एक शहर जिसकी पहचान महज घंटे और घड़ियालों से नहीं मंदिर के शिखर और उनपर बैठे परिंदों से नहीं यहाँ ज़िन्दगी ज़ज्बातों से चलती है अविरल, अविनाशी माँ की लहरों पर मचलती है शहर अल्लहड़ कहलाता है ये तो दर्द में भी मुस्कुराता है यकीनन इसके सीने पर एक ज़ख़्म मिला है कपूर की गंध में बारूद घुला है एक सुबह सूरज सकपकाया सा है गंगा पर खौफ का साया भी है किनारों पर लगी छतरियो के नीचे एक अजीब सी तपिश है सीढ़ियों पर लगे पत्थर कुछ सख्त से हैं डरे- सहमे तो दरख्त भी हैं तभी अचानक एक गली से एक आवाज़ आती है महादेव देखो, दहशत कहीं दूर सिमट जाती है घरों से अब लोग निकल आयें हैं उजाले वो अपने साथ लायें हैं चाय की दुकानों पर अब भट्ठियां सुलग रहीं हैं पान की दुकानों पर चूने का कटोरा भी खनक रहा है देखो, ये शहर अपनी रवानगी में चल रहा है सुनो, उसने पुछा था इस शहर की मिट्टी मिट्टी है या पारस लेकिन उससे पहले दुआ है यही की बना रहे बनारस बना रहे बनारस .
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर