सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती

संसदीय राजनीति युवा तबके के जरिए अपनी पस्त पड़ती राजनीति को ढाल बनाना चाहती है। वहीं एक दौर में युवाओं के सपनों को हवा देने वाली वामपंथी समझ थम चुकी है। और इन सबके बीच अपनी जमीन को लगातार फैलाने का दावा करने वाली नक्सली राजनीति के पास वैकल्पिक व्यवस्था का कोई खाका नही है। कुछ ऐसी ही वैचारिक समझ लगातार उभर रही है, जिसमें पहली बार माओवादियों की चिंता अपने घेरे में उभर रही है कि उनकी समूची राजनीति व्यवस्था का बुरा असर उन पर भी पड़ा है। और इसकी सबसे बड़ी वजह विकल्प की स्थितियों को सामने लाने के लिये सकारात्मक प्रयोग की जगह राज्य से दो-दो हाथ करने में ही ऊर्जा समाप्त हो रही है। खासकर पिछड़े और ग्रामीण इलाकों के लोगों को जिन वजहों से सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक तक साथ में जोड़ा जाता था, अब वह सकारात्मक प्रयोग संगठन में समाप्त हो गये है।वह दौर भी खत्म हो गया जब क्रांतिकारी कवि चेराबंडु राजू से लेकर गदर तक का साहित्य भी आम लोगों की जुबान में आम लोगों की परेशानियों को व्यक्त करता था। जिससे ग्रामीण आदिवासी खुद को अभिव्यक्त करने के लिये आगे आते थे। लेकिन गदर के गीत क्रांतिकारी गीतों की शृंखला में आखिरी साहित्य साबित हुये हैं। फिर जीने की परिस्थितियों में भी लगातार बदलाव हुआ है, इसलिये माओवादियों के सामने सबसे बड़ा संकट यही हुआ है कि वह किस तरह जमीन के सवालों को उठाये जिससे जमीन के लोग उनसे जुड़ते जाएँ।चूँकि बैठक में एमसीसी और पीपुल्स वार के माओवादियों की मौजूदगी थी, जिनका पाँच साल पहले विलय हो चुका है। लेकिन दोनों ने अपनी जमीन बिहार-झारखंड और आंध्रप्रदेश-महाराष्ट्र की अगुवाई नहीं छोड़ी है, इस वजह से इन्हीं प्रदेशों में आम लोगों को साथ लाने के लिये साहित्य-गीत-कविता की स्थानीय महक को क्रांतिकारी मुलम्मे में चढ़ा कर कैसे रखा जाये, जिससे लोग जिन्दगी के साथ जुड़ते चले जाये - समूची बहस इसी पर आ टिकी। माओवादियों ने चेराबंडु राजू की उन कविताओं का जिक्र भी किया जो चंद लाइनों में व्यवस्था पर सवाल उठाता था। 1965 में लिखी उनकी कविता... मेरा मुकदमा ऐसा नहीं है कि उसका फैसला / काले कोट वालों को नीली करेंसी नोट देकर / किसी एक देस की किसी अदालत में हो जाये / मुझे गवाह के कटघरे में आने दो। या फिर 1968 में लिखी कविता जिसका पाठ उन्होंने तिरुपति के छात्रों के बीच किया था- ऐसी करुणा तेरी, / जो सूखी छाती से चिपकी रहे,/ बच्चों को न दे सके सांत्वना,/ भूखों मरने तक की हालत में, / यह उधार गहनों की चकाचौंध,/ क्या कहना! माँ भारती बोलो तो, / क्या तेरा लक्ष्य है? कैसा आदर्श है? बन्देमातरम्! बन्देमातरम्! नक्सलियों में सवाल यह भी उठ रहा है साहित्य और क्रांति को एक साथ लेकर चलने में स्थितियाँ कब-कैसे बदलती चली गयी, इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया।हाल में साहित्योत्तर स्थितियों को दुबारा जगाने के लिये माओवादियों ने एक संगठन भी बनाया। लेकिन आंध्र प्रदेश के अलावा किसी राज्य में इस संगठन को चलने नहीं दिया गया और साहित्य से ज्यादा उसस जुड़े लोगों को नक्सली मान कर जेल में ठूँसा गया। जिससे हर आगे बढ़ा कदम पीछे हुआ।माओवादियो की यह बहस उन परिस्थितियों को भी टटोल रही थी कि आखिर जो सरकार एक दशक पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या के आईने में देखती थी, वही अब आंतकवाद के सामानांतर क्यों देख-समझ रही है। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा और राजनेताओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब माओवादियों की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ती आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े। माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियों को भी लेकर संकट उभरा है।पिछले डेढ़ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियो ने अपनायी। वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की। निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा। लेकिन आर्थिक नीतियों को लेकर जो फुग्गा या कहें जो सपना दिखाया गया बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बड़ा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हें आम जनता के बीच पहुँचने के लिये एक हथियार तो दिया था लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बड़ी चुनौती है। इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाकों में माओवादियो ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहाँ किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है। नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कौरिडोर बनाये। नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बड़ी रेखा भी इस बैठक के दौरान उभरी। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बडा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है जहाँ राजनीतिक तौर पर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकूल होगी, माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिन इलाकों में माओवादियों ने अपना प्रभाव लोगो में जमाया अब उनके सवालों का जबाब देने से ज्यादा सवाल माओवादियों के सामने खुद को टिकाये रखने के हो गये है। इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना गाया कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन का खात्मा होने से बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है। मजदूरों को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती, इस बार उसी की अभाव है। पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनों स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है।पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है। खासकर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा, तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनों इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालों के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है।

