गंगा का पानी स्थिर है. किनारों पर जमी काई बयां कर रही है माँ की दशा. |
कलेजा मुंह को आता हैं जब आप गंगा की स्थिति से रूबरू होते हैं. लगभग ढाई हज़ार किलोमीटर के अपने लम्बे और कठिन सफ़र में गंगा एक नदी की तरह नहीं बल्कि एक माँ की तरह व्यवहार करती आगे बढती है. जिस तरह से माँ के आँचल में हर संतान के लिए कुछ न कुछ होता है वैसा ही गंगा के साथ है. गंगा कभी अपने पास से किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती. जो भी आता है कुछ लेकर ही जाता है. इतने के बावजूद अब गंगा हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती. हमने उसे मल ढोने वाली एक धारा बना कर छोड़ा है.
राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के अनुसार गंगा बेसिन में रोजाना १२,००० मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न होता है. इसमें से महज ४००० मिलियन लीटर सीवेज को ट्रीट करने की क्षमता वाले ट्रीटमेंट प्लांट लग पायें हैं. गंगा किनारे बसे क्लास १ और क्लास २ के शहरों से निकला ३००० मिलियन लीटर सीवेज सीधे गंगा की मुख्य धारा में बहा दिया जाता है. कानपुर जैसे शहर में रामगंगा और काली नदी से बहकर आने वाला कारखानों का अपशिष्ट पूरी गंगा पर भारी पड़ता है. हमने जो भी थोड़े बहुत सीवेज को ट्रीट करने की व्यवस्था की है वो भी समुचित नहीं है. दरअसल भारत में लगाये गए ज्यादातर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सिर्फ घरेलू सीवेज को ट्रीट करने में सक्षम हैं. जबकि हमारे यहाँ कारखानों से निकले सीवेज और घरेलू सीवेज दोनों का प्रवाह एक ही सीवर लाईन से होता है. ऐसे में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट घरेलू सीवेज को ट्रीट कर देते हैं हैं लेकिन कारखानों से निकला सीवेज लगभग बिना ट्रीट किये ही गंगा में बहा दिया जाता है. ऐसे में कई धातुएं गंगा के पानी में आकर मिल जाती हैं. कहने को हम सीवेज को ट्रीट कर रहें हैं लेकिन सही मायनों में हमने महज लम्बी लम्बी नालियों से गुजार कर सीवेज को गंगा में बहा दिया.
गंगा में लगातार मिल रहे इस तरह के सीवेज से गंगा जल के गुणों में परिवर्तन आ गया है. चूँकि गंगोत्री से निकलती है तो लगभग ३००० मीटर की ऊंचाई से नीचे गिरती हैं. इसके बाद तेज वेग से पत्थरों से टकराते हुए गंगा आगे बढती है. इस तरह के प्रवाह के कारण गंगा के पानी में आक्सीजन की प्रचुर मात्र घुल जाती है. यही आक्सीजन उसे अमृततुल्य बना देती है. लेकिन जिस तेज़ी से गंगा में औद्योगिक कचरा घुल रहा है उससे गंगा के पानी का गुण बदल गया है. मैदानी इलाकों में प्रवेश के बाद अब गंगा का पानी काफी दिनों तक संग्रह कर के नहीं रखा जा सकता. औद्योगिक कचरे का दुष्परिणाम हम अब अपनी पीढीयों में दिख रहा है. मैदानी इलाकों में गंगा बेसिन में होने वाली खेती में फसलें खराब हो रही हैं. इन फसलों में हेवी मेटल मिले हैं. यह हेवी मेटल गंगा से निकली नहरों से होकर खेतों तक पहुँचते हैं.
कहने को हम गंगा को माँ का दर्जा देते हैं लेकिन माँ के प्रति हमारी धारणा बदल चुकी है. शायद आपको मेरी बात बुरी लगे लेकिन अब माँ हमारे लिए महज एक शब्द रह गया है जिसमे कोई भाव नहीं होता.
प्रिय आशीष तिवारी, आपने सही समय पर यह आलेख लिखा है। 'माँ' के अर्थ को अपनी स्वार्थपरता और तात्कालिक लाभप्राप्ति की नीयत के चलते हमने संकुचित करके एक देह तक सीमित कर लिया है। वस्तुत: तो नदियों के बारे में राष्ट्रीय संरक्षण नीति की तुरंत आवश्यकता है। अन्यथा जिस तरह धीरे-धीरे खेत खत्म होकर कालोनियों में तब्दील होते जा रहे हैं, नदियाँ सड़े हुए ताल-तलैयों से भी बदतर हालत में पहुँच जाएँगी, दूर तक बह नहीं पायेंगी।
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