याद कीजिए वो दौर जब
मनमोहन सिंह की सरकार पर लग रहे भ्रष्ट्राचार के आरोपों के बीच देश में एक पारदर्शी
सरकार बनाने के लिए रालेगांव के अन्ना के नेतृत्व में जनसमूह उमड़ पड़ा था। भारत
के लोकतंत्र ने विचारों का ऐसा प्रवाह पहली बार देखा था। पहली बार ऐसा महसूस हुआ
कि देश में सिर्फ भीड़ नहीं रहती। सैंतालिस का संग्राम से चूकी पीढ़ी को पहली बार
ये एहसास हुआ कि इस देश में लोकतंत्र है तो क्यों है, क्यों हमें संविधान
निर्माताओं ने ऐसा मंच दिया। इस देश की आजाद पीढ़ी ने पहली बार समझा कि लोकतंत्र
में विचारों के सहारे, बहस के जरिए बेहतरी की राह निकाली जा सकती है...हालांकि ये
सच है कि इस युवा पीढ़ी को ये राह दिखाने वाला एक बुजुर्ग ही था और सच ये भी है कि
अन्ना के आंदोलन से जिस निहितार्थ की उम्मीद थी वो पूरी तो नहीं हुई लेकिन एक
उम्मीद सी जरूर बंध गई....लगा कि अब इस देश में खुलकर भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आवाज
उठाई जा सकती है....
लेखपाल, पटवारी, मुंशी,
बाबू, दरोगा, सिपाही....हम कितने जकड़े थे.....हालांकि आज भी ये बेड़ियां टूटीं तो
नहीं हैं लेकिन ढीली तो हुईं हैं...28 – 30 साल का युवा जिस घुटन को महसूस कर रहा
है वो कम सी लगने लगी है...
अन्ना के आंदोलन का
शुरुआत में कोई राजनीतिक परिणाम समझ में नहीं आता था लेकिन समय बीतने के साथ
विचारों के भेद ने देश को एक नया राजनीतिक विकल्प दे दिया... मनमोहन सरकार की
नाकामियों और अन्ना आंदोलन की सफलता ने आम आदमी पार्टी की राजनीति को रफ्तार दे
दी...ये साफ है कि अरविंद केजरीवाल टाइप राजनीति के जनक जितने अन्ना हैं उतना ही
मनमोहन सरकार है...
लोकतंत्र में बेहतर
गवर्नेंस की कोशिश में जनता हमेशा लगी रहती है...देश को बेहतर तौर पर चलाने के
बारे में जितना मंथन देश की आम जनता करती है उतना तो देश की संसद भी नहीं
करती...हालांकि इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि बेहतरी की उम्मीद में जनता
अतिश्योक्तियों पर भी भरोसा करने लगी है...नरेंद्र मोदी बेहतर विकल्प थे या नहीं ये
पांच सालों बाद ही तय हो पाएगा लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि चुनावी सभाओं
में नरेंद्र मोदी जब बोलते थे तो लगता था कि वो वही बोल रहे हैं जो हम सुनना चाह
रहे हैं...लेकिन सरकार बनने के दो सालों बाद ही न जाने क्यों ये लगने लगा कि मोदी
सरकार वो सबकुछ नहीं कर रही है जिसकी हम उससे उम्मीद कर रहे थे...
मोदी सरकार के बनने के
दो सालों में कई ऐसी बहसें भी देश की मुख्य धारा में आ गईं जिनकी उम्मीद देश का
पढ़ा लिखा तबका नहीं कर रहा था...देश के इस तबके को विरोध जताने की इच्छा हुई और
रास्ता कन्हैया जैसों से मिलता नजर आ रहा है...हां, ये जरूर है कि जिस विरोध के
प्याले को मनमोहन सिंह की सरकार ने दस सालों में जनता को पिलाया उसे नरेंद्र मोदी
की सरकार ने दो सालों में जनता को पूरा पिला दिया...
इस बात को दावे के साथ
नहीं कहा जा सकता कि कन्हैया का राजनीतिक लक्ष्य क्या होगा लेकिन अगर कन्हैया को
प्रतीक के तौर पर लिया जाए तो इस बात की पूरी संभावना है कि जिस तरह मनमोहन सरकार
ने अरविंद केजरीवाल दिया उसी तरह से मोदी सरकार कन्हैया को देगी....
कन्हैया को लेकर भावुक
होने और उसके साथ खड़े होने से पहले हमें ये समझना होगा कि हम भारतीय राजनीति को
लेकर लक्ष्यों को बेहद करीब में रख लेते हैं...ऐसी प्रवृति मेरी समझ में लोकतंत्र
की गंभीरता और टिकाऊपन के लिए ठीक नहीं है....हालांकि इन सब बहसों के बीच न जाने
क्यों कन्हैया वही सब बोल रहा है जिसे कहने की हम कोशिश कर रहे थे और जिसे सुनना
हमें अच्छा लग रहा है....
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-03-2016) को "ख़्वाब और ख़याल-फागुन आया रे" (चर्चा अंक-2273) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'