punya prasoon bajpayi se sabhaar

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

Some rare photos of Dev anand

Dev anand sahab with Sadhna in '' ASLI NAQLI'' Dev Anand sahab in a pensive mood during the filming of '' MAIN SOLAH BARAS KI'' in Scotland  Mr. Dev anand with his leading lady Sabrina ( who he introduced ) in '' MAIN SOLAH BARAS KI'' in Jaipur.  Dev sahab with SD Burman, Kishor kumar, Lata ji, poet Neeraj and RD Burman during the recording of ''PREM PUJARI''.  Dev sahab with Zeenat Aman in '' ISHK ISHK ISHK'' against the background of  Mt. Everst in 1976.  Dev sahab with Madhubala in '' KALA PANI''.  Dev sahab with Kalpana Kartik in ''HOUSE NO 44" Dev sahab with Geeta Bali in '' BAAZI'' Dev sahab in '' HUM DONO'' Dev sahab with Mumtaaz in '' HARE RAMA HARE KRISHNA''.  Dev sahab with Tina Munim ( who he introduced) in '' DES PARDES'' Dev sahab with Waheeda Rahman in ''GUIDE''

India's first computer-literate village

By Anand Parthasarathy Malappuram . Ten days from today, Chamravattom village, in Triprangode panchayat of Kerala's Malappuram district, will stake a unique claim to fame: the scenic hamlet on the banks of the Bharathapuzha, is slated to become the nation's first 100 per cent computer-literate village. On that day, at least one member of every family in the village — there are 850 families — will have completed basic computer literacy training. He or she can now handle a personal computer, create and edit pictures, compose text using a specially-designed Malayalam language tool, surf the Internet, send email and make Internet telephony voice calls. They have been learning these skills at the local ``Akshaya'' centre, a one-room facility equipped with five PCs, a server and a printer with a dial-up Internet connection. The exact day when Chamravattom completes its self-appointed task can be predicted with accuracy because for two months now, villagers have been keeping t

माफ करना बिटिया रानी, हमारे पास रॉकेट है लेकिन एंबुलेंस नहीं

एक तरफ सोमवार को आंध्रप्रदेश के श्री हरिकोटा से पीएसएलवी सी – 35 की सफल लांचिंग की तस्वीरें आईं तो इसके ठीक 24 घंटे बाद उसी आंध्र प्रदेश से ऐसी तस्वीरें भी आईं जिन्होंने इस देश की चिकित्सा सेवाओं की पोल खोल कर रख दी। श्रीहरिकोटा के लांच पैड पर वैज्ञानिक अपने अब तक के सबसे लंबे मिशन की सफलता की खुशी मना रहे थे तो इसके 24 घंटे बाद यहां से तकरीबन 800 किलोमीटर दूर एक शख्स बारिश से लबालब अपने गांव में अपनी छह महीने की बच्ची की जान बचाने की जद्दोजहद में लगा था। आंध्र के चिंतापल्ली मंडल के कोदुमुसेरा (kudumsare) गांव से आईं इन तस्वीरों में एक सतीबाबू नामक शख्स छह महीने की अपनी बीमार बच्ची को कंधे तक पानी में किसी तरह डाक्टर तक लेकर जा रहा है। दरअसल इस इलाके में भारी बारिश की वजह से पूरा गांव तालाब में तब्दील हो गया है। ऐसे में बुखार में तप रही सतीबाबू की छह महीने की बच्ची को कोई चिकित्सकीय सहायता नहीं उपलब्ध हो पाई। आखिरकार कहीं से कोई रास्ता न निकलता देख ये शख्स खुद ही अपनी बच्ची को लेकर डाक्टर के पास रवाना हो गया। हालांकि गांव के लोगों ने सतीबाबू को ऐसा दुस्साहस करने से रोकने

लाहौर पर ही तिरंगा फहरा दोगे क्या?

