भारतीय मीडिया के लिए
अरविंद केजरीवील कई माएनों में अहम हैं...भारतीय मीडिया मजबूत हो रही है और सृजन
कर सकती है इसकी पुष्टि भी अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं.....भारतीय मीडिया भस्मासुर
भी बना सकती है ये बात भी अरविंद केजरीवाल को देख कर पता चलती है...
याद कीजिए वो दौर जब
अरविंद केजरीवाल अन्ना के मंच पर टोपी पहने किनारे बैठे रहते थे...धीरे धीरे
अरविंद केजरीवाल मंच के मध्य में अपनी जगह बनाते गए और अन्ना को किनारे लगाते
गए.....सियासत में सुचिता की दुहाई देकर राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल पर सवाल
कई बार उठे.....अरविंद केजरीवाल ने हर बार सवाल का जवाब कुछ ऐसे दिया कि मानों
सवाल पूछना ही गलत हो....अब जब आधिकारिक तौर पर अरविंद केजरीवाल ने ये साफ कर दिया
है कि उन्हें आलोचना पसंद नहीं तो ऐसे में ये भी तय हो जाता है कि मीडिया को अब
पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका में आना होगा....
इस बात में कोई दो राय
नहीं कि 2013 और 2014 के अन्ना आंदोलनों की न्यूज चैनलों के जरिए हुई लगातार लाइव
कवरेज से लाइमलाइट में आए अरविंद केजरीवाल ने हर मौके का भरपूर फायदा
उठाया....सिद्धांतों की राजनीति का दावा करने वालों के मौका देखकर सिद्धांतों से
समझौता करने की खबरें भी आती रहीं...लेकिन राजनीति में जब सत्ता पाना ही एकमात्र
ध्येय रह जाए तो फिर सिद्धांतों को चूल्हे या भांड़ में रख देना ही पड़ता है.....मीडिया
समाज की नब्ज को समझता है लेकिन उसे जब अपनी भावनाओं के साथ जोड़ लेता है तो नब्ज
दोगुनी चाल से चलती है...ये किसी भी मीडिया समाज के साथ हो सकता है...जहां
प्रोफेशनलज्मि संस्कारों पर हावी नहीं हुआ है...यूरोपीय देशो में भी मीडिया का
व्यवहार समाज के जरिए ही तय हो रहा है...यही वजह है कि जब सभी को अरविंद केजरीवाल
के तौर पर देश में एक नई उम्मीद दिख रही थी तो ठीक उसी समय मीडिया को भी दिख रही
थी...
उम्मीद को पूरा करने की
राह में मीडिया ने अरविंद केजरीवाल को आगे किया और पीछे से देश की आम जनता के
मिजाज को आगे बढ़ाने की कोशिशें शुरू कर दीं.....लेकिन अरविंद केजरीवाल जनता के भी
उस्ताद निकले...कुर्सी पर बैठने के बाद इतनी जल्दी रंग बदलने वाला नेता देश के
लोकतांत्रिक इतिहास ने इससे पहले शायद ही देखा होगा....लेकिन दिल्ली के रामलीला
मैदान से लेकर दिल्ली सचिवालय तक के सफर में हमने एक क्रांतिकारी आंदोलन से निकले
नेता को हिटलर की वर्दी में ढलते देखा....भले ही देश की सर्वोच्च अदालत ने देश के
संविधान की आत्मा का सम्मान करते हुए मीडिया को आलोचना का अधिकार बहाल कर दिया
लेकिन अरविंद के आदेश ने उनकी मनोदशा को साफ कर दिया है....मीडिया का मुंह बंद
करने की अरविंद की कोशिश ने मीडिया को बता दिया है भारत के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ
एक भस्मासुर पैदा करने की ताकत भी रखता है....
ये तब है जब अरविंद के
नवरत्नों में एक पत्रकार भी शामिल है...जाहिर है पत्रकारिता पर चाबुक चलाने का
तरीका एक पत्रकार ही बता सकता है.... जो भी हो लेकिन मीडिया की आलोचना से बचने के
लिए ऐसे हथियार के प्रयोग की कोशिश बताती है कि मीडिया को पहले से कहीं अधिक मजबूत
और तार्किक होना होगा....सतही और आधारहीन खबरों से तौबा करनी ही होगी....सनसनी
वाली पत्रकारिता के दिन हालांकि अब बहुत हद तक लद गए हैं लेकिन जो कुछ बचे हैं
उन्हें भी लाद देना ही होगा....अन्यथा ‘अरविंदों’ की नोटिसें आती रहेंगी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-05-2015) को "धूप छाँव का मेल जिन्दगी" {चर्चा अंक - 1978} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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दिल्ली की जनता जब समझेगी तब तक देर हो जायगी ...
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक लेख
जवाब देंहटाएंजब
जवाब देंहटाएंकुर्सी का खेल
मीडिया का मेल
तब
खूब जमता है तालमेल
अजब गजब है ये खेल
जिधर बम
उधर हम
एक समय के बाद यही सब देखने को मिलता है हमारे प्रजातंत्र में। .