जीनियस जीनियस होता है... उसके जरिये या उसमें अदाकारी का पुट खोजना बेवकूफी होती है। शायद इसीलिये थ्री ईडियट्स आमिर खान के होते हुये भी आमिर खान की फिल्म नहीं है। थ्री ईडियट्स पूरी तरह राजू हिराणी की फिल्म है। वही राजू जिन्होने मुन्नाभाई एमबीबीएम के जरीये पारंपरिक मेडिकल शिक्षा के अमानवीयपन पर बेहद सरलता से अंगुली उठायी। यही सरलता वह थ्री ईडियट्स में इंजीनियरिंग की शिक्षा के मशीनीकरण को लेकर बताते हुये प्रयोग-दर-प्रयोग समझाते जाते हैं। राजू हिराणी नागपुर के हैं और नागपुर शहर में नागपुर के दर्शको के बीच बैठ कर फिल्म देखते वक्त इसका एहसास भी होता है कि थ्री ईडियट्स में चाहे रेंचो की भूमिका में आमिर खान जिनियस हैं, लेकिन सिल्वर स्क्रिन के पर्दे के पीछे किसी कैनवस पर अपने ब्रश से पेंटिंग की तरह हर चरित्र को उकेरते राजू हिराणी ही असल जिनियस हैं। यह नजरिया दिल्ली या मुबंई में नहीं आ सकता। नागपुर के वर्डी क्षेत्र में सिनेमा हाल सिनेमैक्स में फिल्म रिलिज के दूसरे दिन रात के आखरी शो में पहली कतार में बैठकर थ्री इडियट्स देखने के दौरान पहली बार महसूस किया कि आमिर खान का जादू या उनका प्रचार चाहे दर्शकों को थ्री इडियट्स देखने के लिये सिनेमाघरो में ले आया और पहले ही दिन फिल्म ने 29 करोड़ का बिजनेस कर लिया, लेकिन पर्दे के पीछे जिस जादूगरी को राजू हिराणी अंजाम दे रहे थे उसे कहीं ज्यादा शिद्दत से नागपुर के दर्शक महसूस कर रहे थे।
जुमलों में शिक्षा के बाजारीकरण और रैगिंग के दौरान कोमल मन की क्रिएटिविटी ही कैसे समूची शिक्षा पर भारी पड़ जाती है, इसका एहसास कलाकार से नहीं फिल्मकार से जोड़ना चाहिये और यह सिनेमैक्स के अंधेरे में गूंजते हंगामे में समझ में जाता है, जब एक दर्शक आमिर खान की रैगिंग के दौरान किये गये प्रयोग पर चिल्ला कर कहता है... वाह भाऊ राजू! हिसलप कालेज का फंडा चुरा लिया। तो किसी प्रयोग पर हाल में आवाज गूंजती है... भाउ... यह तो अपना राजू ही कर सकता है। कमाल है फिल्म परत-दर-परत आगे बढ़ती है तो राजू हिरानी की तराशी पेंटिंग के रंगो में दर्शक भी अपना रंग खोजता चलता है और इंटरवल के दौरान लू में एक दर्शक मुझे इसका एहसास करा देता है कि राजू के सभी प्रयोग मशीनी नहीं होंगे, वह मानवीय पक्षों को भी टटोलेंगे। बात कुछ यूँ निकली... लू करते वक्त...
“आपको कैसी लग रही है फिल्म?”
“अच्छी है... मजा आ रहा है।”
“भाउ राजू की फिल्म में मजा तो होना ही है। राजू कौन? अपना राजू हिराणी।”
“अरे! लेकिन मुझे तो आमिर खान की फिल्म लग रही है।”
“का बोलता... आमिर खान। भाऊ, आमिर खान तो एक्टिंग कर रहा है।”
“तो क्या हुआ... एक्टिंग ना करें तो फिल्म कैसे चलेगी?”
“भाऊ, एक बात बताओ... रेंचो जीनियस है न?”
“हाँ है... तो?”
“तो क्या, जीनियस तो जीनियस है... वह कुछ भी करेगा तो वह हटकर ही होगा ना।”
“अरे, लेकिन इसके लिये एक्टिंग तो करनी ही पड़ेगी।”
“लेकिन भाऊ... इंटरवल तक आपको एक बार भी लगा कि एक्टिंग से रैंचो यानी आमिर खान जीनियस है? फिल्म में हर प्रयोग को टेक्नालाजी से प्रूफ किया जा रहा है ना... तो फिर आमिर रहे या शाहरुख... क्या अंतर पड़ता है!”
“लेकिन गुरू, राजू हिरानी का हर प्रयोग भी टेक्नोलॉजी से जुड़ा है और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के तरीके को लेकर ही वह सवाल भी खड़ा कर रहा है।”
“सही कहा भाऊ आपने... लेकिन इंतजार करो, राजू कुछ तो ऐसा करेगा जिससे जिन्दगी जुड़ जाये। जैसे मुन्नाभाई में 12 साल से बीमार लाइलाज मरीज के शरीर में भी हरकत आ जाती है, तो सारी मेडिकल पढ़ाई धरी-की-धरी रह जाती है... कुछ ऐसा तो राजू भाई करेंगे।”
हम लू के बाहर आ चुके थे और बात-बात में उसने बताया कि राजू हिरानी के ताल्लुक नागपुर के हिसलप कॉलेज से भी रहे हैं। कैसे कब... यह पूछने से पहले ही इंटरवल के बाद फिल्म शुरु होने की आवाज सुनायी दी। हम हाल के अंदर दौड़े। लेकिन मेरे दिमाग में वह आवाज फिर कौंधी... वाह राजू भाई! यह तो हिसलप का फंडा चुरा लिया। खैर, फिल्म के आखिर में जिस तरह गर्भ से बच्चे को निकालने को लेकर देसी तकनीक का सहारा लिया गया, उसे देखते वक्त मैंने भी महसूस किया कि आमिर खान अचानक महत्वहीन हो गया है और देसी प्रयोग हावी होते जा रहे हैं, जिनके आसरे दुनिया की सबसे खूबसूरत इनामत - बच्चे का जन्म - जुड़ गयी। यानी आमिर सिर्फ एक चेहरा भर है। फिल्म खत्म हुई तो कालेज का जीनियस रैंचो साइन्टिस्ट बन चुका था। लेकिन यह साइंटिस्ट रैंचो को देखते वक्त एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि इसमें आमिर की अदाकारी का कोई अंश है, बल्कि बार-बार यही लगा कि इस भूमिका को निभाते हुये कोई भी कलाकार जीनियस से साइंटिस्ट बन सकता है। और दिमाग में आमिर खान की जगह रैंचो का करेक्टर ही घुमड़ रहा था। यह वाकई राजू हिरानी की फिल्म है, लेकिन अदाकारी को लेकर कोई कलाकार इसमें पहचान बनाता है तो वह वही बोमेन ईरानी हैं जिसने मुन्नाभाई में मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल की तानाशाही को जिया और थ्री ईटियट्स में इंजिनियरिंग कालेज के डायरेक्टर रहते हुये खुद को किसी मशीन में तब्दील कर लिया। लेकिन दोनों ही चरित्र जब मानवीय पक्ष से टकराते हैं, तो राजू हिरानी द्वारा रचा गया बोमन का चरित्र कुछ इस तरह चकनाचूर होता है जिससे झटके में उबरना भी मुश्किल होता है और डूबना भी बर्दाश्त नहीं हो पाता। यानी बोमन ईरानी की अदाकारी से दर्शकों को प्रेम हो ही जाता है और उसी की खुमारी में फिल्म खत्म होती है।
