पत्रकारिता की नगरी कहे जाने वाले शहर बनारस में इन दिनों पत्रकारों और पुलिस में ठनी है। यहां यह अभी स्पष्ट कर दूं कि पत्रकारों से तात्पर्य टीवी माध्यम के लिए काम करने वाले लोगों से है। दरअसल इस पूरी तनातनी के मूल में कुछ दिनों पहले काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर लाशों पर सट्टा लगाए जाने की खबर है। इस खबर में दिखाया गया कि आईपीएल में ही नहीं काशी में लाशों पर भी सट्टा लगता है। यह खबर सबसे पहले एक नेशनल न्यूज चैनल पर चली। इसके बाद कुछ क्षेत्रीय चैनलों पर भी सनसनीखेज तरीके से दिखायी गई।
पुलिस का आरोप है कि खबर प्रायोजित थी और मीडिया कर्मियों ने जानबूझकर यह खबर प्लांट की। सीधे शब्दों में कहें तो खबर मैनेज किए जाने का आरोप मीडिया कर्मियों पर लगा। लिहाजा पुलिस ने मीडिया कर्मियों के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया। पुलिस, पुलिसिया अंदाज मंे आ गई है। टीवी चैनलों के पत्रकारों के साथ पुलिस किसी अपराधी की तरह पेश आ रही है। हालात ये हैं कि पत्रकारों पर आरोप साबित हुए बिना ही उन्हें अपराधी की तरह दिखाया और बताया जाने लगा है। खबरें यह भी हैं कि कुछ पत्रकारों को मारा पीटा गया और उनके घर की महिलाओं के साथ भी गलत व्यवहार किया गया।
इसके बाद पुलिस और टीवी पत्रकारों के बीच रस्साकशी तेज हो गई। एक ओर पुलिस जहां अपने अंदाज में आरोपी पत्रकारों के घरों पर दबिश दे रही है वहीं दूसरी ओर मीडिया कर्मी आपात बैठकें बुला रहे हैं। मुकदमे के मंथन के बाद चाहें जो भी निकले लेकिन इस बीच एक बहस का मौका जरूर मिल गया है। क्या पुलिस और पत्रकारों, विशेष तौर पर टीवी पत्रकारों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं? क्या विश्वास की जो डोर इन दोनों के बीच होनी चाहिए वह टूट चुकी है? आखिर पुलिस और पत्रकारों के बीच संवादहीनता की स्थिती क्यों आ गई?
इन सवालों के जवाब तलाशना मुश्किल तो नहीं लेकिन इच्छाशक्ति से प्रभावित जरूर है। बनारस ही नहीं पूरे देश मंे पुलिस और टीवी पत्रकारों के बीच इस तरह का व्यवहार अब साधारण रूप से दिखने लगा है। पुलिस को जब अपने मैनेज्ड वर्क को गुडवर्क की श्रेणी में खड़ा करना होता है तब वह पत्रकारों की शरण लेती है। कई पत्रकार भी अपनी पुलिस भक्ति में सराबोर जरूरत के हिसाब से किसी टुच्चे चेन स्नैचर को हार्डकोर नक्सली या फिर अंतरप्रातीय अपराधी बना कर बेच देते हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी पढ़ा लिखा समझदार पत्रकार दिल पर हाथ रखने के बाद मेरी इस बात से इंकार कर सकेगा। इन्हीं में से चैनल वाले कई पत्रकार तो कुछ पुलिस थानों में बाकायदा अपनी दुकान लगा लेते हैं। सिपाहियों के ट्रांसफर और प्रमोशन की सिफारिशें बड़े साहब तक पहुंचाई जाती हैं। बदले में क्या मिलता होगा सब जानते हैं। उस चर्चा तक न जाएं तो भी चलेगा। यह हमारी टीवी मीडिया की विडम्बना का एक हिस्सा है। अक्सर किसी टीवी पत्रकार की काबीलियत का पता उसके रिश्तेदार इस बात से लगाते हैं कि वो पुलिस या प्रशासनिक महकमे में कितने काम करा सकते हैं। टीवी पत्रकारिता में एक बड़ी जमात ऐसे लोगों की है जो किसी कोड आॅफ कंडक्ट को तो छोडि़ए अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी नहीं जानते। सच शायद कड़वा हो लेकिन मैंने जब वाराणसी में टीवी पत्रकारिता की शुरुआत से जुड़े एक वरिष्ठतम पत्रकार से दबी जुबान से यह कहा कि चैनल के पत्रकार की शक्ल में कई विशुद्ध दलाल भी हैं तो उन्होंने कोई प्रतिकार नहीं किया। मेरे लिए यह सुखद तो नहीं लेकिन हैरानी भरा जरूर था। आप जानते हैं कि आपके बीच, आपकी ही छवि खराब करने वाले लोग मौजूद हैं लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते। यह भी किसी विडंबना से कम नहीं। लेकिन यहां एक बात और स्पष्ट करना जरूरी है कि इस भेड़ चाल में सभी को दोषी नहीं ठहरा सकते।
अविष्कार, आवश्कता की जननी है। क्या यह बात खबरों की दुनिया में भी लागू होती है। मुझे लगता है कि हां। नब्बे के दशक में जब प्राइवेट न्यूज चैनलों का युग शुरू हुआ तब कैमरे की जानकारी रखने वाले लोग कम ही होते थे। चैनलों को विजुअल्स की आवश्कता थी लिहाजा कई पत्रकारों का अविष्कार कर दिया गया। इनमें से कइयों को आप दुर्घटना से पत्रकार बनने वालों की श्रेणी में भी डाल सकते हैं। किसी भी तरीके के फिल्टर को यहां प्रयोग में नहीं लाया गया। अच्छे और योग्य की तलाश लगभग नहीं के बराबर रही। धीरे धीरे चैनलों की संख्या बढ़ती गई और दुर्घटनावश पत्रकार बने लोग भी बढ़ते गए। जाहिर है कि इससे पत्रकारिता मरती गई। लेकिन बावजूद इसे रोकनी की छटपटाहट कम ही दिखी। आखिर क्यों नहीं वरिष्ठ पत्रकार इस क्षेत्र में आए किसी नवांगतुक को उसकी सामाजिक और पेशागत जिम्मेदारियों के बारे में बताते हैं? क्यांे नहीं किसी टीवी पत्रकार के गलत आचरण को पूरा कुनबा साथ मिलकर दूर करने की कोशिश करता है? आपात बैठकें ऐसे समय में भी बुलायी जानी चाहिए।
वाराणसी में हुई घटना के बाद भी कम से कम पूरे देश के पत्रकारों को सबक लेना चाहिए। पुलिस ने सहयोग मांगने के नाम पर पत्रकारों का लगभग उत्पीड़न ही शुरू कर दिया। पुलिस की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में रही है इसमें कोई दो राय नहीं हैं। एक कहावत है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी न दुश्मनी। फिर चैनल वाले पत्रकार इस लकीर को पकड़ कर क्यांे नहीं चल पाते? क्या किसी मोह के शिकार हैं? बनारस एक ऐसा शहर है जहां के लगभग 75 फीसदी टीवी पत्रकार पिछले कुछ सालों मंे पुलिसिया मुकदमें मंे फंस चुके हैं। इस बारे मंे बनारस में टीवी पत्रकारिता की शुरुआत से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार गिरीश दुबे भी हैरानी जताते हैं। छूटते ही सवाल दागते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि दो तिहाई के करीब पत्रकार गलत ही हों। वो प्रशासन पर प्रहार करते हैं। कहते हैं अपनी गलती छुपाने के लिए पुलिस पत्रकारों को फंसा देती है। कुछ देर कर बातचीत के बाद हालांकि गिरीश जी यह जरूर कहते हैं कि मीडिया वालों की और खासकर इस टीवी मीडिया की विधा की मजबूरी को सभी को समझना चाहिए। दृश्य और श्रव्य माध्यम में अक्सर खबरों में ‘कुछ मैनेज‘ करना होता है। चलते चलते वह यह भी मान लेते हैं पत्रकारों के बीच कई दलाल भी हैं जिन्हें फिल्टर किया जाना जरूरी है। लेकिन इस बीच गिरीश जी पूरी मजबूती के साथ पुलिस के