आज माँ का दिन है...अफ़सोस है की मैं यह बात आपको शाम का अँधेरा होने के बाद बता रहा हूँ लेकिन इस बात का यकीन भी है की आप की जानकारी मेरे बताये जाने का मोहताज नहीं होगी...
आज एक लड़की का दसवां भी है...या शायद एक बेटी का भी ? आज एक औरत को पेरोल भी मिली है या शायद एक माँ को अपनी बेटी के दसवें और तेरहवें में शामिल होने की कानूनी अनुमति भी मिली है?
हालाँकि मेरा कुछ भी लिखना इस नज़रिए से देखा जायेगा की मैं निरुपमा को न्याय दिलाने की बात करने वाला हूँ या फिर दकियानूसी विचार धारा का पोषक हूँ....लेकिन इन दोनों ही तरह की बातों से अलग होकर मैं कुछ लिखने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ....पैराग्राफ बदलते ही निरुपमा का नाम आ गया...मुझे जहाँ तक लगता है की आप सभी निरुपमा से वाकिफ होंगे इसीलिए इस नाम को लिखने से पहले कोई भूमिका नहीं लिखी....वैसे मैंने निरुपमा को उसकी दुखद मौत के बाद जाना है...निरुपमा की मौत की खबर सुनते ही मेरे दिमाग में उसके घर वालों का ख्याल सबसे पहले आया था...लेकिन जब पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आई तबसे तो घर वालों का ही ख्याल रहता...आज हमारा देश तरक्की कर चुका है...कानून से ऊपर कुछ नहीं होता...हर मौत सबूतों के आधार पर हत्या, आत्महत्या, घटना कही जाती है....निरुपमा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ...पहले सबूत बता रहे थे की यह एक आत्महत्या है लेकिन फिर सबूतों ने रंग बदला तो यह एक हत्या करार दी गयी...लिहाजा पुलिस ने तत्परता दिखाते हुए एक महिला को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.....लोग कहते हैं की महिला रिश्ते में निरुपमा की माँ लगती है...बड़ा अजीब लगता है...ऐसे वाक्ये बहुत कम आते हैं जब किसी महिला को रिश्ते में बेटा या बेटी लगने वाले लड़के या लड़की की मौत का 'ज़िम्मेदार' मना जाना जाता है...क्षमा चाहूँगा यहाँ मैं 'आरोपी' शब्द का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा हूँ क्योंकि आप लोगों ने बताया है कि माँ तो जिम्मेदारियां उठाती है तो मुझे लगता है की अपने बच्चों को मौत की नींद सुलाने में भी माँ ज़िम्मेदारी ही निभाती होगी....
बात आगे बढ़े इससे पहले आपको एक पुरानी फिल्म में अदा किये गए संवाद का एक हिस्सा याद दिलाता हूँ....."रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं......" मुझे नहीं लगता की मेरे इस टुच्चे से ब्लॉग पर लिखी गयी इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई ऐसा भी होगा जो इस संवाद को भूल गया होगा ....खैर छोडिये , वैसे यह जानता था की इस फिल्म में संवाद लिखने वाले ने रिश्ते में बाप ही क्यों बनाया? लेकिन जिस तरीके से कोडरमा पुलिस ने काम किया है उससे अब यह संवाद लिखने का रास्ता साफ़ हो गया है कि "रिश्ते में तो मैं तुम्हारी माँ लगती हूँ..." और इसके बाद कलाकार अपने कथित बच्चे के साथ मारपीट कर सकती है......
माँ एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ निकाल पाना मेरे जैसे लोगों के लिए संभव नहीं है...पूरी दुनिया माँ ही तो है.... सभी मदर डे मना रहे हैं और एक माँ अपनी बेटी की मौत का आरोप लपेटे उसका दसवां...शायद यह दुखद है...क्योंकि महज खबरिया निगाह से देखने वाले इसे मजाक में ले सकते हैं लेकिन ह्रदय की गहराई से सोचन वाले वाक्यात पर दुखी होंगे...इस समय यह बात कहना बहुत मुश्किल है कि एक माँ कभी अपनी संतान का गला नहीं घोंट सकती लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं जा रहा है.....
लगे हाथ बात उस प्यार कि भी कर ली जाये जिसके चलते निरुपमा की जान गयी...यकीन प्यार एक कोमल एहसास है, यह मनुष्य को उसके अंतस तक एक स्फूर्त अनुभव कराता है....प्यार को प्रेम कहे तो यह और भी बेहतर अनुभूति होती है...पवित्रता का आभास होता है..प्रेम तो अमर होता है...क्या कभी प्रेम किसी मनुष्य को मृत्यु की ओर भी उन्मुख कर सकता है....?यह एक बड़ा सवाल है जिसको समझना हमारे संपूर्ण समाज के लिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि इस देश के लोगों को अब 'ऑनर किलिंग' के बारे में पाता चल चुका है.....निरुपमा और प्रियभांशु ने एक दूसरे से 'प्यार' किया या 'प्रेम' यह तो पता नहीं लेकिन माँ और प्रेम इन दोनों ही एहसासों के साथ कहीं भी मौत का जुड़ाव नहीं होता......लिहाजा लगता है कि दोनों ही एहसासों को सबूतों की निगाह से गुमराह किया गया है....
मेरी इस पोस्ट को पढ़ने वाले कई लोग ऐसे होंगे जो यह नहीं समझ पाएंगे कि मैं आखिर कहना क्या चाह रहा हूँ.....? खैर कोई बात नहीं आप कोशिश कीजिये मेरे और मेरी पोस्ट के बारे में कोई राय बनाने की, मैं इस बात पर सोचने की कोशिश करता हूँ कि मदर डे मना रहे इस देश में क्या माँ शब्द के मायने बदल गएँ हैं. ....हालांकि इसमें एक दिक्कत भी है...बार बार मेरे जेहन में एक महिला का चेहरा उभर आ रहा है जो आज से कुछ दिन पहले तक एक मृत लड़की की माँ थी.....
आज एक लड़की का दसवां भी है...या शायद एक बेटी का भी ? आज एक औरत को पेरोल भी मिली है या शायद एक माँ को अपनी बेटी के दसवें और तेरहवें में शामिल होने की कानूनी अनुमति भी मिली है?
हालाँकि मेरा कुछ भी लिखना इस नज़रिए से देखा जायेगा की मैं निरुपमा को न्याय दिलाने की बात करने वाला हूँ या फिर दकियानूसी विचार धारा का पोषक हूँ....लेकिन इन दोनों ही तरह की बातों से अलग होकर मैं कुछ लिखने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ....पैराग्राफ बदलते ही निरुपमा का नाम आ गया...मुझे जहाँ तक लगता है की आप सभी निरुपमा से वाकिफ होंगे इसीलिए इस नाम को लिखने से पहले कोई भूमिका नहीं लिखी....वैसे मैंने निरुपमा को उसकी दुखद मौत के बाद जाना है...निरुपमा की मौत की खबर सुनते ही मेरे दिमाग में उसके घर वालों का ख्याल सबसे पहले आया था...लेकिन जब पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आई तबसे तो घर वालों का ही ख्याल रहता...आज हमारा देश तरक्की कर चुका है...कानून से ऊपर कुछ नहीं होता...हर मौत सबूतों के आधार पर हत्या, आत्महत्या, घटना कही जाती है....निरुपमा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ...पहले सबूत बता रहे थे की यह एक आत्महत्या है लेकिन फिर सबूतों ने रंग बदला तो यह एक हत्या करार दी गयी...लिहाजा पुलिस ने तत्परता दिखाते हुए एक महिला को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.....लोग कहते हैं की महिला रिश्ते में निरुपमा की माँ लगती है...बड़ा अजीब लगता है...ऐसे वाक्ये बहुत कम आते हैं जब किसी महिला को रिश्ते में बेटा या बेटी लगने वाले लड़के या लड़की की मौत का 'ज़िम्मेदार' मना जाना जाता है...क्षमा चाहूँगा यहाँ मैं 'आरोपी' शब्द का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा हूँ क्योंकि आप लोगों ने बताया है कि माँ तो जिम्मेदारियां उठाती है तो मुझे लगता है की अपने बच्चों को मौत की नींद सुलाने में भी माँ ज़िम्मेदारी ही निभाती होगी....
बात आगे बढ़े इससे पहले आपको एक पुरानी फिल्म में अदा किये गए संवाद का एक हिस्सा याद दिलाता हूँ....."रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते हैं......" मुझे नहीं लगता की मेरे इस टुच्चे से ब्लॉग पर लिखी गयी इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई ऐसा भी होगा जो इस संवाद को भूल गया होगा ....खैर छोडिये , वैसे यह जानता था की इस फिल्म में संवाद लिखने वाले ने रिश्ते में बाप ही क्यों बनाया? लेकिन जिस तरीके से कोडरमा पुलिस ने काम किया है उससे अब यह संवाद लिखने का रास्ता साफ़ हो गया है कि "रिश्ते में तो मैं तुम्हारी माँ लगती हूँ..." और इसके बाद कलाकार अपने कथित बच्चे के साथ मारपीट कर सकती है......
माँ एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ निकाल पाना मेरे जैसे लोगों के लिए संभव नहीं है...पूरी दुनिया माँ ही तो है.... सभी मदर डे मना रहे हैं और एक माँ अपनी बेटी की मौत का आरोप लपेटे उसका दसवां...शायद यह दुखद है...क्योंकि महज खबरिया निगाह से देखने वाले इसे मजाक में ले सकते हैं लेकिन ह्रदय की गहराई से सोचन वाले वाक्यात पर दुखी होंगे...इस समय यह बात कहना बहुत मुश्किल है कि एक माँ कभी अपनी संतान का गला नहीं घोंट सकती लेकिन कहे बिना रहा भी नहीं जा रहा है.....
लगे हाथ बात उस प्यार कि भी कर ली जाये जिसके चलते निरुपमा की जान गयी...यकीन प्यार एक कोमल एहसास है, यह मनुष्य को उसके अंतस तक एक स्फूर्त अनुभव कराता है....प्यार को प्रेम कहे तो यह और भी बेहतर अनुभूति होती है...पवित्रता का आभास होता है..प्रेम तो अमर होता है...क्या कभी प्रेम किसी मनुष्य को मृत्यु की ओर भी उन्मुख कर सकता है....?यह एक बड़ा सवाल है जिसको समझना हमारे संपूर्ण समाज के लिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि इस देश के लोगों को अब 'ऑनर किलिंग' के बारे में पाता चल चुका है.....निरुपमा और प्रियभांशु ने एक दूसरे से 'प्यार' किया या 'प्रेम' यह तो पता नहीं लेकिन माँ और प्रेम इन दोनों ही एहसासों के साथ कहीं भी मौत का जुड़ाव नहीं होता......लिहाजा लगता है कि दोनों ही एहसासों को सबूतों की निगाह से गुमराह किया गया है....
मेरी इस पोस्ट को पढ़ने वाले कई लोग ऐसे होंगे जो यह नहीं समझ पाएंगे कि मैं आखिर कहना क्या चाह रहा हूँ.....? खैर कोई बात नहीं आप कोशिश कीजिये मेरे और मेरी पोस्ट के बारे में कोई राय बनाने की, मैं इस बात पर सोचने की कोशिश करता हूँ कि मदर डे मना रहे इस देश में क्या माँ शब्द के मायने बदल गएँ हैं. ....हालांकि इसमें एक दिक्कत भी है...बार बार मेरे जेहन में एक महिला का चेहरा उभर आ रहा है जो आज से कुछ दिन पहले तक एक मृत लड़की की माँ थी.....
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