मैगी पर देश भर में बैन
लग जाने के बाद ये लग रहा है मानों पूरे देश में खाद्य पदार्थ पूरी तरह से
सुरक्षित हो गए हैं लेकिन सच इससे परे है। इस देश में एक संस्था काम करती है जिसका
नाम है, भारतीय खाद्य सरंक्षा एवं मानक प्राधिकरण। अंग्रेजी में इसे ही फूड सेफ्टी एंड
स्टैंडर्ड ऑफ इंडिया कहते हैं। संक्षेप में fssai। भारत सरकार के इस
प्राधिकरण का काम देश भर में खाद्य पदार्थों के लिए मानक तय करना और ये सुनिश्चित
करना है कि मानकों का पूरा अनुपालन हो। अब ये संस्था करती क्या है हम इस बहस में
नहीं पड़ेंगे बल्कि हम आपको ये बताना चाहते हैं कि ये संस्था जो कुछ भी करती है वो
भी इस देश के काम नहीं आ रहा है।
ऐसा नहीं है कि fssai ने
देश में सिर्फ मैगी की ही जांच की है और उसे ही खाद्य मानकों के विपरीत पाया है।
मैगी से अलावा भी इस देश में हजारों ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जो मानकों पर खरे नहीं पाए
गए हैं लेकिन दुर्भाग्य से उनपर कभी चर्चा नहीं हुई। ऐसा क्यों हुआ इस पर चर्चा
करना जरूरी है लेकिन उससे पहले आपको ये बताते हैं कि देश में मिलावट का जाल कितना
बड़ा हो चुका है। fssai के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। आंकड़े बताते हैं कि साल
2012 -13 में खाद्य पदार्थों के दस हजार से अधिक नमूने फेल हो गए। हालांकि कुल
जांचे गए नमूने की संख्या सत्तर हजार के करीब थी। आपको ये जानकर और भी हैरानी होगी
कि प्राधिकरण ने ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी की जिनके
नमूने जांच में फेल हो गए थे। इनसे पांच करोड़ से अधिक का जुर्माना भी वसूला गया।
2013-14 में लिए गए
72,994 सैंपल्स में से 72,200 नमूनों की जांच की गई। इनमें से 13,571 नमूनों में
मिलावट पाई गई।
1 अप्रैल 2014 से 30
सितंबर 2014 तक fssai ने 32,389 नमूने लिए जिनमें से 28,784 नमूनों की जांच
हुई। इन सैंपल्स में से 4924 ऐसे निकले जो 2006 के फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट
के मुताबिक खरे नहीं थे। ये आंकड़ें fssai के जरिए ही उपलब्ध कराए
गए हैं।
जाहिर है कि इतनी बड़ी
संख्या में देश में अगर खाद्य पर्दाथों के नमूने फेल हो रहे हैं तो हम में हर एक
शख्स कुछ न कुछ मिलावटी खा ही रहा है। ये जानते हुए भी हम रोजाना मिलावटी और
मानकों पर खरे न उतरने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन कर रहे हैं, हम चुप हैं। हमें
कोई परेशानी नहीं है। हमने ये मान लिया है कि हमें तो मिलावटी ही खाना है। हमने ये
माना इसके पीछे हमारा सिस्टम भी कम दोषी नहीं है। सिस्टम की जो सख्ती हमने मैगी
मामले में देखी है उतनी सख्ती हमें हमेशा दिखनी चाहिए लेकिन अफसोस है कि हमें दिखी
नहीं। सिस्टम की ये लापरवाही हमारी एक आदत को मजबूत करती गई। हमने मिलावटी खाने को
अपनी आदत में शुमार कर लिया। अब हमें मिलावटी खाना कम ही बुरा लगता है। इस मुद्दे
पर चर्चा करने के दौरान अक्सर हम जमाने को ही खराब बताकर खुद को तसल्ली दे लेते
हैं।
लगे हाथ इस संबंध में
भी चर्चा करना जरूरी है कि जब पूरे देश में खाद्य पदार्थों में इतनी मिलावट साबित
हो रही है तो जनता तक ये जानकारी क्यों नहीं पहुंच रही है। ये एक मूलभूत परेशानी
है। प्राधिकरण जांच तो कर रहा है लेकिन जनता को नहीं बता रहा। क्या प्राधिकरण इस
जानकारी का बहुत अधिक प्रचार प्रसार करना नहीं चाहता या फिर करने के बारे में कभी
सोचा ही नहीं। ये दोनों ही स्थितियां हमारे लिए घातक हैं। एक सूरत ये भी हो सकती
है कि कंपनियों और मिलावटी खाद्य पदार्थों का कारोबार करने वालों के साथ प्राधिकरण
का दोस्ताना हो और इसीलिए ऐसी जानकारियों को बड़े पैमाने पर प्रचारित प्रसारित
नहीं किया जाता।
फिलहाल मैगी के टू
मिनट्स मायाजाल से बाहर निकले भारतीय समाज के पास मिलावटी खाद्य पदार्थों की लंबी
फेहरिस्त है लेकिन हमारी आंखों पर पट्टी है। हम मिलावट के कारोबार को भी सहर्ष
स्वीकार कर रहे हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2015) को चर्चा मंच के 2000वें अंक "बरफ मलाई - मैग्गी नूडल से डर गया क्या" (चर्चा अंक-2000) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सच कहा आशीष जी आपने, कहानी मैगी से आगे भी है...
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच कहा आपने....हम आंखें मूंदं बैठे हैं।
जवाब देंहटाएंदुखद है...हमें कुछ करना होगा..
हटाएंसच है आपकी बात एक एक कर के सभी ऐसे प्रदार्थों का बहिष्कार होना चाहिए ...
जवाब देंहटाएं