मैं ये दावा तो नहीं करता कि इस शीर्षक को पढ़ने वालों की बड़ी तादात शायद इस शीर्षक का मतलब ना समझ पाए लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि एक आदमी तो कम से कम होगा ही जिसे शायद इसका अर्थ समझने में कुछ परेशानी हो तो साहब बारात का मतलब आप जानते ही होंगे(नहीं जानते तो डूब मरिये कहीं, आजकल नालों में भी इतना पानी है कि काम हो जायेगा) और जहाँ तक बात बसिऔरा कि है तो जब घर मैं खाना बच जाता है तो उसे बासी कहते हैं और जब बारात या किसी अन्य बड़े आयोजन में बचा खाना फिर से परोसा जाता है तो उसे बसिऔरा कहते हैं.....अब समझ गए होंगे आप(नहीं समझे तो......) वर्तमान में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भी हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है..पूरी बारात है लेकिन परोसा जा रह है वही बासी भोजन. दूरदर्शन का एक अपना ज़माना था. सधी हुयी भाषा में किसइ सरकारी प्रेस विज्ञप्ति की तरह ख़बरें पढ़ दी जाती थी. धीरे धीरे परिदृश्य बदलने लगा और निजी क्षेत्र में मीडिया का पदार्पण हुआ. बुद्धू बक्सा समझदार होने लगा. अब टीवी पर ऐसी ख़बरें बोलने और दिखने लगी जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. एदुम से लगा कि इस देश में गरीबों और दलितों का नया मसीहा आ गया. अब सूरत बदल जाएगी. समाज का वंचित वर्ग सबकुछ पा जायेगा. देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी. तानाशाह होते जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह बनेंगे. लोकतांत्रिक आधार वाला देश सांस्कृतिक दृढ़ता और परिपक्व सभ्यता के साथ प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ के और अधिक मजबूत होने का उत्सव मनायेगा. लेकिन अब के हालात कुछ अलग हैं. ख़ास तौर पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने बहुत जल्द ही एक ऐसी स्थिथि में खुद को पहुंचा लिया जिसकी उम्मीद नहीं थी. ख़बरों को हद से अधिक खींचना, बार बार एक ही ख़बर को दिखाना, गंभीर शब्दों से दूरी बनना, सनसनी के लिए तथ्यों के साथ छेड़छाड़, ख़बरों को प्रोफाइल के नज़रिए से देखना. ये सबकुछ मीडिया को बधाई से अधिक आलोचना का पात्र बनता है.
बदलते परिवेश में मीडिया से जुड़े पुरनियों को नयी सोच के साथ सामने आना होगा. समाज की अवधारणा इस देश में बदल रही है. देश राज्य में बदला, राज्य जातियों में. बात शहर से होते हुए मोहल्ले में सिमटी और अब नज़रों के दायरे से ज्यादा कुछ नहीं दिखता. मीडिया भी अगर इसी राह पर चल पड़ेगी तो क्या होगा. ख़बरों के चुनाव में इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि वो समाज के बड़े हिस्से से जुड़ी हो. हम सब जब मॉस कॉम की पढ़ाई किया करते थे तो हमें बताया जाता था कि ख़बरों का करीबी बड़े सामाजिक दायरे से वास्ता होना चाहिए. अमेरिका में दस लोग की मौत से अधिक ज़रूरी ख़बर मोहल्ले में एक व्यक्ति के साथ हुयी दुर्घटना है. इससे अधिक जगह मिलनी चाहिए. लेकिन क्या आज मीडिया इस नियम को मानती है. आज भी भारत के गावों में लगभग ६५ फ़ीसदी आबादी रहती है लेकिन न्यूज़ चैनलों के कंटेंट से गाँव गायब हैं. गाँव गीरावं की खबरे कोट पैंट पहने एंकर नहीं बोलते हैं. पिछले साल के बाद इस साल एक बार फिर गावों में पानी कि कमी है. बारिश खूब हुयी लेकिन तब जब धान की रोपाई का वक़्त निकाल चुका था. मजबूरन खेत खाली रह गए. अब दुनिया देख रही है की दिल्ली में बारिश ही रहो है. आईटीओ डूब जा रहा है. यमुना का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है. दिल्ली में बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया है लेकिन देश के कई गावों में बरसात के बीच सूखे का दर्द उभर रहा है. इसे मीडिया नहीं दिखाना चाहती. गावों में भूमिगत जलस्तर तेजी से गिर रहा है. कई गावों में पीने योग्य पानी की कमी हो रही है. फसलों के लिए खाद कि कमी है. सड़कें नहीं हैं. इलाज के लिए आज भी लोग शहरों की ओर भागते हैं. पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं है. सरकारी योजनाओं का बुरा हाल है. देश का पेट भरने वाला ग्रामीण भूखा सो रहा है. किसान कहे जाने वाले इस जीव की दास्तान टीवी के चौखटे से गाएब है. इसका ज़िम्मेदार कौन है?
