मीडिया के बढ़ते कदमो ने कई बदलाव लायें हैं. लेकिन कुछ बदलाव तो ऐसे हैं जिनके बारे में आमतौर पर सोचा नहीं जा सकता है. अब गालियों को ही ले लीजिये. गालियों में कितना कुछ बदल गया है. नयी नयी तरह की गालियाँ आ गयी हैं. जिन्हें सुनकर आप अपने को आनंदित महसूस करते हैं. गालियों के साथ सबसे बड़ी खासियत ये है कि किसको कौन सी गाली कब लग जाएगी, यह आप पहले से नहीं तय कर सकते. कोई साले से ही बिदक जाता है और कोई माँ बहन करने पर भी नहीं संभलता. ये गाली की माया है. देश के जाने- माने सहित्यकार काशीनाथ सिंह ने इन गालियों को अपनी किताब में भी बेधड़क प्रयोग किया है. किताब के पन्नों पर आने के बाद इन गालियों ने ऐसा चोला बदला कि सामाजिक परिवेश इनके बिना अधूरा लगेगा. ये है गालियों की विशेषता. लेकिन आजकल यही गालियाँ अपने मौलिक स्वरुप को बचाने के लिए गुहार लगा रहीं हैं. वह चाह रहीं हैं कि लोग इन गालियों का सही उच्चारण शुरू करे ताकि इनका आस्तित्व बना रहे.
गालियों के स्वरुप में परिवर्तन का एहसास तब से हुआ जब से छोटे पर्दे पर लाफ्टर शो शरू हुए. गंभीर अर्थो वाली गालियों के साथ प्रयोग शुरू हुए और गालियाँ बिगड़ गयीं. अब तेरी माँ की ...... कि जगह ले ली तेरी माँ का साकी नाका ने. अब भला यह कौन सी गाली हुयी. ना कोई पंच ना कोई कोई ह्यूमर. इस गाली को सुनने के बाद सुनने वाले के मन में कोई भाव आ ही नहीं सकता. इसी गाली को कुछ लोग कहते हैं तेरी माँ की आंख. अब भला आप ही बताइए कि इस तरह की गाली देने का क्या मतलब हुआ. भईया जो गाली, गाली की तरह लगे वो दो ना. छोटा पर्दा एक बड़ी चीज़ संभालता है जिसका नाम है राखी सावंत. ये देवी इन्साफ करती हैं. इन्साफ कम हल्ला ज्यादा करती हैं. इनके शो पर जो लोग आतें हैं उनके बीच गाली- गलौज सौ फ़ीसदी तय होता है. कुछ कमी होती है तो स्वयं राखी सावंत उसे पूरा करती हैं. लेकिन राखी भी जो गालियां देती हैं वो दमदार नहीं होती. उनमे हल्का पन होता है. इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि राखी को आज तक किसी ने भी मारा नहीं है. अब ऐसी गाली का क्या हासिल जिसको देने के बाद मारपीट ना हो. कौन समझाए इन टी वी वालों को.
बड़े पर्दे वाले भी कम नहीं हैं. इनकी भी फट जाती है गाली को सही तरीके से उसके मूल रूप में दिखाने सुनाने में. ठीक से गाली भी नहीं दे पाते. अगर दिया भी तो वहां बीप- बीप करने लगते हैं. अब भला इसका क्या मतलब हुआ. जनता ने पैसा दिया है गाली सुनने का, सुनाओ. लगते हैं बीप बीप सुनाने.
गालियाँ किसी वाक्य को बेहद आत्मीय बनाती हैं. दो लोग जो हमेशा गाली से अपनी बातों की शुरुआत करते हैं उनमे अपनापन होता है. लेकिन आजकल जिस तरीके से गाली का बंटाधार हुआ है उस ने तो गालियों की पूरी परिभाषा ही बदल दी. उनका मन्तव ही बदल गया. गंभीरता नाम की तो चीज़ ही इन गालियों में नहीं रह गयी.
दुनिया का सबसे पुराना जीवंत शहर बनारस तक गालियों की क्राइसिस से जूझ रहा है. कभी गालियों का पूरा कवि सम्मेलन कराने वाला बनारस नयी गालियाँ तलाश रहा है. क्योंकि पुरानी गालियों का रूप बदल गया है और उनकी मारक क्षमता भी कम हो गयी है. पहले जिस गाली को देने की लिए मुंह बनाने भर से अगला पिनक जाता था अब चार बार पूरी गाली बक दीजिये कोई असर नहीं पड़ने वाला. क्या करेंगे अब जब राखी सावंत ही गाली देने लगेंगी तो किसी के ऊपर क्या ख़ाक असर पड़ेगा. गालियाँ बदल गयीं हैं और इनको बोलने वाले लोग भी बदल गएँ हैं. लेकिन इसके कारण सबसे बड़ा नुकसान जो हुआ है वो उन लोगों का हुआ है जो इन गालियों को शिद्दत से जीते थे. उन लोगों का हुआ है जिनके कई काम इन्ही गालियों ने करवा दिए थे. या तो उन्होंने गाली खा कर यह काम किये या फिर गाली देकर लेकिन अफ़सोस कि अब गरियाते हैं तो भी फरियाता नहीं है.
