिका को लेकर चर्चा करना इतना उपयोगी नहीं है जितना न्यूज चैनलों की। चूंकि न्यूज चैनल अभी इस स्थिती में हैं कि वह अपनी दिशाहीनता को त्याग कर लक्ष्य निर्धारण कर सकें। इनका विस्तार अपने प्रारंभिक दौर में तो नहीं लेकिन बदले जा सकने के दौर में तो है ही। आ ज भी भारत के एक बड़े हिस्से में केबल नेटवर्किंग सिस्टम नहीं है। हां यह अवश्य है कि सेट टाॅप बाक्स आने के बाद गांवों में डिजिटल न्यूज चैनल पहुंच गए हैं। लेकिन जब पूरे विश्व की मीडिया स्थानीय खबरों को प्रमुखता से दिखाने के जन स्फूर्त नियम

भाषाई आन्दोलन खड़ा करे मीडिया

पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से मीडिया ने अपने पाँव पसारे हैं उससे साथ ही लोगों की मीडिया से उम्मीदें बढ़ी हैं ... अब मीडिया को ख़बरों को दिखाने के साथ कुछ और जिम्मेदारियों को भी उठाना होगा ... पिछले दिनों एक सवाल सामने आया कि क्या मीडिया भाषाई आन्दोलन खड़ा करने का माध्यम बन सकती है ? हालाँकि इस सवाल का जवाब ढूँढने से पहले हमें इस बात पर ज़रूर विमर्श कर लेना चाहिए कि आखिर भाषा है क्या ? क्या भाषा महज अपनी भावनाओ को व्यक्त करने का जरिया मात्र है ? प्रख्यात साहित्यकार काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास ' अपना मोर्चा ' में इस बारे में कुछ लाईने लिखी हैं उनका यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा ...' भाषा का अर्थ हिंदी या अंग्रेजी नहीं है ... भाषा का अर्थ है जीने कि पद्यती , जीने का ढंग ..... भाषा यानि जनतान्त्रिक अधिकारों कि भाषा , आज़ादी और सुखी जिंदगी के हक कि भाषा ... ..' यह पंक्तियाँ बताती हैं हैं कि किसी समाज के लिए भाषा का क्या महत्व है ...