इस मुल्क के रहनुमाओं से जितनी भी उम्मीदें थीं वह सब केदारघाटी के सैलाब में बह गईं। इंसानों की लाशों के बीच अब हमारी उम्मीदों की चीख भी सुनाई देने लगी है। इतना तो हमें पहले से पता था कि खद्दर पहनने वालों की सोच अब समाजिक उत्थान से बदलकर व्यक्तिगत उत्थान तक पहुंच गई है। लेकिन केदार घाटी में सैलाब के आने से लेकर अब जो कुछ भी सामने आ रहा है उससे लगता है कि इन रहनुमाओं को मौका मिले तो लाशों के अंगूठे पर स्याही लगाकर अपने नाम के आगे ठप्पा लगवा लेंगे। घिन आने लगी है अब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नुमांइदो से।
‘देश‘ की जनता पत्थरों के नीचे दब रही है और नेता अपने ‘राज्य‘ के लोगों को बचाने के लिए कुत्तों की तरह लड़ रहे हैं। देहरादून मंे सिस्टम के सड़ने की बू तो बहुत पहले से आ रही थी लेकिन हमारे सिस्टम में कीड़े पड़ चुके हैं यह केदारघाटी में आए सैलाब के बाद पता चला। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आने के बाद एक-एक करके सियासी चोला ओढ़े कुकरमुत्ते देहरादून में पहुंचने लगे। उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए भले ही इनके राज्यों ने हेलिकाप्टर न भेजे हों लेकिन चुनावी तैयारी को ध्यान में रखकर अपने अपने ‘वोटों‘ को बचाने के लिए सियासी ‘दलाल‘ पहुंच गए। इसके बाद शुरू हुआ इंसानों को बांटने का काम। केदारघाटी से लेकर ऋषिकेश तक देश की जनता को बांट दिया गया। कोई आंध्रा वाला हो गया तो कोई गुजरात वाला। इसके बाद जिंदगी का बंटवारा भी शुरू हो गया। आपदा में फंसे लोगों को उनके प्रदेश के आधार पर बचाया जाने लगा। अपने अपने राज्यों से आए सफेदपोशों ने अपने अपने राज्य के लोगों को बचाने के लिए हेलिकाप्टर से लेकर बसें तक लगाईं। किसी को यह याद नहीं रहा कि भारत के लोगों को बचाया जाए। नेताओं ने न सिर्फ भारत के संविधान की आत्मा को बांट दिया बल्कि जिसने लिखा था कि ‘हम भारत के लोग‘ को भी बदल दिया। अब तो ऐसा लगता है जैसे हर राज्य का अपना अलग संविधान हो गया है। ‘हम आंध्र प्रदेश के लोग‘, ‘हम गुजरात के नागरिक‘।
देहरादून में टीडीपी और कांग्रेस के नेताओं के बीच की झड़प इस बात का इशारा नहीं बल्कि पुख्ता सबूत है कि हमने लोकतांत्रिक संस्कृति को खो दिया है। राजनीति के लिए लाशों का इस्तमाल जिस देश में होने लगे उस कौम में मातम छा जाता है। राजनीतिज्ञों का स्तर इतना गिर गया है इस बात का एहसास दुखद है। हमसब को उम्मीद थी कि पूरे देश के राज्य एकजुट होकर उत्तराखंड में आई आपदा के बाद राहत कार्यों में लगेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। बातें कहां तक सेंट्रल कंमाड की हो रही है और काम रिजनल कंमाड का हो रहा है। महराष्ट्र से आए कुछ लोगों को अपनों की तलाश थी। उसने अधिकारियों से गुहार लगाई। गुहार को अनसुना कर दिया गया। नाराज लोगों ने वहीं हंगामा शुरू कर दिया। इसी बीच एक हेलिकाप्टर के पायलट को भी इन लोगों ने पकड़ लिया। पायलट के पास से एक लिस्ट मिली जिसमें कुछ खास लोगों के नाम मिले। पायलट से इन बचे लोगों मंे से लिस्ट में शामिल लोगों को प्राथमिकता के आधार पर लाने के लिए कहा गया था। ये हालात बताते हैं कि आपदा न सिर्फ केदारघाटी में आई है बल्कि राजपथ पर भी आई है। संसद के दोनों सदनों में भी अब मलबा ही भरा है। अब बस देर इस मलबे को साफ करने की है। शुक्र है कि अभी तक हमारी कौम जिंदा है और यह जिंदा कौम यकीनन केदारघाटी से मलबा हटाने के बाद संसद का मलबा भी हटा ही देगी।
