संभव है कि कोई ये सोचे
कि इस आत्मविवेचना को सफलता भरा एक साल नाम देना कहीं अधिक उचित था। लेकिन मुझे लगता
है कि सफलता से कहीं अधिक हमारे लिए चुनौतियां थीं और हैं। एक ऐसा राज्य जो 12 साल का हो चुका है वहां पत्रकारिता के लिहाज से अभी
बहुत कुछ बचा हुआ है। विशेष तौर पर टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में। हम एक ऐसी टीम
का हिस्सा बने जो उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बैठकर पूरे देश की खबरों पर नजर
रख रही थी। आम तौर पर टीवी पत्रकारिता का केंद्र नोएडा और दिल्ली है। जाहिर सी बात
है कि देहरादून से क्षेत्रीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर
पैनी नजर रखना एक मुश्किल काम था। लेकिन टीम ने वो सब कुछ किया। शुरुआत में ही हमने
अपने लिए खुद के लिए प्रतिमान स्थापित कर लिए। तसल्ली रही कि हमने उन प्रतिमानों को
बहुत हद तक छू भी लिया। आत्म विवेचना को अगर कुछ बिंदुओं पर केंद्रित करें तो शायद
वो बिंदु होंगे चुनौतियां, संभावनाएं, प्रयोग और जनपक्ष।
आमतौर पर जब आप एक नई
शुरुआत करते हैं तो आपके सामने कई मुश्किलें होती हैं। इसके साथ ही आपके पास हारने
के लिए कुछ होता भी नहीं है। आप खुलकर प्रयोग करते हैं। हां, ये जरूर है कि आप जब मास कनेक्ट की विधा से जुड़े
होते हैं तो आपके सामने प्रयोग करने के लिए तर्कों की जरुरत होती है। चुनौतियां कल
भी थीं और आगे भी रहेंगी। उत्तराखंड में टीवी पत्रकारिता के लिए कई बड़ी चुनौतियां
हैं। आमतौर पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों में उत्तराखंड की खबरें कम ही दिखती हैं। दिखती
भी हैं तो बस दिखाने भर के लिए। शायद मामला प्रोफाइल का है। ऐसे में नेटवर्क 10 को राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की स्क्रीन से बेहतर स्क्रीन
उत्तराखंड की खबरों को देनी थी। जाहिर है कि एक ऐसी टीम को खड़ा करना बड़ा काम था।
वो हमने किया भी। चूंकि अब भी उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में आपको दिल्ली जैसे
रिपोर्टर नहीं मिलेंगे। ऐसे में छोटी सी लगनी वाली खबरों को न्यूज डेस्क ने न सिर्फ
मजबूती के साथ पेश किया बल्कि आमजन मानस को ऐसी खबरों के साथ जोड़ा भी।
बात संभावनाओं की करें तो इनका विस्तार उत्तराखंड के किसी पहाड़ी इलाके से खड़े होकर दूर तक फैले पर्वत शिखरों के विस्तार से कहीं कम नहीं है। एक क्षेत्रीय न्यूज चैनल के एंकर होने के नाते मुझे अक्सर यह एहसास हुआ कि आप जब सड़क, बिजली और पानी की समस्या से जूझ रहे किसी राज्य की सच्ची तस्वीर को पेश करने का जिम्मा उठाते हैं तो आपको संभावनाओं की कमी हो भी नहीं सकती है। फिर उत्तराखंड में तो विकास देहरादून और आसपास के इलाकों में ही केंद्रित हो कर रहा गया है। सियासी पार्टियों को यहां सर्कस करने का खुला मंच भी मिला है। महज 12 सालों में उत्तराखंड की राजनीति यूपी के नक्शे कदम पर चलने लगी है। शायद ये गुण यूपी ने उपहार में उत्तराखंड को विभाजन के दौरान दे दिया। अव्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज उठा सकने का माद्दा कम ही लोगों में होता है। एक बेहतर मंच भी चाहिए होता है। मुझे खुशी है कि नेटवर्क 10 ने उत्तराखंड को वह मंच दिया। न सिर्फ देहरादून बल्कि पुरोला और मुनस्यारी की खबरों को हमने प्रमुखता से दिखाया। आमतौर पर पहाड़ में लोग शाम को जल्द ही बिस्तरों में दुबक जाते हैं। इसके बावजूद हमने अपने प्राइम टाइम को देखने के लिए लोगों को विवश कर दिया। यह किसी उपहारा से कम नहीं है। फोन इन प्रोग्रामों में लोगों की काल्स इस बात की गवाह बनीं कि हमने बहुत हद तक उन्हें फोन करने के लिए बाध्य किया। आपको इससे अधिक क्या चाहिए। सिस्टम ने भी आपको पहचाना और कई खबरों पर सरकार को संज्ञान लेना पड़ा। यहीं नहीं हमने हिमाचल में भी महज एक महीने के कम वक्त में एक बेहतर पहचान बना ली। आम आदमी से लेकर हिमाचल के बड़े राजनीतिज्ञों तक ने नेटवर्क 10 की माइक आइडी को पहचाना।
आमतौर पर आम लोगों को
लगता है कि किसी न्यूज चैनल पर चल रही खबर किसी व्यक्ति विशेष की मेहनत होगी। लेकिन
किसी भी न्यूज चैनल को कंटेट के आधार पर मजबूत बनाने के लिए उसकी डेस्क के साथ साथ
पूरी टीम का मजबूत होना जरूरी होता है। सौभाग्य से नेटवर्क 10 की शुरुआती टीम में युवा उत्साह के साथ प्रौढ़ अनुभव
भी मिल गया। इन सबके साथ देश के वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार अशोक पाण्डेय का एक्जीक्यूटिव
एडिटर के रूप में मार्गदर्शन। इसके साथ ही न्यूज हेड के रूप में राकेश खंडूड़ी जैसे
जुझारू और जमीन से जुड़े पत्रकारों का सानिध्य। हालांकि राकेश जी अब किसी अन्य मीडिया
हाउस के साथ जुड़ चुके हैं लेकिन योगदान सभी को हमेशा याद रहेगा। एक बड़ी टीम और सभी
के नाम लिखना संभव नहीं इसलिए महज प्रतीक रूप में इन दोनों नामों से काम चला रहा हूं।
मुझे लगता है कि अशोक पाण्डेय और राकेश खंडूड़ी को इस बात से इत्तेफाक होगा कि इस टीम
के बिना वो महज एक साल में इतना बड़ी पहचान नहीं बना सकते थे।
किसी भी मीडिया हाउस
के लिए उद्देश्य परक पत्रकारिता जरूरी होती है। उद्देश्य विहीन पत्रकारिता महज खबरों
के संकलन और प्रकाशन-प्रसारण तक ही रह जाती है। मेरी समझ में इसे पत्रकारिता की संज्ञा
देना गलत होगा। आप एक ऐसी विधा के साथ जुड़े हैं जो मिशन से प्रोफेशन और कमीशन तक का
सफर तय कर चुकी है। फिर भी आपको मिशन के साथ रहना हो तो मुश्किलें तो आएंगी हीं। तमाम
प्रबंधकीय उठापटक और विरोधाभासों के बीच खड़े रहना ही तो संघर्ष हैं और इस संघर्ष का
अपना ही मजा है। उम्मीद है 2013 में नेटवर्क 10 कई मामलों में अपने प्रतिद्वंदी चैनलों से बीस हो जाएगा। अब भी कई काम
बचे हैं। आखिर में जनता जनार्दन को सलाम जिसने हमें अपनी नजरों में जगह दी।
एक सफर में गुजरते हुए ........................आशीष तिवारी
एक सफर में गुजरते हुए ........................आशीष तिवारी
बढ़िया विवेचना!
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