बादलों और पहाड़ों के नजारे करने वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि शांत से दिखने वाले ये बादल भी उन्हें जिंदगी का रौद्र रूप दिखा सकते हैं। केदार घाटी में आए हिमालयी सुनामी ने उत्तराखंड ही नहीं देश के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। यह चुनौती है उत्तराखंड के साथ साथ पूरे देश में हो रहे अनियोजित विकास को फिर से परिभाषित करने की।
विकास का ढोल, खुल गई पोल
अपने गठन के कुछ दिनों के बाद ही उत्तराखंड ने अपने लिए विकास के लिए मानक गढ़ने शुरू कर दिए। उत्तराखंड का लगभग 65 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है। यह वन क्षेत्र न सिर्फ उत्तराखंड के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि पूरे देश के पर्यावरण संतुलन के लिहाज से भी बेहद अहम हैं। इसके साथ ही उत्तराखंड में ही देश ही कई प्रमुख नदियों का उद्गम भी है। उत्तराखंड ने इन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन शुरू किया। जल्द ही राज्य में बड़ी तेजी के साथ पनविद्युत बिजली परियोजनाओं के लगने का सिलसिला शुरू हो गया। हालात ये हुए कि अपने गठन के बारह सालों के भीतर ही उत्तराखंड में लगभग 300 से अधिक परियोजाएं सामने आ गईं। परियोजनाओं को लगाने की जल्दी को लेकर कई बार सवाल भी उठे। हालात यह हुए कि मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने एक झटके में दो दर्जन से अधिक बिजली ऐसी परियोजनाओं को मंजूरी दे दी जिन्हें पर्यावरण मंत्रालय की ओर से हरी झंडी भी नहीं मिली थी। बाद में हो हल्ला मचा और मामला कोर्ट में चला गया। इसके बाद कहीं जाकर इन परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन शुरू हो पाया। ऐसे न जाने कितने उदाहरण आपको मिलेंगे जो यह बताने के लिए काफी हैं कि सरकारों ने उत्तराखंड को विकास के नाम पर कितना पीछे ढकेल दिया है। सरकारें आमतौर पर उत्तराखंड का प्रचार प्रसार उर्जा प्रदेश के रूप में करती रहीं और अपनी पर्यावरणीय जिम्मेदारियों से बचती रहीं। हालात पिछले दस सालों में कहां से कहां पहुंच गए यह हम सब देख सकते हैं।
अनियंत्रित पर्यटन ने दिए जख्म
वन क्षेत्र के लिहाज से भी उत्तराखंड बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। दुनिया की नवीनतम पर्वत श्रृृंखला जिसे हम हिमालय के नाम से जानते हैं उसका बड़ा हिस्सा उत्तराखंड में पड़ता है। दुनिया के कई बड़े ग्लेश्यिर हिमालय में ही हैं। लेकिन लगातार कम हो रहे वन क्षेत्र और बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप ने हिमालय को हिला कर रख दिया है। पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर वह सब कुछ हो रहा है जिससे पर्यावरण को नुकसान हो। अनियंत्रित पर्यटक आवाजाही। वाहनों का अंधाधुंध परिचालन और अवैध इमारतों के निर्माण ने हिमालयी क्षेत्रों की शक्ल बिगाड़ कर रख दी है। आज से लगभग तीस पैंतीस सालों पहले जहां महज झोपडि़यां हुआ करती थीं वहां अब आपको हर सुविधा से सुसज्जित होटल मिल जाएंगे। केदारनाथ का ही उदाहरण ले लिया जाए तो चालीस के दशक में यहां महज कुछ झोपडि़यां ही हुआ करती थीं। रास्ता दुर्गम हुआ करता था। इलाके के लोगों की मानें तो दूरदराज से आए जो यात्री यहां पहुंच जाते थे वो खुद को भाग्यशाली समझते थे। केदारनाथ पूरी तरह से साधना स्थल था। लोग यहां गंभीर तीर्थाटन के लिए ही आया करते थे। महज घूमने के लिहाज से यहां आने वाले लोगों की संख्या ना के बराबर थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में तेजी से बदलाव हुआ। सरकार ने चारधाम यात्रा समिति बनाई और बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को बड़े पैमाने पर कैश कराने की कोशिशें शुरू कर दीं। सरकार की इस अधूरी कवायद का परिणाम यह हुआ कि इन चारों स्थानों पर आने वाले लोगों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ। इन यात्रियों को ठहराव देने के लिए अवैध धर्मशालाएं और होटल बनने लगे। इनमें