देश में हिंदी मीडिया ने तेजी से तरक्की की. शुरुआत में समाज के कई रंग सामने आये. धीरे धीरे सनसनी का रंग हिंदी मीडिया पर चढ़ा और अब तो हिंदी मीडिया को बस अपना ही रंग पता है. मीडिया के शीर्ष पर बैठे लोग सोचते हैं कि वह जो दिखा रहें हैं वही सही है. जो उनका नज़रियअ है वही सबका है. यहीं से बात बिगड़ती है. एक बात और है. मीडिया के साथ- साथ मीडिया पर्सन्स की भी तरक्की हो गयी. कथित आधुनिक होने की सभी योग्यताएं उनमे आ गयीं. अब उनका अपना एक स्तातास हो गया. और जब आँखों पर ऐसा चश्मा चढ़ गया तो देश का किसान, मजदूर सब त्याज्य समझ में आने लगे.नॉएडा और दिल्ली में इलेक्ट्रोनिक न्यूज़ चैनलों में बैठे लोग स्ट्रिंगर से पूछते हैं कि मरने वाला कैसी फॅमिली का था? अगर ठीक ठाक था तो भेज दो वरना ख़बर ड्रॉप. एक गरीब कि मौत को ख़बर बनने का कोई हक नहीं है. जब तक उसे राजनीतिक भूख या सियासी चालों ने ना मारा हो.
जब तक नॉएडा और दिल्ली में बैठे पत्रकार ख़बरों में प्रोफाईल तलाशते रहेंगे तब तक ख़बरों का इस देश के आम आदमी के साथ सरोकार नहीं बन पायेगा. दिल्ली और मुम्बई के बाहर भी भारतीय रहते हैं. इस बात को समझने का वक़्त आ गया है. बासी होती ख़बरों में कुछ नया खोजना होगा. जिसमे सनसनी ना हो बस ख़बर हो.
