एक बार अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ था। इसके बाद पिछले दस सालों में एक बार भी वहां कोई हमला नहीं हुआ जबकि अमेरिका खुले आम आतंकियों के खिलाफ जंग लड़ रहा है। ब्रिटेन में भी एक बार कई साल पहले हमला हुआ था। वहां भी इसके बाद आतंकी हमले की कोई घटना नहीं सुनाई दी। भारत में महज तीन महीनों के भीतर एक ही स्थान पर आतंकी दो बार हमला कर चुके हैं। वह भी देश की राजधानी दिल्ली में। पहले आतंकी हमले का नमूना पेश करते हैं और उसके बाद हमला करते हैं। साफ है कि हमने साबित कर दिया है कि हम आतंकियों के सामने लाचार हैं। संकीर्ण सोच वाली राजनीति हमें एक ऐसे देश का दर्जा दिला रही है जहां आम नागरिक स्वयं को सुरक्षित नहीं महसूस करता है। पूरा विश्व समुदाय अब यह मान चुका है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत का दावा पिलपिला है। आतंक पर लगाम लगाने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।
देश की सरकार के पास ऐसे कई मंत्री हैं जो किसी भी आतंकवादी हमले के बाद राजनीतिक चाशनी में डुबोया हुआ बयान दे सकते हैं। इनका पूरा फायदा भी उठाया जाता है। नेताओं के बयान आते हैं और घटना स्थल पर उनके दौरे होते हैं लेकिन इन सबके बीच आम नागरिकों का जख्म रिसता रहता है। मुआवजों का ऐलान कर सरकार अपनी खानापूर्ति कर लेती है। लेकिन इस सबके बीच हमारे देश की आंतरिक सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे पर गंभीरता पूर्वक विचार का समय राजनीतिज्ञों को नहीं मिलता है। दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर हुई आतंकवादी घटना ने साबित किया है कि हम न सिर्फ आतंकवाद से लड़ने में असफल रहे हैं बल्कि हमारा सुरक्षा ढांचा पूरी तरह नाकाबिल है। आतंकवाद से लड़ने के लिए हमारे पास कोई स्पष्ट तंत्र नहीं है। कई एजेंसियां मिल कर आतंकवाद से लड़ाई लड़ रही हैं लेकिन किसी भी इकाई में तालमेल नहीं दिखता। केंद्रीय एजेंसियां भी हर बार नाकाफी साबित होती हैं। ऐसे में देश की सुरक्षा का दावा खोखला है। निरंतर अंतराल पर देश में आतंकी हमले होते हैं लेकिन खुफिया तंत्र को इसकी भनक तक नहीं लगती।
राजनीति की रोटी सेंकने के चक्कर में हमारे देश को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां से हमें विश्व समुदाय को यह बताना बहुत मुश्किल है कि आतंकवाद के खिलाफ हम निर्णायक लड़ाई लड़ना चाह रहे हैं। कम से कम आप भारत की जेलों में कसाब और अफजल गुरु को इतने दिनों तक सुरक्षित रख कर यह भरोसा तो नहीं ही दिला सकते हैं। ऐसे में महज लफ्फाजी से काम नहीं चलेगा। कोई ठोस कदम उठाना होगा। बयानबाजी और जांच के दिलासे से आगे बढ़कर प्रत्युत्तर देना सीखना होगा। कूटनीतिक ही सही लेकिन कदम ऐसे होने चाहिए जो देश के नागरिकों को सुरक्षा की तसल्ली दे सकें। आतंकियों को होने वाली सजा को अधिक देर तक लागू न कर के भी हम विश्व समुदाय को गलत संदेश देते हैं। मानवाधिकार की बातें को थोड़ी देर के लिए यहां भुलाया जा सकता है।
इसके साथ ही आतंकवाद से लड़ने के लिए एक ऐसा प्रभावी तंत्र बनाना होगा जो किसी भी राजनीतिक स्वार्थ से अलग हो। आतंकियों को यह बताना होगा कि आतंकवाद के खिलाफ देश एकजुट है। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हम अपनी नजरों में तो गिरेंगे ही पूरी दुनिया के सामने हमारी लाचारी भी साबित हो जाएगी।
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