गूंथ गयी है वह जमीन मेरी आत्मा में सालती है मेरे उतप्त प्राण रचती है मेरी मेधा के त्रसरेणु जगाती है विस्मृत हो चुके कूपों में एक त्वरा , एक त्विषा कोंचती है अपने इतिहास का बल्लम मेरे शरीर में, पीड़ा की शिराओं के अंत तक तोड़ देती है अपने हठ की कटार अस्थियों की गहराई में धीमे से दबा देती है अपने बीज मेरे उदर की की तहों में सींचती है वह नदी मेरे स्वप्न बुनती है मुझे धीमे से मद्धम स्वरों में पिरो कर वो वीथियाँ, जोतती है मेरी बंजर चेतना घुस कर मेरे स्वप्न तंतुओं में छेड़ती है एक राग बहुत महीन, बहुत गाढ़ धंस गयी है वह सुबह मेरी नींदों में धोती है जो मुझे मंदिरों के द्वार तक झांकती है मेरे अंधेरों में कुरेद कर जगाती है मेरे सोये हुए प्रश्नों को पवित्र करती है मुझे मेरे आखिरी बिंदु तक एक स्पर्श रचता है मुझे गढ़ता है अपने चाक पर, अपनी परिभाषा में, पकाता है अलाव में धीमी आंच पर गलाता है मुझे अपने अवसादों तक टेरती हैं मीनारों से लटकी आजानें मेरे दोष बोध को सीढ़ियों पर बैठा जो खोजता है अपने उद्धार के मंत्र, अपनी मुक्ति का तंत्र कन्धों पर लाद कर लाया हूँ उत्कंठा के स्तूप समा गयी है सारी दिशाएं मेरे
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर