देश में मानसून का इंतज़ार हो रहा है..सब कह रहें हैं की मानसून इस बार अच्छा आएगा, सब इसलिए कह रहें हैं क्योंकि मौसम विभाग कह रहा है... वैसे मौसम विभाग गाहे बगाहे यह भी कह देता है की हो सकता है की कुछ गड़बड़ हो जाये...खैर, भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों पर यकीन करना किसी कचहरी में बैठे तोता गुरु की बातो पर भरोसा करने सरीखा ही है.....वैसे हर साल मानसून में एक और बारिश भी होती है वह है पत्रकारों की बारिश.....हर साल देश के विश्विद्यालयों से सैंकड़ो पत्रकार निकलते हैं( मैं भी कभी इसी तरह निकला था) बारिश के मौसम में निकलते हैं लिहाजा इनमे से कुछ बरसाती मेढ़क की तरह होते है....
जबसे देश में मीडिया ने अपने पाँव औरों की चादर में डालने शुरू किये तब से विश्विद्यालयों में हर साल ये बारिश अच्छी होती है...सबसे बड़ी बात की इसमें मौसम विभाग की एक नहीं सुनी जाती.....वैसे आप अंदाज़ लगा सकते हैं की अगर हर साल सैंकड़ो की संख्या में पत्रकार निकलते हैं तो देश का लोकतंत्र कितना मजबूत हो रहा होगा लेकिन आपको यहीं रोकता हूँ ....ये ज़रूरी नहीं है की पत्रकार बन जाने के बाद कोई पत्रकरिता भी करे ..अब आप कहेंगे की यह क्या बात हुयी.....जब कोई पत्रकारिता करेगा तभी तो पत्रकार कहलायेगा ...जी नहीं बिलकुल नहीं अगर आप इस मुगालते में हैं तो अपना सिर किसी पत्थर पर दे मारिये (अपने रिस्क पर)....कभी बनारस आये हैं आप ? एक बार आ जाइये ..यहाँ आप को सड़क पर दौड़ते हर दो पहिया वाहन में से दूसरे वाहन पर प्रेस लिखा मिलेगा.....उसपर सवार युवक यूं अकड़ कर बैठेंगे मानो अभी अभी माफिया दाउद का साक्षात्कार कर के आ रहें हो और अब कसाब का करने जा रहें हो....इनके जलवे को देखकर आप कह ही नहीं सकते की ये पत्रकार नहीं हैं....हालाँकि किसी पोलिसे वाले की मजाल नहीं होती की इन्हें रोक ले लेकिन अगर रोक कर वाहन के कागज़ मांग भी लिए तो उससे पहले ये अपना परिचय पत्र दिखा देते हैं ...अब आप बताइए की क्या पत्रकार, पत्रकारिता करे, ये ज़रूरी है ?
छोड़िये हम बात कर रहे थे पत्रकारों की सालाना बारिश की....देश के विश्वविद्यालयों से निकलने वाले इन तमाम छात्रों की आँखों में एक सुनहरा सपना होता है की वह अब पत्रकार बन कर अपनी जीविका चला लेंगे..आमतौर पर ऐसे नौसिखिये पत्रकार अख़बारों में जाते हैं....जो कोई किसी बड़े नामचीन अखबार में पहुँच गए वो तो कुछ दिनों के लिए इस क्षेत्र में बने रहेंगे लेकिन जो बेचारे किसी भयंकर अखबार में पहुँच गए तो समझिये की उनका बेडा गर्क....बेचारे अपनी गाड़ी में अपने पैसे का तेल भरा कर रिपोर्टिंग करेंगे....एक्का दुक्का विज्ञापन भी लायेंगे ..अपना दिन भर का समय देंगे लेकिन पैसा नहीं पाएंगे......पाएंगे तो सिर्फ एक परिचय पत्र जो उनके दिल को ये बताएगा की लो अब तुम भी पत्रकार बिरादरी के सदस्य हो गए हो...लेकिन कुछ दिनों बाद जब घर वाले ताना मारना शुरू करेंगे तो समझ लीजिये की पत्रकारिता तेल लेने चली गयी.....प्रिंट ही नहीं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी यही हाल है...यहाँ तो स्ट्रिंगर अपना स्ट्रिंगर रखता है...डिग्री लेकर निकलने वाले बच्चे जब पुरनियों से संपर्क करते हैं तो पुरनिये उनसे फटाफट कैमरा, माईक और मोटर साइकिल का इंतज़ाम करने की सलाह दे देते हैं...फिर काम सिखने की लिए अपनी ख़बरों पर भेजना शुरू करते हैं...यानि यहाँ भी वही हालात...अपनी गाड़ी, अपना तेल, अपना कैमरा, अपना माईक, अपनी मेहनत लेकिन काम दूसरे का, नाम दूसरे का.....जब स्ट्रिंगर अपना स्ट्रिंगर रखेगा तो क्या होगा आप समझ सकते हैं....ऐसे में जो बचे रह गए वो कुछ दिन चल जायेंगे वरना ज्यादातर भाग जायेंगे....
वैसे जितने लोग डिग्री ले कर निकले वह इस क्षेत्र में आये ही ये भी ज़रूरी नहीं है....अधिकतर तो पहले ही कहीं कुछ और की तलाश में लग जाते हैं...कुछ एक हिम्मत करके इस मैदान में उतरते भी हैं तो ऐसी परेशानियाँ उन्हें भागने के लिए विवश करती है.....लिहाजा कईयों को अपने फैसले पर फिर से मंथन करना पड़ता है...
मीडिया पिछले कुछ सालों में बेहद व्यापक हुयी है लेकिन इसके बाद भी मीडिया की मुख्य धारा में पहुँच कर कार्य करने के लिए कोई सिस्टम नहीं है...कोई कहीं से भी आ सकता है...ऐसे में जुगाड़ तंत्र हावी होने लगता है..... जिसका जितना अच्छा जुगाड़ होगा उसको उतना भाव मिलेगा....इसके साथ ही पत्रकारिता में ऐसे लोग आ जाते हैं जो इसके प्रसार और ग्लैमर को देख कर प्रभावित होते हैं....जिनको पत्रकारिता नहीं भी करनी होती वो भी जुगाड़ देख कर इस क्षेत्र में आ जाते हैं.....लेकिन इनसे इस क्षेत्र को कोई फ़ायदा नहीं होने वाला.....और हावी होते जुगाड़ तंत्र का ही परिणाम है की यूनिवर्सिटी कैम्पस से बाहर निकलते स्टुडेंट बस यही पूछते हैं की सर, कोई जुगाड़ है ?
वैसे इस बार मानसून अच्छा आएगा इसकी पूरी उम्मीद है लेकिन सूखी धरती की प्यास बुझेगी इसकी कोई उम्मीद नहीं है.......
जबसे देश में मीडिया ने अपने पाँव औरों की चादर में डालने शुरू किये तब से विश्विद्यालयों में हर साल ये बारिश अच्छी होती है...सबसे बड़ी बात की इसमें मौसम विभाग की एक नहीं सुनी जाती.....वैसे आप अंदाज़ लगा सकते हैं की अगर हर साल सैंकड़ो की संख्या में पत्रकार निकलते हैं तो देश का लोकतंत्र कितना मजबूत हो रहा होगा लेकिन आपको यहीं रोकता हूँ ....ये ज़रूरी नहीं है की पत्रकार बन जाने के बाद कोई पत्रकरिता भी करे ..अब आप कहेंगे की यह क्या बात हुयी.....जब कोई पत्रकारिता करेगा तभी तो पत्रकार कहलायेगा ...जी नहीं बिलकुल नहीं अगर आप इस मुगालते में हैं तो अपना सिर किसी पत्थर पर दे मारिये (अपने रिस्क पर)....कभी बनारस आये हैं आप ? एक बार आ जाइये ..यहाँ आप को सड़क पर दौड़ते हर दो पहिया वाहन में से दूसरे वाहन पर प्रेस लिखा मिलेगा.....उसपर सवार युवक यूं अकड़ कर बैठेंगे मानो अभी अभी माफिया दाउद का साक्षात्कार कर के आ रहें हो और अब कसाब का करने जा रहें हो....इनके जलवे को देखकर आप कह ही नहीं सकते की ये पत्रकार नहीं हैं....हालाँकि किसी पोलिसे वाले की मजाल नहीं होती की इन्हें रोक ले लेकिन अगर रोक कर वाहन के कागज़ मांग भी लिए तो उससे पहले ये अपना परिचय पत्र दिखा देते हैं ...अब आप बताइए की क्या पत्रकार, पत्रकारिता करे, ये ज़रूरी है ?
छोड़िये हम बात कर रहे थे पत्रकारों की सालाना बारिश की....देश के विश्वविद्यालयों से निकलने वाले इन तमाम छात्रों की आँखों में एक सुनहरा सपना होता है की वह अब पत्रकार बन कर अपनी जीविका चला लेंगे..आमतौर पर ऐसे नौसिखिये पत्रकार अख़बारों में जाते हैं....जो कोई किसी बड़े नामचीन अखबार में पहुँच गए वो तो कुछ दिनों के लिए इस क्षेत्र में बने रहेंगे लेकिन जो बेचारे किसी भयंकर अखबार में पहुँच गए तो समझिये की उनका बेडा गर्क....बेचारे अपनी गाड़ी में अपने पैसे का तेल भरा कर रिपोर्टिंग करेंगे....एक्का दुक्का विज्ञापन भी लायेंगे ..अपना दिन भर का समय देंगे लेकिन पैसा नहीं पाएंगे......पाएंगे तो सिर्फ एक परिचय पत्र जो उनके दिल को ये बताएगा की लो अब तुम भी पत्रकार बिरादरी के सदस्य हो गए हो...लेकिन कुछ दिनों बाद जब घर वाले ताना मारना शुरू करेंगे तो समझ लीजिये की पत्रकारिता तेल लेने चली गयी.....प्रिंट ही नहीं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी यही हाल है...यहाँ तो स्ट्रिंगर अपना स्ट्रिंगर रखता है...डिग्री लेकर निकलने वाले बच्चे जब पुरनियों से संपर्क करते हैं तो पुरनिये उनसे फटाफट कैमरा, माईक और मोटर साइकिल का इंतज़ाम करने की सलाह दे देते हैं...फिर काम सिखने की लिए अपनी ख़बरों पर भेजना शुरू करते हैं...यानि यहाँ भी वही हालात...अपनी गाड़ी, अपना तेल, अपना कैमरा, अपना माईक, अपनी मेहनत लेकिन काम दूसरे का, नाम दूसरे का.....जब स्ट्रिंगर अपना स्ट्रिंगर रखेगा तो क्या होगा आप समझ सकते हैं....ऐसे में जो बचे रह गए वो कुछ दिन चल जायेंगे वरना ज्यादातर भाग जायेंगे....
वैसे जितने लोग डिग्री ले कर निकले वह इस क्षेत्र में आये ही ये भी ज़रूरी नहीं है....अधिकतर तो पहले ही कहीं कुछ और की तलाश में लग जाते हैं...कुछ एक हिम्मत करके इस मैदान में उतरते भी हैं तो ऐसी परेशानियाँ उन्हें भागने के लिए विवश करती है.....लिहाजा कईयों को अपने फैसले पर फिर से मंथन करना पड़ता है...
मीडिया पिछले कुछ सालों में बेहद व्यापक हुयी है लेकिन इसके बाद भी मीडिया की मुख्य धारा में पहुँच कर कार्य करने के लिए कोई सिस्टम नहीं है...कोई कहीं से भी आ सकता है...ऐसे में जुगाड़ तंत्र हावी होने लगता है..... जिसका जितना अच्छा जुगाड़ होगा उसको उतना भाव मिलेगा....इसके साथ ही पत्रकारिता में ऐसे लोग आ जाते हैं जो इसके प्रसार और ग्लैमर को देख कर प्रभावित होते हैं....जिनको पत्रकारिता नहीं भी करनी होती वो भी जुगाड़ देख कर इस क्षेत्र में आ जाते हैं.....लेकिन इनसे इस क्षेत्र को कोई फ़ायदा नहीं होने वाला.....और हावी होते जुगाड़ तंत्र का ही परिणाम है की यूनिवर्सिटी कैम्पस से बाहर निकलते स्टुडेंट बस यही पूछते हैं की सर, कोई जुगाड़ है ?
वैसे इस बार मानसून अच्छा आएगा इसकी पूरी उम्मीद है लेकिन सूखी धरती की प्यास बुझेगी इसकी कोई उम्मीद नहीं है.......
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