अक्सर तुम्हारे बिम्ब का आकार उतर आता है मुझमे निराकार साकार क्या है कुछ भी तो नहीं कह सकता हाँ यह ज़रूर है कि आकार तुम से ही है कभी व्योम का कोई सिरा तलाशते जब दूर निकाल जाता हूँ आक़र तुम्हारे इसी स्वरुप में सिमट जाता हूँ मैं जानता हूँ तुम स्वतंत्र हो पर बंधन भी तुम्हे प्रिय हैं अधिकार और स्वीकार भाव मेरे हैं यह अनुबंध भी तो मेरे हैं तुम तो हमेशा से मुक्त रहे हो रूई के फाहे पर चलने की कोशिश ओह देखो तो, क्या स्वप्न है नहीं आह्लाद से विपन्न है खिलखिलाकर हंस रहे हो ना तुम? हंसो और हंसो कभी कभी विपन्न के लिए भी हँसना चाहिए किसी स्वप्न के लिए भी हँसना चाहिए तभी अचानक रूई के फाहे बदल बन गए ओह नहीं वाह अब बारिश होने वाली है देखना प्रेम बरसेगा तुम भी आना रससिक्त हो जाना आखिर तुम्हे भी तो प्रेम है.
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर