आज कल मीडिया वालों के लिए ख़बरें शुरू होती हैं तो ट्विटर से और खत्म होती हैं तो ट्विटर पर......अगर ट्विटर न हो तो मीडिया वालों को ख़बरों का अकाल परेशान कर देगा..अब हर खबर को ट्विटिया चश्मे से देखा जाता है और ट्विटिया सरोकार से आँका जाता है....मुझे लगता है कि ट्विटर वालों को ललित मोदी और शशि थरूर को सम्मानित करना चाहिए क्योंकि इनके ट्विट ने ट्विटर को खासी प्रसिद्धी दिलाई और इतने बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में विशेष अनुष्ठान करा एक मंत्री कि आहुति तक ले ली....मीडिया वालों को भी बुला कर सम्मानित करना चाहिए क्योंकि इनकी बदौलत पूरा देश ट्विटर मय हो गया.....लगा देश में अगर कहीं कुछ घटता है तो वो है ट्विटर...ट्विटर न हो तो देश में सन्नाटा छा जायेगा.....
इस ट्विटर से जुदा एक और मसला भी है...वैसे मीडिया वालो के नज़र में खेल का मतलब होता है क्रिकेट....ये बात एक बार फिर साबित भी हुयी है...आई पी एल का उत्सव मना कर मीडिया ने इसे साबित किया है.....अरबो रूपये के इस गोरख धंधे से जुडी हर छोटी बड़ी खबर को आम आदमी तक पहुँचाने कि कोशिश कि गयी मानो ये राष्ट्रीय महत्व कि खबरें हो....आई पी एल को लेकर जिस तरह से विवाद चल रहा है उसके बौजूद मीडिया इसके गलैमर से बाहर नहीं निकल पाई...एक बुलेटिन में ललित मोदी के 'खेल' के बारें में बताया गया तो अगली ही बुलेटिन आई पी एल मैचों और उसके बाद होने वाली बेहूदा पार्टियों के महिमा मंडन में....मीडिया के कुछ वरिष्ठ लोगों ने विचार व्यक्त किया कि दर्शक निर्लज्ज हो गएँ हैं..इतने विवादों के बाद भी चले गए सेमी फाईनल देखने...लेकिन इस व्यक्त्व को देने से पहले यह भी तो देखना चाहिए कि मीडिया ने अपने कंटेंट में इस आई पी एल को कितना महत्व दिया....?
यही मीडिया दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले कि कवरेज कर रही थी...लगा कि अब मीडिया इस मुद्दे को गंभीरता से ले रही है और देश के भीतर चल रहे इस युद्ध को लेकर कोई निर्णायक परिणाम सामने आएगा...मीडिया के दबाव से केंद्र और राज्य सरकारें आपसी तालमेल करने को बाध्य होंगी...लेकिन आई पी एल के मोह में बंधी मीडिया ने जल्द ही इस ओर से मुहं फेर लिया और दंतेवाड़ा समेत देश के नक्सल प्रभावित राज्यों में रहने वाले करोड़ों लोगों से भी जो इस दंश को झेल रहें हैं.....मीडिया इन इलाकों में रोज़गार, पेयजल, सड़क जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए जूझ रहें लोगों कि दास्तान दिखने में रूचि नहीं रखती..वहां के सामाजिक असंतुलन के बारे में कोई खबर तभी बनती है जब कोई बड़ा नक्सली हमला होता है...इन इलाकों में बेटी कि शादी के लिए कोई अपना सब कुछ पुश्तो के लिए गिरवी रख देता है तो कोई इलाज के अभाव में मर जाता है लेकिन मीडिया के लिए इन खबरों का कोई 'प्रोफाइल' नहीं है....
कहते हैं 'भारत' गांवों का देश है...बड़ी आबादी गांवों में बसती है...लेकिन मीडिया वालों के लिए इस देश का नाम 'इंडिया' है जो महानगरों में बसता है...तभी तो ख़बरें इस मुद्दे को लेकर नहीं बनती कि इस बार गेहूं का क्या दाम सरकार ने तय किया है और किसान को क्या मिल रहा है? और मिलना क्या चाहिए? आम की पैदावार कैसी होगी और मानसून कैसा आएगा तो फसलों पर क्या प्रभाव पड़ेगा..अगर मीडिया इन सारी बातों को बताती तो कहीं दूर किसी गांव में सेट टॉप बाक्स या छतरी लगा कर टी वी पर टकटकी लगाये आम इंसान को इस चौखटे के साथ अपने पन का एहसास होता लेकिन मीडिया ऐसा नहीं करती है...आखिर करे भी तो कैसे 'भारत का आम किसान इंडिया वालों कि तरह ट्विटर पर ट्विटीयाता भी तो नहीं.....
Ikdam sateek lekh..ek achhe lekh ke liye aapka dhanyawaad..jaroorat hai aap jaise logo ko aage aane ki..ik behtar samajh ke nirman ke liye..
जवाब देंहटाएंsir naya fashion hai kya media me rahkar media ko gali dena. par kuch bhi kahe aap kuch patrkaro ki himmat ki daag deta hun.
जवाब देंहटाएंअनूप जी आपकी टिप्पणी सर आँखों पर...लेकिन अगली बार जब आप के घर में कभी खाने में नमक अधिक हो जाये घर वालों को बोलना मत क्योंकि घर में अच्छा खाना बने इसकी जिम्मेदारी आपकी नहीं है...
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