देश में बहस मुहाबिसों के दौर छोटे, संकीर्ण और संकुचित हो गए हैं।
हमारी सोच एक दिन या फिर अधिकतम दो दिनों तक हमारे साथ ठहरती है। वो भी फेसबुक और
ट्विटर के ट्रेंड को फालो करते हुए। कितनी हैरानी होती है कि हम दाना मांझी की दारुण कथा को देख-सुन कर दुखी तो
होते हैं लेकिन चूंकि दाना मांझी ट्विटर पर ट्रेंड नहीं करता लिहाजा समाज में बहस
का मुद्दा नहीं बन पाता। फेसबुक और गूगल में ट्रेंड नहीं करता लिहाजा धारा से अलग
हो जाता है दाना मांझी, कालाहांडी और इस देश में गरीब होने के तमगे के साथ जी रहा
इंसान।
देश बीएमडब्लू का जश्न मना रहा है। आठ लाख की
साड़ियां खरीदे जाने पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स चहक रहीं हैं। दाना सिसक रहा है।
चौला अपनी मां की याद को अपने टूटे घर की टपकती छत से बचा कर सहेजना चाहती है। वो 12
साल की उम्र में 13 किलोमीटर का ऐसा रास्ता तय कर चुकी है जो उसे कभी पीवी सिंधू
नहीं बनाएगा। वो कभी साक्षी मलिक नहीं बनेगी। हो सकता है वो कालाहांडी में सिसकती
कौम का हिस्सा जरूर बन कर रह जाए।
आखिर हम उम्मीद भी क्यों करें। हमारे घरों में
पिज्जा गरम पहुंच रहें हैं लिहाजा हमें दाना मांझी के लिए एंबुलेंस की बहुत चिंता
नहीं होती। हां, इतना जरूर है कि हम दाना मांझी और उसकी बेटी के लिए फौरी तौर पर
चिंता जता देते हैं। क्योंकि सोशल साइट्स पर इससे जुड़ी चर्चा चल रही होती है।
लेकिन इस सबके बीच हमें ये याद रहता है कि हमारा पिज्जा समय से हमारे घर डिलिवर
हुआ भी या नहीं।
यही देश है मेरा। हमारे लिए मौत तब तक मौत नहीं
होती जब तक हम अपने कंधे पर लाश का बोझ न महसूस करें। वैसे कालाहांडी में पिज्जा
डिलीवरी है क्या?
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