बदलते परिवेश में मीडिया से जुड़े पुरनियों को नयी सोच के साथ सामने आना होगा. समाज की अवधारणा इस देश में बदल रही है. देश राज्य में बदला, राज्य जातियों में. बात शहर से होते हुए मोहल्ले में सिमटी और अब नज़रों के दायरे से ज्यादा कुछ नहीं दिखता. मीडिया भी अगर इसी राह पर चल पड़ेगी तो क्या होगा. ख़बरों के चुनाव में इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि वो समाज के बड़े हिस्से से जुड़ी हो. हम सब जब मॉस कॉम की पढ़ाई किया करते थे तो हमें बताया जाता था कि ख़बरों का करीबी बड़े सामाजिक दायरे से वास्ता होना चाहिए. अमेरिका में दस लोग की मौत से अधिक ज़रूरी ख़बर मोहल्ले में एक व्यक्ति के साथ हुयी दुर्घटना है. इससे अधिक जगह मिलनी चाहिए. लेकिन क्या आज मीडिया इस नियम को मानती है. आज भी भारत के गावों में लगभग ६५ फ़ीसदी आबादी रहती है लेकिन न्यूज़ चैनलों के कंटेंट से गाँव गायब हैं. गाँव गीरावं की खबरे कोट पैंट पहने एंकर नहीं बोलते हैं. पिछले साल के बाद इस साल एक बार फिर गावों में पानी कि कमी है. बारिश खूब हुयी लेकिन तब जब धान की रोपाई का वक़्त निकाल चुका था. मजबूरन खेत खाली रह गए. अब दुनिया देख रही है की दिल्ली में बारिश ही रहो है. आईटीओ डूब जा रहा है. यमुना का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है. दिल्ली में बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो गया है लेकिन देश के कई गावों में बरसात के बीच सूखे का दर्द उभर रहा है. इसे मीडिया नहीं दिखाना चाहती. गावों में भूमिगत जलस्तर तेजी से गिर रहा है. कई गावों में पीने योग्य पानी की कमी हो रही है. फसलों के लिए खाद कि कमी है. सड़कें नहीं हैं. इलाज के लिए आज भी लोग शहरों की ओर भागते हैं. पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं है. सरकारी योजनाओं का बुरा हाल है. देश का पेट भरने वाला ग्रामीण भूखा सो रहा है. किसान कहे जाने वाले इस जीव की दास्तान टीवी के चौखटे से गाएब है. इसका ज़िम्मेदार कौन है?
देश में हिंदी मीडिया ने तेजी से तरक्की की. शुरुआत में समाज के कई रंग सामने आये. धीरे धीरे सनसनी का रंग हिंदी मीडिया पर चढ़ा और अब तो हिंदी मीडिया को बस अपना ही रंग पता है. मीडिया के शीर्ष पर बैठे लोग सोचते हैं कि वह जो दिखा रहें हैं वही सही है. जो उनका नज़रियअ है वही सबका है. यहीं से बात बिगड़ती है. एक बात और है. मीडिया के साथ- साथ मीडिया पर्सन्स की भी तरक्की हो गयी. कथित आधुनिक होने की सभी योग्यताएं उनमे आ गयीं. अब उनका अपना एक स्तातास हो गया. और जब आँखों पर ऐसा चश्मा चढ़ गया तो देश का किसान, मजदूर सब त्याज्य समझ में आने लगे.नॉएडा और दिल्ली में इलेक्ट्रोनिक न्यूज़ चैनलों में बैठे लोग स्ट्रिंगर से पूछते हैं कि मरने वाला कैसी फॅमिली का था? अगर ठीक ठाक था तो भेज दो वरना ख़बर ड्रॉप. एक गरीब कि मौत को ख़बर बनने का कोई हक नहीं है. जब तक उसे राजनीतिक भूख या सियासी चालों ने ना मारा हो.
जब तक नॉएडा और दिल्ली में बैठे पत्रकार ख़बरों में प्रोफाईल तलाशते रहेंगे तब तक ख़बरों का इस देश के आम आदमी के साथ सरोकार नहीं बन पायेगा. दिल्ली और मुम्बई के बाहर भी भारतीय रहते हैं. इस बात को समझने का वक़्त आ गया है. बासी होती ख़बरों में कुछ नया खोजना होगा. जिसमे सनसनी ना हो बस ख़बर हो.
'जब तक नॉएडा और दिल्ली में बैठे पत्रकार ख़बरों में प्रोफाईल तलाशते रहेंगे तब तक ख़बरों का इस देश के आम आदमी के साथ सरोकार नहीं बन पायेगा. दिल्ली और मुम्बई के बाहर भी भारतीय रहते हैं. इस बात को समझने का वक़्त आ गया है. बासी होती ख़बरों में कुछ नया खोजना होगा. जिसमे सनसनी ना हो बस ख़बर हो.' आपने सही मुद्दा उठाया है। लेख की भाषा प्रारंभ में काफी हल्की है, गम्भीर मुद्दे उठाते हुए इससे बचना चाहिए। पोस्ट करने से पूर्व वर्तनी की गलतियाँ सुधार लेना भी हिन्दी की सेवा ही है।
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