गालियों के स्वरुप में परिवर्तन का एहसास तब से हुआ जब से छोटे पर्दे पर लाफ्टर शो शरू हुए. गंभीर अर्थो वाली गालियों के साथ प्रयोग शुरू हुए और गालियाँ बिगड़ गयीं. अब तेरी माँ की ...... कि जगह ले ली तेरी माँ का साकी नाका ने. अब भला यह कौन सी गाली हुयी. ना कोई पंच ना कोई कोई ह्यूमर. इस गाली को सुनने के बाद सुनने वाले के मन में कोई भाव आ ही नहीं सकता. इसी गाली को कुछ लोग कहते हैं तेरी माँ की आंख. अब भला आप ही बताइए कि इस तरह की गाली देने का क्या मतलब हुआ. भईया जो गाली, गाली की तरह लगे वो दो ना. छोटा पर्दा एक बड़ी चीज़ संभालता है जिसका नाम है राखी सावंत. ये देवी इन्साफ करती हैं. इन्साफ कम हल्ला ज्यादा करती हैं. इनके शो पर जो लोग आतें हैं उनके बीच गाली- गलौज सौ फ़ीसदी तय होता है. कुछ कमी होती है तो स्वयं राखी सावंत उसे पूरा करती हैं. लेकिन राखी भी जो गालियां देती हैं वो दमदार नहीं होती. उनमे हल्का पन होता है. इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि राखी को आज तक किसी ने भी मारा नहीं है. अब ऐसी गाली का क्या हासिल जिसको देने के बाद मारपीट ना हो. कौन समझाए इन टी वी वालों को.
बड़े पर्दे वाले भी कम नहीं हैं. इनकी भी फट जाती है गाली को सही तरीके से उसके मूल रूप में दिखाने सुनाने में. ठीक से गाली भी नहीं दे पाते. अगर दिया भी तो वहां बीप- बीप करने लगते हैं. अब भला इसका क्या मतलब हुआ. जनता ने पैसा दिया है गाली सुनने का, सुनाओ. लगते हैं बीप बीप सुनाने.
गालियाँ किसी वाक्य को बेहद आत्मीय बनाती हैं. दो लोग जो हमेशा गाली से अपनी बातों की शुरुआत करते हैं उनमे अपनापन होता है. लेकिन आजकल जिस तरीके से गाली का बंटाधार हुआ है उस ने तो गालियों की पूरी परिभाषा ही बदल दी. उनका मन्तव ही बदल गया. गंभीरता नाम की तो चीज़ ही इन गालियों में नहीं रह गयी.
दुनिया का सबसे पुराना जीवंत शहर बनारस तक गालियों की क्राइसिस से जूझ रहा है. कभी गालियों का पूरा कवि सम्मेलन कराने वाला बनारस नयी गालियाँ तलाश रहा है. क्योंकि पुरानी गालियों का रूप बदल गया है और उनकी मारक क्षमता भी कम हो गयी है. पहले जिस गाली को देने की लिए मुंह बनाने भर से अगला पिनक जाता था अब चार बार पूरी गाली बक दीजिये कोई असर नहीं पड़ने वाला. क्या करेंगे अब जब राखी सावंत ही गाली देने लगेंगी तो किसी के ऊपर क्या ख़ाक असर पड़ेगा. गालियाँ बदल गयीं हैं और इनको बोलने वाले लोग भी बदल गएँ हैं. लेकिन इसके कारण सबसे बड़ा नुकसान जो हुआ है वो उन लोगों का हुआ है जो इन गालियों को शिद्दत से जीते थे. उन लोगों का हुआ है जिनके कई काम इन्ही गालियों ने करवा दिए थे. या तो उन्होंने गाली खा कर यह काम किये या फिर गाली देकर लेकिन अफ़सोस कि अब गरियाते हैं तो भी फरियाता नहीं है.
निश्चित रूप से आज ये गालीयाँ अपना स्वरुप बदल रही हैं
जवाब देंहटाएंइन्ही गालीयों की वज़ह से एक शख्श ने आत्महत्या भी कर ली है.
आज इन गालीयों में न तो अपनापन रहा और न ही गंभीरता !
गालीयों को इतनी विविधता से परिभाषित करने के लिए धन्यवाद...
Himanshu Vashisth
Lucknow