यह सच है कि उत्तराखंड में जिस तरह से प्राकृतिक आपदा आई है उसके आगे सभी आपदा राहत के काम बौने ही है। आपदा प्रबंधन मंत्रालय की सोच से भी कहीं भयावह है यह आपदा। इसमें भी किसी को दो राय नहीं होगी कि इस आपदा से निबटने का काम अकेले उत्तराखंड की सरकार नहीं कर सकती है। पूरे देश को इस घड़ी में साथ खड़ा होना पड़ेगा। लेकिन इसी सब के बीच एक बात साफ है कि जितनी मौतें आपदा से नहीं हुई उससे कहीं अधिक मौतें हमारे अव्यवहारिक सिस्टम से हो रही है। सरकारें संवेदनशून्य होती जा रही हैं और मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों के पास आपदा प्रभावित लोगों के साथ वक्त बिताने का समय नहीं है। साफ है कि हमारा सिस्टम अगर ईमानदार कोशिश करता तो इस तबाही में मरने वालों का आंकड़ा बहुत कम होता।
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जो प्राकृतिक रूप से बेहद संवेदनशील है। उत्तराखंड को यूपी से अलग होकर अलग राज्य बने हुए लगभग 12 साल हो रहे हैं। इन बारह सालों में बनी सरकारों को सूबे का विकास करने के लिए एक ही माध्यम दिखा और वो है राज्य की लगभग 65 फीसदी क्षेत्र में फैली वन व अन्य प्राकृतिक संपदा। जमकर और बेहद अवैज्ञानिक तरीके से प्रदेश में बनी सरकारों ने राज्य में बहने वाली नदियों भागीरथी, अलकनंदा, पिंडर वगैरह पर बड़े बड़े बांध बनाने शुरू किए। बड़ी कंपनियों को ठेका दिया गया। ठेका देने लेने के खेल में न जाने कितने का खेल हुआ। इनमें से कई परियोजनाएं ऐसी थीं जो पर्यावरण के लिहाज से बेहद खतरनाक थीं। अधिकतर परियोजनाओं के खिलाफ पर्यावरण मंत्रालय और पर्यावरणविदों ने आवाज भी उठाई। लेकिन हुक्मरानों ने ऐसा व्यूह रचा कि हर आवाज दब कर रह गई। सरकार को यह पता है कि हिमायल का यह हिस्सा भूकंप के लिहाज से देश का सबसे अधिक संवेदनशील इलाका है। उत्तराखंड के उपरी पहाड़ी इलाकों में प्रायः भूकंप आते रहते हैं। इनमें जान माल की हानि भी होती है। ऐसे में अक्सर उत्तराखंड की सरकार को आपदा से निबटना पड़ता है। हर बार हालात इतने बुरे नहीं होते और यही वजह है कि उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन की पोल सबके सामने नहीं खुल पाती। लेकिन इस बार सबने देखा कि किस तरह से उत्तराखंड का सिस्टम लोगों की जान पर भारी पड़ रहा है। आपदा से निबटने के लिए उत्तराखंड को केंद्र का मुंह देखना पड़ रहा है। उसके पास अनुभवी और दक्ष लोगों की कमी है जो आपदा के समय काम आ सकें। उत्तराखंड में आपदा के समय का जो रिएक्शन टाइम है उसको भी लेकर सवाल उठ रहे हैं। लोगों का आरोप है कि सिस्टम बहुत देर से सक्रिय हुआ। हेलिकाॅटरों की व्यवस्था से लेकर राहत सामग्री पहुंचाने तक के कामों में देरी हुई। जो लोग घायल थे उन तक चिकित्सा सुविधा भी देर से पहुंची। इसका परिणाम यह हुआ कि कई घायल भी मरने वालों मंे शुमार हो गए।
इसके साथ ही समन्वय की कमी भी साफ देखी गई। विभिन्न विभागों में तालमेल का घोर अभाव दिखा। संचार, चिकित्सा, राहत सामग्री और फंसे लोगों को निकालने का काम विभिन्न विभाग अपने अपने ही तरीके से अंजाम देते रहे। इसका नतीजा हुआ कि हम आपदा प्रबंधन को प्रभावी नहीं बना पाए। इसके साथ ही सरकार यह भी तय नहीं कर पाई कि किस काम को पहले करें और किसे बाद मंे। अपनी प्राथमिकता को तय करने में ही सरकार को खासा समय लग गया।
उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा कोई नई बात नहीं है। पिछले साल भी उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आई थी। यह जरूर है कि आपदा का स्वरूप इतना बड़ा नहीं था। लेकिन बावजूद इसके सरकार को आपदा के बाद राहत कार्यों में देरी की वजह से लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इस बार भी लोग सवाल कर रहे हैं कि यदि सरकार को पता कि मौसम खराब होने वाला है तो केदारनाथ और आसपास के इलाके को खाली क्यों नहीं कराया गया। केदारनाथ की यात्रा को क्यों नहीं रोका गया? सरकार का वेदर अलार्मिंग सिस्टम बेकार साबित हुआ। इसके साथ ही सरकार ने मौसम पूर्वानुमानों को बेहद हल्के में लिया। यही वजह है कि मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है।
दुख होता है इस बात का जिस राज्य में प्राकृतिक आपदाओं से निबटने के लिए पूरा एक मंत्रालय काम करता हो, जहां एक कैबिनेट मंत्री ऐसी आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए तनख्वाह पाता हो, पूरा एक तंत्र हो जो इस बात की निगरानी करता हो कि सूबे में प्राकृतिक आपदा से होने वाले जान -माल को कैसे कम किया जाए, वहां भी हजारों लोग एक झटके में मौत के मुंह में चले जा रहे हैं। क्या कहेंगे इसे कि आपदा आने के एक हफ्ते बाद भी हम हर जगह राहत नहीं पहुंचा पाए हैं। न जाने उत्तराखंड सरकार किस रफ्तार से काम कर रही है लेकिन इतना जरूर है कि जितने लोग इस आपदा से नहीं मरेंगे उससे कहीं अधिक इस सरकारी सिस्टम से मर जाएंगे क्योंकि उन्हें उम्मीद होगी कि आसमान से कोई हेलिकाप्टर आएगा और उन्हें बचा ले जाएगा। लेकिन कइयों की यह उम्मीद आठ दिनों में भी पूरी नहीं हुई। उम्मीद टूट रही है और ऐसे हालात में उम्मीद के टूटने के बाद आदमी जिंदा लाश से अधिक कुछ नहीं रह जाता। उम्मीद के टूटने से हो रही इन मौतों का जिम्मेदार सीधे तौर पर हमारा सिस्टम है। लाख कोशिश कर ले सरकार लेकिन इन उम्मीदों की लाशों से वह मुंह नहीं फेर सकती। इन गुनाहों से उन्हें बरी नहीं किया जा सकता। हरगिज नहीं। ये सभी उम्मीद की लाशें आज नहीं तो कल गवाही देंगी। जरूर देंगी।
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