‘देश‘ की जनता पत्थरों के नीचे दब रही है और नेता अपने ‘राज्य‘ के लोगों को बचाने के लिए कुत्तों की तरह लड़ रहे हैं। देहरादून मंे सिस्टम के सड़ने की बू तो बहुत पहले से आ रही थी लेकिन हमारे सिस्टम में कीड़े पड़ चुके हैं यह केदारघाटी में आए सैलाब के बाद पता चला। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आने के बाद एक-एक करके सियासी चोला ओढ़े कुकरमुत्ते देहरादून में पहुंचने लगे। उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए भले ही इनके राज्यों ने हेलिकाप्टर न भेजे हों लेकिन चुनावी तैयारी को ध्यान में रखकर अपने अपने ‘वोटों‘ को बचाने के लिए सियासी ‘दलाल‘ पहुंच गए। इसके बाद शुरू हुआ इंसानों को बांटने का काम। केदारघाटी से लेकर ऋषिकेश तक देश की जनता को बांट दिया गया। कोई आंध्रा वाला हो गया तो कोई गुजरात वाला। इसके बाद जिंदगी का बंटवारा भी शुरू हो गया। आपदा में फंसे लोगों को उनके प्रदेश के आधार पर बचाया जाने लगा। अपने अपने राज्यों से आए सफेदपोशों ने अपने अपने राज्य के लोगों को बचाने के लिए हेलिकाप्टर से लेकर बसें तक लगाईं। किसी को यह याद नहीं रहा कि भारत के लोगों को बचाया जाए। नेताओं ने न सिर्फ भारत के संविधान की आत्मा को बांट दिया बल्कि जिसने लिखा था कि ‘हम भारत के लोग‘ को भी बदल दिया। अब तो ऐसा लगता है जैसे हर राज्य का अपना अलग संविधान हो गया है। ‘हम आंध्र प्रदेश के लोग‘, ‘हम गुजरात के नागरिक‘।
देहरादून में टीडीपी और कांग्रेस के नेताओं के बीच की झड़प इस बात का इशारा नहीं बल्कि पुख्ता सबूत है कि हमने लोकतांत्रिक संस्कृति को खो दिया है। राजनीति के लिए लाशों का इस्तमाल जिस देश में होने लगे उस कौम में मातम छा जाता है। राजनीतिज्ञों का स्तर इतना गिर गया है इस बात का एहसास दुखद है। हमसब को उम्मीद थी कि पूरे देश के राज्य एकजुट होकर उत्तराखंड में आई आपदा के बाद राहत कार्यों में लगेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। बातें कहां तक सेंट्रल कंमाड की हो रही है और काम रिजनल कंमाड का हो रहा है। महराष्ट्र से आए कुछ लोगों को अपनों की तलाश थी। उसने अधिकारियों से गुहार लगाई। गुहार को अनसुना कर दिया गया। नाराज लोगों ने वहीं हंगामा शुरू कर दिया। इसी बीच एक हेलिकाप्टर के पायलट को भी इन लोगों ने पकड़ लिया। पायलट के पास से एक लिस्ट मिली जिसमें कुछ खास लोगों के नाम मिले। पायलट से इन बचे लोगों मंे से लिस्ट में शामिल लोगों को प्राथमिकता के आधार पर लाने के लिए कहा गया था। ये हालात बताते हैं कि आपदा न सिर्फ केदारघाटी में आई है बल्कि राजपथ पर भी आई है। संसद के दोनों सदनों में भी अब मलबा ही भरा है। अब बस देर इस मलबे को साफ करने की है। शुक्र है कि अभी तक हमारी कौम जिंदा है और यह जिंदा कौम यकीनन केदारघाटी से मलबा हटाने के बाद संसद का मलबा भी हटा ही देगी।
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