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संदेश

वोट डालिए...देश बचाए.....

आज बहुत दिनों के बाद लिख रहा हूँ....लिखने का मन तो बहुत करता है लेकिन लिख नही पाता हूँ...खैर छोडिए लोकसभा चुनाव होने वालें हैं ..एक पत्रकार होने के नाते मुघे काफी तैयारी करनी है....बहुत सारे हिसाब लगाने हैं.... इस चुनावमें हो सकता है बड़ी जिम्मेदारी उठानी पड़े..आप लोगों से एक बात कहना चाहता हूँ....मैंने कई बार और कई तरह के चुनाव देखे हैं...इन्हे काफी करीब तो नही लेकिन कुछ करीब से ज़रूर देखा है...एक बात जो मैंने महसूस की है वो है अब के चुनावों में लोगों क जोश न रहना...लगता है लोगों को महज शिकायत करने की आदत होती जा रही है....लेकिन इस शिकायत को दूर करने की कोशिश कोई नही करना चाह रहा है...मतदाता वोट देने के लिए नही जन चाहता है उसे लगता है की घर में रहा जाए तो अच्छा होगा.... बाहर निकल के वोट देने की जहमत नही उठाना चाहता है कोई ....वोट के साथ स्टेटस जुड़ गया है....अपने को संभ्रांत मानने वाला वर्ग वोटिंग करने के लिए नही जाता है जानते हैं क्यों ? पता नही मालूम नही ..आप को मालूम हो तो बताना...... लेकिन यह एक ग़लत प्रथा है....आज देश को कुछ ही लोग चला रहें हैं...हमारी यही स्थिति रही तो आख़िर हम

सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती

संसदीय राजनीति युवा तबके के जरिए अपनी पस्त पड़ती राजनीति को ढाल बनाना चाहती है। वहीं एक दौर में युवाओं के सपनों को हवा देने वाली वामपंथी समझ थम चुकी है। और इन सबके बीच अपनी जमीन को लगातार फैलाने का दावा करने वाली नक्सली राजनीति के पास वैकल्पिक व्यवस्था का कोई खाका नही है। कुछ ऐसी ही वैचारिक समझ लगातार उभर रही है, जिसमें पहली बार माओवादियों की चिंता अपने घेरे में उभर रही है कि उनकी समूची राजनीति व्यवस्था का बुरा असर उन पर भी पड़ा है। और इसकी सबसे बड़ी वजह विकल्प की स्थितियों को सामने लाने के लिये सकारात्मक प्रयोग की जगह राज्य से दो-दो हाथ करने में ही ऊर्जा समाप्त हो रही है। खासकर पिछड़े और ग्रामीण इलाकों के लोगों को जिन वजहों से सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक तक साथ में जोड़ा जाता था, अब वह सकारात्मक प्रयोग संगठन में समाप्त हो गये है।वह दौर भी खत्म हो गया जब क्रांतिकारी कवि चेराबंडु राजू से लेकर गदर तक का साहित्य भी आम लोगों की जुबान में आम लोगों की परेशानियों को व्यक्त करता था। जिससे ग्रामीण आदिवासी खुद को अभिव्यक्त करने के लिये आगे आते थे। लेकिन गदर के गीत क्रांतिकारी गीतों की शृंखला में आख

'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएंगे'

कौन है महारथी। प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक। अखबार या न्यूज़ चैनल। बहस करने वाले और कोई नहीं खुद मीडियाकर्मी हैं। हर जेहन में यही है कि खबरें जब अखबार के पन्ने से लेकर टीवी स्क्रीन तक से नदारद है तो ऐसी बहस के जरिये ही अपने होने का एहसास कर लिया जाये। लेकिन पत्रकार के लिये एहसास होता क्या है, संयोग से इसी दौर में खुलकर उभरा है। ताज-नरीमन हमला, आम लोगों का आक्रोष, पाकिस्तान से लेकर तालिबान और ओबामा।इन सब के बीच लिट्टे के आखिरी गढ़ का खत्म होना। 27 जनवरी को जैसे ही श्रीलंकाई सेना के लिट्टे के हर गढ़ को ध्वस्त करने की खबर आयी दिमाग में कोलंबो से निकलने वाले 'द संडे' लीडर के संपादक का लेख दिमाग में रेंगने लगा। हर खबर से ज्यादा घाव किसी खबर ने दिया तो पत्रकार की ही खबर बनने की। पन्द्रह दिन पहले की ही तो बात है। लासांथा विक्रमातुंगा का आर्टिकल छपा । कोलंबो से निकलने वाले द संडे लीडर का संपादक लासांथा विक्रमातुंगा। जिसने अपनी हत्या से पहले आर्टिकल लिखा था। और हत्या के बाद छापने की दरखास्त करके मारा गया। बतौर पत्रकार तथ्यों को न छिपाना और श्रीलंका को पारदर्शी-धर्मनिरपेक्ष-उदार लोकतांत्रिक दे

संजय दत्त और सवालात

संजय दत्त और सवालात संजय दत्त अब लखनऊ से समाज वादी पार्टी के तिक्जेत पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं..... कदम बढ़ते हुए उन्होंने अपना रोड शो भी शुरू कर दिया है....उनका साथ दे रहीं हैं उनके पत्नी मान्यता...... एक सवाल बार बार मन में आता है की आख़िर कार संजू बाबा को चुनाव लड़ने की क्या आवशकता पड़ गई ...कुछ लोग हालाँकि यह भी कहतें हैं की चुनाव तो कोई भी लड़ सकता है...ठीक बात ...लेकिन फ़िर भी कोई कारन तो होगा ही ...शायद मुन्ना भाई अब लोगों की सेवा करना चाहते हैइसीलिए चुनाव लड़ रहें हैं...लेकिन सवाल फ़िर उठा की क्या जनसेवा के लिए जन प्रतिनिधि होना ज़रूरी है....क्या इसके बिना सेवा नही हो सकती ? चलिए आप सवाल का जवाब सोचिये तब तक एक और सवाल हाज़िर है .... संजू बाबा को राजनितिक पार्टी के टिकेट की क्यों ज़रूरत पड़ी ....वोह तो इस देश में ख़ुद बहुत पापुलर हैं... आम भारतीय तो आप को जानता ही है ....फ़िर राजनितिक दलों का सहारा क्यों? यह एक और सवाल.... अब सवाल एक और उठता है कि समाज वादी पार्टी ही क्यों.... कोई औ र दल क्यों नही....जबकि उनका परिवार( पता नही अब उनका रहा कि नही ) तो पुराना कांग्रेसी है ....फ़िर य

आह भारत से वाह भारत

आह भारत से वाह भारत बहुत कुछ लिखने की ज़रूरत नही है ...भारत वाकई में एक ऐसा देश बनता जा रहा है जिसे पीछे मुड़कर शोक मनाने की आदत नही है...पुरी दुनिया तो आथिक मंदी से परेशान है और भारत अलमस्त है...एक सर्वे बताता है की भारत के लोग बहुत तेजी से आशावादी होते जा रहें....इस आशावादिता की दौड़ में भारत ने बड़ा मुकाम हासिक कर किया है....भारत के लोगों को उम्मीद है की अपना देश आर्थिक मंदी की चपेट से अगले एक साल में पूरी तरह बाहर हो जाएगा...अच्छा लगता है....ऐसे समाचार पढ़कर...पिछले साल का अंत बेहद दर्दनाक था...इस साल की शरुआत भी कम कष्टकारी नही थी ...लेकिन अब लगता है सब ठीक हो जाएगा...जय हो भारत