समझ में नहीं आता कि इस देश के लोगों को हो क्या गया है? आखिर वो करना क्या चाहते हैं? तिरंगा फहराना चाहते हैं. वो भी लाल चौक पर. हद ही तो है. भला ऐसा करने का हक उन्हें किसने दिया? केंद्र सरकार उन्हें रोकने की तैयारी में है तो कोई गलत नहीं है. सीआरपीएफ लगा कर सरकार उन्हें रोकने की तैयारी में है तो रोकने दो. मुझे इसमें कोई गलत बात नहीं नज़र आती. एक भारतीय होने का मतलब ये कतई नहीं है तुम श्रीनगर की लाल चौक पर जा कर तिरंगा फहरा दो. तुम अपनी गली में फहरा लो, बालकनी में फहरा लो. क्या कम जगहें हैं? लेकिन श्रीनगर में लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहर सकता, सुना तुमने. केंद्र सरकार अपने विज्ञापनों में कहती है कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अरुणाचल से गुजरात तक भारत एक है. अब कहने का क्या है? बहुत सी बातें कही जातीं हैं सब की सब सही ही होती है क्यां? यह सब तो कहने भर के लिए है. कश्मीर तो .....है किसी का, मुझे पता करने पड़ेगा. किसी पुरानी किताब में पढ़ा था कि कश्मीर भारत का है. अब पता नहीं ऐसा है या नहीं? हाँ, कन्याकुमारी तो खालिस अपना ही है अभी तक. जहाँ तक बात अरुणांचल कि है तो शायद यह भी भारत का ही

हे आज तक ये 'धर्म' है 'वारदात' नहीं...

धनतेरस के दिन दोपहर में आज तक ने ' धर्मं ' कार्यक्रम में वाराणसी में माँ अन्नपूर्णा मंदिर से जुड़ी एक ख़बर दिखाई. बिल्कुल इण्डिया टीवी वाले तरीके से. ख़बर में दिखाया जा रहा था कि वाराणसी में स्थित माँ अन्नपूर्णा का मंदिर एक ऐसा मंदिर है जो वर्ष में सिर्फ एक दिन धनतेरस के दिन खुलता है. ये तथ्य पूरी तरह गलत है. माँ अन्नपुर्णा का मंदिर तो हर रोज़ खुलता है. ख़ास बात ये है कि धनतेरस वाले दिन माँ अन्नपूर्णा की स्वर्णमयी प्रतिमा के दर्शन होते हैं. यह वर्ष में सिर्फ एक दिन धनतेरस के दिन ही होता है. माँ अन्नपुर्णा की स्वर्ण प्रतिमा बेहद भव्य और आकर्षक है. इसीलिए इस दिन माँ के दरबार में भक्तों का सैलाब उमड़ता है. यही नहीं इस दिन माँ का खजाना भी भक्तों के बीच बांटा जाता है. इसके तहत माँ को दान में मिले धन को भक्तों के बीच में वितरित किया जाता है. इस धन को लेने के लिए माँ के दरबार में जबरदस्त भीड़ उमड़ती है. ऐसा नहीं है कि धन कोई बहुत अधिक होता है. फुटकर पैसे होते हैं जिन्हें भक्तों के बीच उछाला जाता है. मान्यता है कि जिसके पास माँ का ये खजाना होता है वो हमेशा धन धान्य से परि

ओका बोका तीन तड़ोका

भोजपुरिया माटी के लोगों ने बचपन में ज़रूर ही खेल कूद के दौरान कई पद्यांश को सुना या बोला होगा..इनमे से कई लोग ऐसे होंगे जिनके शायद यह पद्यांश पूरी तरह याद ना हो या ज़िन्दगी कि भाग दौड़ में इसे भूल गएँ हो..ऐसे ही एक पद्यांश कि कुछ पंक्तियाँ आप लोगों के लिए लिख रहा हूँ ..पढ़िए और अपने माटी को याद करिए.....हाँ कुछ लोगों को मैं यह सलाह ज़रूर देना चाहूँगा कि भूल कर भी इसका हिंदी या अंग्रेजी में अनुवाद करने कि कोशिश ना करें........ ओका बोका तीन तड़ोका लउवा लाठी चन्दन काठी इजई विजई पान फूल पचका द..... अथेला बथेल कवन खेल जटुली खेल केकरा में गेल ..... का चान का सुरुज कतना में कतना/ बिगहा पचीस हगे का मूस के लेड़ी तेल कतना ठोपे- ठोप...... तार काटो तरकूल काटो काटो रे बरसिंगा हाथी पर के घुघुरा चमक चले राजा राजा के रजईया काटो हिंच मरो हिंच मरो मुसहर के बेटा.....