ऐसे में दिमाग में सवाल उठता ही है कि आखिर आमिर खान इस फिल्म में हैं कहाँ? अगर फिल्म में होते तो वह अपने प्रचार के दौरान देश भ्रमण में शिक्षा संस्थाओं से जुड़े मुद्दे उठाते। क्योंकि चंदेरी या बनारस की गलियों में आज भी प्राथमिक स्कूल तक नहीं हैं और जिनकी लागत मारुति 800 से ज्यादा की नहीं है। और देश में आर्थिक सुधार के बाद से मारुति 800 जितनी बिकी है उसका दस फीसदी भी प्राथमिक स्कूल नहीं खुल पाये हैं। लेकिन आमिर खान फिल्म के धंधे से जुड़े हैं, इसलिये वह सरल भाषा में समझते हैं कि मुनाफा ना हो तो फिल्म फिल्म नहीं होती। इसलिये आमिर खान फिल्म में काम करने के पैसे नहीं लेते, बल्कि रेवेन्यू शेयरिंग में उनकी हिस्सेदारी होती है और उनका टारगेट थ्री ईडियट्स को लेकर सौ करोड़ रुपये बनाना है। यह मिस्टर परफैक्शनिस्ट है। मुझे लगा यही जादू मनमोहन सिंह का है... तभी तो वह राजनीति के मिस्टर परफैक्शनिस्ट हो चले हैं। नागपुर में थ्री ईडियट्स देखते वक्त सोचा... काश राजू हिरानी... मिस्टर परफैक्शनिस्ट पर फिल्म बनाये और सरलता से धंधे के गणित को सरोकार से समझा दे। फिर देखेंगे प्रचार के तरीके क्या होंगे और कितने शहरों के सिनेमैक्स में कोई दर्शक अंधेरे में चिल्ला कर कैसे कहता है... भाउ, यह तो अपने दिल्ली-मुबंई के फंडे हैं।
from punya prasoon bajpayi
जुमलों में शिक्षा के बाजारीकरण और रैगिंग के दौरान कोमल मन की क्रिएटिविटी ही कैसे समूची शिक्षा पर भारी पड़ जाती है, इसका एहसास कलाकार से नहीं फिल्मकार से जोड़ना चाहिये और यह सिनेमैक्स के अंधेरे में गूंजते हंगामे में समझ में जाता है, जब एक दर्शक आमिर खान की रैगिंग के दौरान किये गये प्रयोग पर चिल्ला कर कहता है... वाह भाऊ राजू! हिसलप कालेज का फंडा चुरा लिया। तो किसी प्रयोग पर हाल में आवाज गूंजती है... भाउ... यह तो अपना राजू ही कर सकता है। कमाल है फिल्म परत-दर-परत आगे बढ़ती है तो राजू हिरानी की तराशी पेंटिंग के रंगो में दर्शक भी अपना रंग खोजता चलता है और इंटरवल के दौरान लू में एक दर्शक मुझे इसका एहसास करा देता है कि राजू के सभी प्रयोग मशीनी नहीं होंगे, वह मानवीय पक्षों को भी टटोलेंगे। बात कुछ यूँ निकली... लू करते वक्त...
“आपको कैसी लग रही है फिल्म?”
“अच्छी है... मजा आ रहा है।”
“भाउ राजू की फिल्म में मजा तो होना ही है। राजू कौन? अपना राजू हिराणी।”
“अरे! लेकिन मुझे तो आमिर खान की फिल्म लग रही है।”
“का बोलता... आमिर खान। भाऊ, आमिर खान तो एक्टिंग कर रहा है।”
“तो क्या हुआ... एक्टिंग ना करें तो फिल्म कैसे चलेगी?”
“भाऊ, एक बात बताओ... रेंचो जीनियस है न?”
“हाँ है... तो?”
“तो क्या, जीनियस तो जीनियस है... वह कुछ भी करेगा तो वह हटकर ही होगा ना।”
“अरे, लेकिन इसके लिये एक्टिंग तो करनी ही पड़ेगी।”
“लेकिन भाऊ... इंटरवल तक आपको एक बार भी लगा कि एक्टिंग से रैंचो यानी आमिर खान जीनियस है? फिल्म में हर प्रयोग को टेक्नालाजी से प्रूफ किया जा रहा है ना... तो फिर आमिर रहे या शाहरुख... क्या अंतर पड़ता है!”
