ना जाने किस पीर की दरगाह पर
कुछ कच्चे धागे बांध आया था मैं
किस वाली के दरबार में
हथेलियाँ जोड़
मन्नत मांगी थी मैंने
गुलाबों की चादर से आती खुशबू
और
जलती अगरबत्तियों के धुएं के बीच
कुछ बुदबुदाया था मैंने
किसी मंदिर की चौखट पर
सिर झुकाया था मैंने
हाथों से घण्टियों को हिलाकर
अपने ही इर्द गिर्द घूम कर
कुछ तो मनाया था मैंने
तपती धूप में शायद किसी
साये की आस की थी मैंने
या फिर तेज़ बारिश में
ठौर की तलाश की थी मैंने
या कभी यूँ ही सुनसान राहों पर
चलते हुए
किसी साथी की ज़रुरत महसूस हुयी थी
तभी तो मुझे 'तुम' मिले हो
शायद अब वक़्त आ गया है
दरगाह पर बंधे धागों को खोलने का ...............
waah dua me jo maanga wo mil gaya...bahut khoob...
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