गौरी लंकेश की हत्या के बाद बोधिसत्व की एक कविता
अपना शुभ लाभ देख कर मैं चुप हूँ गौरी लंकेश
एक एक कर मारे जा रहे हैं लोग
और मैं चुप हूँ
मैं चुप हूँ
इसीलिए किसी भी
खतरे में नहीं मैं गौरी लंकेश ?
मैं देख नहीं रहा उधर
लोग मारे जा रहे हैं जिधर
जिधर जहाँ आग लगी है
जिधर संताप का सुराज है
वह दिशा ओझल है मुझसे ।
सुनों गौरी लंंकेश ।
मैं बोलूँगा तो
पद्मश्री नहीं मिलेगा मुझे
मैं बोलूँगा तो
पुरस्कार नहीं मिलेगा मुझे
मैं बोलूँगा तो
भारत रत्न नहीं बन पाऊँगा ।
देखो गौरी
कितना
सुखी हूँ और सुरक्षित हूँ मैं चुप रह कर
कितना उज्जवल भविष्य है मेरा
हर दिशा से शुभ और लाभ से घिरा हूँ ।
और कितना बोलूँंगा
हर दिन होगी हत्या
हत्यारे कितने कितने हैं
कितने रूप में
अनूठे और सर्वव्यापी
कण-कण में है उनका प्रभाव
उत्तर दक्षिण
पूरब पच्छिम मध्य भारत
सब में सर्वत्र समान
हैं वे विराजमान ।
वे तो हत्यारे हैें
उनसे कितना मुकाबला करूँगा
कितनों को मारते रहेंगे
किन किन का
शोक मनाता रहूँगा गौरी ।
और जब हत्यारों को विरोध पसंद नहीं
तो कुछ दिन
चुप रह जाना क्या बुरा है
उनके मन का दो एक नारा
लगा देने में
क्या चला जाता है मेरा या तुम्हारा गौरी ?
तो अब मान लो कि
मेरे पास तक किसी गौरी लंकेश की
हत्यारी सूचना नहीं हैै
कौन था पनसारे
कौन था दाभोलकर
कौन था कलबुर्गी
मैं किसी के शोक में नहीं ।
गोरखपुर का नाम मैं नहीं जानता
मुजफ्फरपुर कहाँ है जापान में या चीन में
या बांग्लादेश में
यह जानकर भी क्या कर लूँगा
गौरी लंकेश कौन थी?
क्या थी
यह जान कर क्या करूँगा ?
कितनी औरतों को घर में जलाते हैं
कितने बच्चों को
कितनेे बूढ़ों को
किसानों को कब से मारते आ रहे हैं
निर्विरोध अविरल अविराम
तब भी तो चुप रहता हूँ मैं
हे राम ।
ओह सावन भादौं के
इन उत्फुल्ल दिनों में
यह शोक रुदन का राग लिए मैं क्यों बैठूँ
बादल घिर आए हैं
तड़ित का मोहक अनुनाद
झंकृत कर रहा है
कातर हृदय को
तन्वंगी कामनाओं के
किल्लोल से बाहर क्यों देखूँ ।
देख रहा हूँ
रातें बड़ी कोमल और पारदर्शी हो रही हैं
आलोकित है विकट अंधकार
दिखती है हर दिशा तार तार ।
देख रहा हूँ शामें कितनी बहुरंगी
पर सब पर
एक रंग का कफन चढ़ा है
एक ही रंग का मुकुट मढ़ा है ।
और दिन दुपहरी नहीं झलकती राहें
अकाल बेला सा हो जाता है संसार
नहीं सुझाता किसी दिशा का वार पार ।
ऐसा युग पहले कभी नहीं आया था
जब हाहाकार को मंगलगान सा
समाज ने मिलकर गाया था
जब शोक को समय ने माथे चढ़ाया था
ऐसा युग पहले कभी नहीं आया था ।
ओह प्रज्वलित गौरी
मैं इस लुभावने हाहाकार की
आरती उतारूँगा
मैं हत्यारों को 'भारत'
और हत्या को 'यज्ञ' पुकारूँगा
मैं हर दिन हर पल
महायुद्ध हारूँगा ।
देखो
मुझे पद्मश्री पाना है
मुझे भारत रत्न होना है
मुझे हर हत्या और शोक से परे रहना है
मुझे केवल चुप रहना है ।
चुप रहना अब मेरा राष्ट्रीय धर्म है गौरी
हत्या करना जैसे अब एक राष्ट्रीय कर्म है ।
मैं राष्ट्र धर्म निभाऊँगा
मैं चुप रह कर हत्यारों की महिमा
गुनगुनाऊँगा
तभी तो मनचाहा पाऊँगा ।
तुम्हें मरना था तुम मरी
मुझे जीना है
मान मर्यादा का अमित हलाहल पीना है
सुन लो गौरी लंकेश ।
अब मैं किसी हाल में
शुभ और लाभ से ध्यान न हटाऊँगा
मैं तो हत्या और हत्यारा गुन गाऊँगा ।
मैं गौरी लंकेश की तरह क्यों मारा जाऊँ
मैं क्यों नहीं सब कुछ भूल कर
एक विराट नींद सो जाऊँ ?
क्यों नहीं मैं महामरण गान गाऊँ ?
क्यों नहीं मैं तम आरोहण कर जाऊँ
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