“लेकिन गुरू, राजू हिरानी का हर प्रयोग भी टेक्नोलॉजी से जुड़ा है और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के तरीके को लेकर ही वह सवाल भी खड़ा कर रहा है।”
“सही कहा भाऊ आपने... लेकिन इंतजार करो, राजू कुछ तो ऐसा करेगा जिससे जिन्दगी जुड़ जाये। जैसे मुन्नाभाई में 12 साल से बीमार लाइलाज मरीज के शरीर में भी हरकत आ जाती है, तो सारी मेडिकल पढ़ाई धरी-की-धरी रह जाती है... कुछ ऐसा तो राजू भाई करेंगे।”
हम लू के बाहर आ चुके थे और बात-बात में उसने बताया कि राजू हिरानी के ताल्लुक नागपुर के हिसलप कॉलेज से भी रहे हैं। कैसे कब... यह पूछने से पहले ही इंटरवल के बाद फिल्म शुरु होने की आवाज सुनायी दी। हम हाल के अंदर दौड़े। लेकिन मेरे दिमाग में वह आवाज फिर कौंधी... वाह राजू भाई! यह तो हिसलप का फंडा चुरा लिया। खैर, फिल्म के आखिर में जिस तरह गर्भ से बच्चे को निकालने को लेकर देसी तकनीक का सहारा लिया गया, उसे देखते वक्त मैंने भी महसूस किया कि आमिर खान अचानक महत्वहीन हो गया है और देसी प्रयोग हावी होते जा रहे हैं, जिनके आसरे दुनिया की सबसे खूबसूरत इनामत - बच्चे का जन्म - जुड़ गयी। यानी आमिर सिर्फ एक चेहरा भर है। फिल्म खत्म हुई तो कालेज का जीनियस रैंचो साइन्टिस्ट बन चुका था। लेकिन यह साइंटिस्ट रैंचो को देखते वक्त एक बार भी महसूस नहीं हुआ कि इसमें आमिर की अदाकारी का कोई अंश है, बल्कि बार-बार यही लगा कि इस भूमिका को निभाते हुये कोई भी कलाकार जीनियस से साइंटिस्ट बन सकता है। और दिमाग में आमिर खान की जगह रैंचो का करेक्टर ही घुमड़ रहा था। यह वाकई राजू हिरानी की फिल्म है, लेकिन अदाकारी को लेकर कोई कलाकार इसमें पहचान बनाता है तो वह वही बोमेन ईरानी हैं जिसने मुन्नाभाई में मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल की तानाशाही को जिया और थ्री ईटियट्स में इंजिनियरिंग कालेज के डायरेक्टर रहते हुये खुद को किसी मशीन में तब्दील कर लिया। लेकिन दोनों ही चरित्र जब मानवीय पक्ष से टकराते हैं, तो राजू हिरानी द्वारा रचा गया बोमन का चरित्र कुछ इस तरह चकनाचूर होता है जिससे झटके में उबरना भी मुश्किल होता है और डूबना भी बर्दाश्त नहीं हो पाता। यानी बोमन ईरानी की अदाकारी से दर्शकों को प्रेम हो ही जाता है और उसी की खुमारी में फिल्म खत्म होती है।
ऐसे में दिमाग में सवाल उठता ही है कि आखिर आमिर खान इस फिल्म में हैं कहाँ? अगर फिल्म में होते तो वह अपने प्रचार के दौरान देश भ्रमण में शिक्षा संस्थाओं से जुड़े मुद्दे उठाते। क्योंकि चंदेरी या बनारस की गलियों में आज भी प्राथमिक स्कूल तक नहीं हैं और जिनकी लागत मारुति 800 से ज्यादा की नहीं है। और देश में आर्थिक सुधार के बाद से मारुति 800 जितनी बिकी है उसका दस फीसदी भी प्राथमिक स्कूल नहीं खुल पाये हैं। लेकिन आमिर खान फिल्म के धंधे से जुड़े हैं, इसलिये वह सरल भाषा में समझते हैं कि मुनाफा ना हो तो फिल्म फिल्म नहीं होती। इसलिये आमिर खान फिल्म में काम करने के पैसे नहीं लेते, बल्कि रेवेन्यू शेयरिंग में उनकी हिस्सेदारी होती है और उनका टारगेट थ्री ईडियट्स को लेकर सौ करोड़ रुपये बनाना है। यह मिस्टर परफैक्शनिस्ट है। मुझे लगा यही जादू मनमोहन सिंह का है... तभी तो वह राजनीति के मिस्टर परफैक्शनिस्ट हो चले हैं। नागपुर में थ्री ईडियट्स देखते वक्त सोचा... काश राजू हिरानी... मिस्टर परफैक्शनिस्ट पर फिल्म बनाये और सरलता से धंधे के गणित को सरोकार से समझा दे। फिर देखेंगे प्रचार के तरीके क्या होंगे और कितने शहरों के सिनेमैक्स में कोई दर्शक अंधेरे में चिल्ला कर कैसे कहता है... भाउ, यह तो अपने दिल्ली-मुबंई के फंडे हैं।
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