से अधिकतर ऐसे थे जो बेहतर साइट सीन के चक्कर में नदी के ठीक किनारे पर बनाए गए। खबरें बताती हैं कि अकेले केदारघाटी में ही नब्बे धर्मशालाएं इस आपदा में बह र्गइंं। स्थानीय प्रशासन से लेकर सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को भी पता है कि इनमें से अधिकतर धर्मशालाएं अवैध थीं। सबकुछ देखते हुए भी आखिर शासन और प्रशासन मौन क्यों रहा? यह सवाल सब पूछ रहे हैं। जवाब किसी के पास नहीं है। न सिर्फ केदार घाटी बल्कि बल्कि गंगोत्री, यमुनोत्री और बद्रीनाथ में भी हालात यही हैं। रास्ते में पड़ने वाले प्रमुख पड़ावों का हाल भी ऐसा ही है। फाटा, उत्तरकाशी, जोशीमठ, रुद्रप्रयाग, गौचर सभी जगहों पर बाजारवाद का ऐसा स्वरूप पनप चुका है जिसने पूरे पर्यावरण के सीने पर अनगिनत
जख्म दे दिए। पिछले कई सालों में हिमालयी पर्यावरण को लेकर हुए रिपोर्टों ने बताया है कि पूरे क्षेत्र में बड़े बदलाव आ रहे हैं और इन्हें रोकने की जरूरत है। वाहनों की बेधड़क आवाजाही से होने वाले हाइड्रोकार्बन के उत्सर्जन से पूरा पर्यावरण दूषित होता गया। पर्यावरणविद् शोर मचाते रहे और पेड़ांे को काटकर रिजार्ट बनते रहे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि घरेलू और विदेशी पर्यटकों को मिलाने के बाद 2011 में आंकड़ा लगभग दो करोड़ के करीब पहुंच जाता है। सरकारें हमेशा से यह कोशिश करती हैं कि उनके राज्य में अधिक से अधिक पर्यटक आएं लेकिन इसी बीच वह अनियंत्रित पर्यटन से होने वाले दुष्परिणामों को भूल जाती हैं और उन्हें रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते।
अवैध खनन
उत्तराखंड में नदियों में खनन के पट्टे सरकार आवंटित करती है। पट्टे आवंटित करने में बहुत बड़ा खेल होता है यह बात किसी से छुपी नहीं है। जिन ठेकेदारों को पट्टा मिलता है वह न सिर्फ पट्टे के लिए आवंटित स्थान पर खनन करते हैं बल्कि आसपास के इलाकों में भी खनन करते हैं। खनन करने वाले साधारण मजूदर होते हैं और उन्हें इस बात का इल्म भी नहीं होता कि किस तरह से खनन हो कि नदियों का मूल स्परूप बचा रहे। जेसीबी से होने वाले खनन से नदियां अपना रास्ता तक बदल सकती हैं। उत्तराखंड के कई इलाकों में अवैज्ञानिक तरीके से नदियों में अवैध खनन जारी है। शासन और प्रशासन की मिलीभगत से कई ऐसी नदियों में भी खनन होता है जहां सिर्फ चुगान की अनुमति होती है। पिछले कुछ सालों में यह खतरा तेजी से बढ़ा है। नदियों के रास्ता बदल लेने का खतरा बढ़ रहा है। नदियां अगर अपना रास्ता बदलती हैं तो कई बाजार और मानव सक्रियता के केंद्र समाप्त हो जाएंगे।
आपदा से निबटने के उपाय नाकाफी
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जिसमें पहाड़ी क्षेत्र की बहुलता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इस सूबे की तकदीर मैदान मैं बैठकर आज भी लिखी जाती है। देहरादून में बनी विधानसभा में बैठने वाले कई अधिकारियों को उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ों में बसे लोगों की परेशानियों के बारे में पता भी नहीं होता है। मौसम के पूर्वानुमान के लिए आज देश में अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग होता है। उत्तराखंड की सरकार भी वेदर अलार्मिंग सिस्टम का उपयोग करती है। लेकिन संचार व्यवस्था की कमी और प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही के चलते यह अलार्मिंग सिस्टम बेकार साबित होता है। केदारघाटी में मौसम बदलने की सूचना सिस्टम को मिल रही थी लेकिन बावजूद इसके यह सूचना उपर पहाड़ों में नहीं पहुंच पाई। शासन इतना लापरवाह रहा कि केदारनाथ के आसपास से लोगों को हटाना उचित नहीं समझा। इसका परिणाम सबके सामने है। आपदा आ जाने के बाद भी उत्तराखंड सरकार का आपदा प्रबंधन मंत्रालय एक अजीब सी पशोपेश में पड़ा रहा। क्या करें और क्या न करें उसे समझ ही नहीं आ रहा था। आपदा राहत के लिए प्रयास देर से शुरू हुए और नाकाफी रहे।
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