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उठती आवाजों से तसल्ली, वक्त बदलेगा जरूर

ये अच्छा है कि हमारा समाज महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए चर्चा तो कर रहा है लेकिन दुखद ये है कि हमारी चर्चाओं औऱ कोशिशों के बावजूद हमारे ही समाज का एक हिस्सा महिलाओं के साथ अत्याचार करता ही आ रहा है। पता नहीं लेकिन कभी कभी लगता है कि ये अत्याचार पारंपरिक रवायतों के हिस्से तो नहीं हो गए। या फिर पुरुषवादी मानसिकता को ऊपर रखने की कोशिश। कुछ भी हो लेकिन समाज को बदलने में वक्त लगेगा और उम्मीद ही कर सकते हैं कि समाज बदलेगा तो जरूर। सुखद लगता है कि जब महिलाएं इस बारे में मुखर होकर बोलती और आवाज उठाती हैं। पूजा बतुरा भी आवाज उठाने वालों में से एक हैं। एक छोटी सी फिल्म और एक लंबी कहानी। यू ट्यूब लिंक साझा कर रहा हूं शायद आपका देखना भी महिला अधिकारों का समर्थन करना होगा।  

माफ करना बिटिया रानी, हमारे पास रॉकेट है लेकिन एंबुलेंस नहीं

एक तरफ सोमवार को आंध्रप्रदेश के श्री हरिकोटा से पीएसएलवी सी – 35 की सफल लांचिंग की तस्वीरें आईं तो इसके ठीक 24 घंटे बाद उसी आंध्र प्रदेश से ऐसी तस्वीरें भी आईं जिन्होंने इस देश की चिकित्सा सेवाओं की पोल खोल कर रख दी। श्रीहरिकोटा के लांच पैड पर वैज्ञानिक अपने अब तक के सबसे लंबे मिशन की सफलता की खुशी मना रहे थे तो इसके 24 घंटे बाद यहां से तकरीबन 800 किलोमीटर दूर एक शख्स बारिश से लबालब अपने गांव में अपनी छह महीने की बच्ची की जान बचाने की जद्दोजहद में लगा था। आंध्र के चिंतापल्ली मंडल के कोदुमुसेरा (kudumsare) गांव से आईं इन तस्वीरों में एक सतीबाबू नामक शख्स छह महीने की अपनी बीमार बच्ची को कंधे तक पानी में किसी तरह डाक्टर तक लेकर जा रहा है। दरअसल इस इलाके में भारी बारिश की वजह से पूरा गांव तालाब में तब्दील हो गया है। ऐसे में बुखार में तप रही सतीबाबू की छह महीने की बच्ची को कोई चिकित्सकीय सहायता नहीं उपलब्ध हो पाई। आखिरकार कहीं से कोई रास्ता न निकलता देख ये शख्स खुद ही अपनी बच्ची को लेकर डाक्टर के पास रवाना हो गया। हालांकि गांव के लोगों ने सतीबाबू को ऐसा दुस्साहस करने से रोकने...

भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा, मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा

Kejriwal knew 15 days back abt the scandal bt only took action whn d CD reached LG & news agencies #AAPMantriScandal pic.twitter.com/XhOgzYEfsX — Sabyasachi Banerjee (@MrAmbiDexter) September 1, 2016 आम आदमी पार्टी के मंत्री संदीप कुमार को लेकर पार्टी के भीतर कुछ ऐसी चर्चाएं चल रहीं हों तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुमार विश्वास की कविताओं में यकीन रखने वाली पार्टी के नेताओं से यही उम्मीद की जा सकती है। आम आदमी पार्टी के शैशवकाल में ही उसके जन्मदाताओं ने पार्टी की ऐसी की तैसी कर ऱखी है और इसके बाद सुनने सुनाने के लिए पहले से ही कविता तैयार रखी है। संदीप कुमार, सोमनाथ भारती, जितेंद्र तोमर जैसे नाम न सिर्फ आम आदमी पार्टी के लिए कलंक बन गए हैं बल्कि उस पूरे मिडिल क्लास को तकलीफ दे रहें हैं जो अन्ना के आंदोलन से उम्मीद बांधे हुए थे। अन्ना आंदोलन की बाईप्रोडक्ट आम आदमी पार्टी ने देश के नब्बे फीसदी लोगों की उम्मीदों को यमुना के काले पानी में डुबा कर खत्म कर दिया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने जिस तरह से सुचिता और पारदर्शिता के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई थी उन स...

बाप के कांधे पर बेटे की लाश और स्क्रैमजेट इंजन वाला प्रगतिशील भारत

सटीक तो नहीं पता है लेकिन शायद दुनिया में तीसरे या चौथे नंबर की अर्थवस्वस्था वाले देश का अर्धसत्य यही है कि यहां अस्पताल के बाहर बारह साल का एक बच्चा मर जाता है लेकिन उसे इलाज नहीं मिल पाता है। मुझे ये भी सटीक नहीं पता लेकिन शायद दुनिया में पांचवे या छठे नंबर पर अरबपतियों वाले देश में एक शख्स को अपनी पत्नी का शव अपने कांधे पर लादकर 13 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है और उसे एंबुलेंस नहीं मिल पाती। देश के स्क्रैमजेट   इंजन की तकनीक विकसित कर लेने का एक पहलु ये भी है कि ट्रेन एक्सीडेंट में मरी एक वृद्धा का शव पोस्टमार्टम हाउस तक पहुंचाने के लिए उसकी लाश की हड्डियों को पहले तोड़ा जाता है और फिर गठरी बना कर पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाता है। यकीनी तौर पर देश में ये मुद्दे बहस के लिए पसंद ही नहीं किए जाते। हमारी संवेदनाएं ऐसे मुद्दों पर तब तक नहीं जागती जब तक ऐसी कोई घटना न हो जाए और वो टीवी पर न दिए जाए। ये बात दीगर है कि हम ऐसी हर बहस के बीच में इस बात को स्वीकार करते हैं कि ऐसी न जाने कितनी घटनाएं होती हैं और हमें पता नहीं चलता। देश में स्वास्थ सेवाओं के हाल बेहद खर...

ट्विटर, बीएमडब्लू और आठ लाख की साड़ियों के बीच दाना मांझी कहां रहा

देश में बहस मुहाबिसों के दौर छोटे, संकीर्ण और संकुचित हो गए हैं। हमारी सोच एक दिन या फिर अधिकतम दो दिनों तक हमारे साथ ठहरती है। वो भी फेसबुक और ट्विटर के ट्रेंड को फालो करते हुए। कितनी हैरानी होती है कि हम दाना मांझी की दारुण कथा को देख-सुन कर दुखी तो होते हैं लेकिन चूंकि दाना मांझी ट्विटर पर ट्रेंड नहीं करता लिहाजा समाज में बहस का मुद्दा नहीं बन पाता। फेसबुक और गूगल में ट्रेंड नहीं करता लिहाजा धारा से अलग हो जाता है दाना मांझी, कालाहांडी और इस देश में गरीब होने के तमगे के साथ जी रहा इंसान। देश बीएमडब्लू का जश्न मना रहा है। आठ लाख की साड़ियां खरीदे जाने पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स चहक रहीं हैं। दाना सिसक रहा है। चौला अपनी मां की याद को अपने टूटे घर की टपकती छत से बचा कर सहेजना चाहती है। वो 12 साल की उम्र में 13 किलोमीटर का ऐसा रास्ता तय कर चुकी है जो उसे कभी पीवी सिंधू नहीं बनाएगा। वो कभी साक्षी मलिक नहीं बनेगी। हो सकता है वो कालाहांडी में सिसकती कौम का हिस्सा जरूर बन कर रह जाए।   आखिर हम उम्मीद भी क्यों करें। हमारे घरों में पिज्जा गरम पहुंच रहें हैं लिहाजा हमें दाना ...

...तो साक्षी का पदक सिंधु के पदक से कीमती है

भारत के लिए रियो ओलंपिक में चांदी का पदक लाने वाली पी वी सिंधु की सफलता के पीछे उनके समाज का भी योगदान माना जा सकता है। सिंधु देश के दक्षिण में बसे शहर हैदराबाद से आती हैं। देश का ये इलाका सेक्स रेशियो और चाइल्ड सेक्स रेशियो के लिहाज से देश के अन्य हिस्सों से कहीं बेहतर स्थिती में है। 2011 का सेंसस बताता है कि आंध्र प्रदेश देश में सेक्स रेशियो के क्रम में चौथे नंबर पर है। यहां प्रति 1000 पुरुषों की तुलना में 993 महिलाएं हैं। ये एक सुखद स्थिती कही जा साकती है यदि आप देश के अन्य राज्यों के हाल देखें।  इनमें से कई राज्य तो ऐसे हैं जिन्हें हम बेहद विकसित राज्य के तौर पर मानते हैं। मसलन आप पंजाब और हरियाणा का उदाहरण ले सकते हैं। पंजाब में सेक्स रेशियो 895 है। यानि प्रति 1000 पुरुषों पर महज 895 महिलाएं ही हैं। हालांकि कन्या भ्रूण हत्या को लेकर हरियाणा की चर्चा पहले भी कई बार हो चुकी है लेकिन फिर भी ये एक बार याद किया जा सकता है कि हरियाणा में 2011 के सेंसस के मुताबिक प्रति 1000 पुरुषों पर महज 879 महिलाएं हैं। ये बात और है कि हरियाणा की एक बहादुर लड़की भी रियो ओलंपिक से एक कांस्य ...

जो सीखा सत्तर सालों में

पिछले कुछ सालों में देश के हालात तेजी से बदले हैं। कई ऐसी चीजें हुईं जो देश में पहली बार इतने बड़े आयाम पर नजर आ रही हैं। देश अब राष्ट्रभक्तों और कथित राष्ट्रभक्तों की श्रेणी में बंट चुका है। एक गाय को माता मानने वाला समाज है और एक बीफ वाला समाज है। मुल्क की आजादी के सत्तर सालों में हम अखलाक और आजाद की आजादी को अब अलग अलग नजरिए से देखने की स्थिती में आ चुके हैं। पिछले सत्तर सालों में हम इतना ही विकास कर पाए कि पंद्रह अगस्त को हम फ्रिज में रखे मटन और बीफ से लेकर गाय के रक्षकों और गाय के मांस के कारोबारियों के बारे में अपना मत बना पाएं। ये देश के शायद नब्बे के दशक में लौटने की शुरुआत है जब देश में सिर्फ और सिर्फ राम मंदिर की बातें हुआ करती थीं। या फिर हम नब्बे के दशक में लौटकर अस्सी के दशक में लौटना चाहते हैं जब हम प्रधानमंत्री की हत्या करने वाले शख्स की पूरी कौम को ही मारने दौड़ पड़े थे। शायद इतिहास के काल खंड में पीछे जाने की हमारी उत्तेजना हमें अस्सी के दशक से भी पीछे उन अमानवीय क्षणों में ले जाना चाहती है जब जमीन पर खिंची एक लकीर मानवीय इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन को देखकर समय स...