खिलाफ खड़े रहे। पुलिसिया कार्रवाई की कड़े शब्दों में निंदा करते रहे और कहते रहे कि अब पुलिस पत्रकारों को अपराधी बना रही है। वैसे प्रश्न यह भी उठता है पुलिस ने जजों वाला काम कब से शुरू कर दिया। पुलिस कैसे यह तय कर सकती है कि अमुक खबर गलत है या फिर अमुक खबर सही। यह प्रश्न तत्कालिक लग सकता है लेकिन मेरी समझ में यह पत्रकारिता के स्वतंत्र भविष्य से जुड़ा मसला है। काशी में इलेक्ट्रानिक मीडिया की शुरुआत से जुड़े वरिष्ठतम पत्रकारों में शामिल अजय सिंह जब यह सवाल उठाते हैं तो इससे जुड़े कई और पहलुओं पर भी सिलसिलेवार चले जाते हैं। अजय सिंह तल्खी भरे अंदाज में कहते हैं कि खबरों की सत्यता परखने का काम संपादक का है, पुलिस का नहीं। अगर पुलिस खबरों के सही या गलत होने का निर्णय करने लगी तो छप चुके अखबार और चल चुके न्यूज चैनल। बात बात मंे सवाल यह भी उठा कि किसी पहुंच वाले के खिलाफ मुकदमा करने के लिए पुलिस किसी शिकायत का इंतजार करती है लेकिन पत्रकारों के खिलाफ बिना किसी शिकायत के ही मुकदमा दर्ज हो जाता है। शायद पुलिस अपने को जज समझ कर स्वयं संज्ञान की अवधारणा को अपना चुकी है। ऐसे में पुलिस की कार्यशैली को गुंडई के रूप में परिभाषित करना ज्यादा आसान होगा।
इस देश का कानून कुछ यूं है कि यहां बेगुनाह अपनी बेगुनाही साबित करता है। किसी खद्दरधारी ने अगर सौ खून भी किए हों तो पुलिस दो-चार साल तक सोचने के बाद उसके खिलाफ रपट लिखती है और इसके दो-चार साल बाद एकाध घंटे के लिए उसे थाने में बैठा लेती है। लेकिन मामला किसी आम आदमी का हो तो न सोचना, न जांचना। बस उठाना, मुकदमा लिखना और अंदर कर देना। करते रहिए आप अपनी बेगुनाही साबित। इतने में आठ-दस साल तो निकल ही जाएंगे। वाराणसी में पत्रकारों के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। लेकिन इसी बहाने टीवी माध्यम के पत्रकारों से भी उम्मीद होगी कि ऐसे लोगों की पहचान कर लें जो खबरों को अपनी रखैल समझते हैं। जब चाहा, जैसे चाहा नचा दिया।
क्षमा प्रार्थना- चूंकि इस विधा से मैं भी जुड़ा रहा हूं और इसी की रोटी खाता हूं लिहाजा इस बारे में मुझे बोलने का कोई हक नहीं लेकिन इसी वजह से मेरी जिम्मेदारी भी है। हो सकता है सच की आदत कुछ सहयोगियांे को न हो लेकिन शीशे सबके घरों में। बस एक बार हम सब को शक्ल अपनी देखनी होगी।
पुलिस का आरोप है कि खबर प्रायोजित थी और मीडिया कर्मियों ने जानबूझकर यह खबर प्लांट की। सीधे शब्दों में कहें तो खबर मैनेज किए जाने का आरोप मीडिया कर्मियों पर लगा। लिहाजा पुलिस ने मीडिया कर्मियों के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया। पुलिस, पुलिसिया अंदाज मंे आ गई है। टीवी चैनलों के पत्रकारों के साथ पुलिस किसी अपराधी की तरह पेश आ रही है। हालात ये हैं कि पत्रकारों पर आरोप साबित हुए बिना ही उन्हें अपराधी की तरह दिखाया और बताया जाने लगा है। खबरें यह भी हैं कि कुछ पत्रकारों को मारा पीटा गया और उनके घर की महिलाओं के साथ भी गलत व्यवहार किया गया।
इसके बाद पुलिस और टीवी पत्रकारों के बीच रस्साकशी तेज हो गई। एक ओर पुलिस जहां अपने अंदाज में आरोपी पत्रकारों के घरों पर दबिश दे रही है वहीं दूसरी ओर मीडिया कर्मी आपात बैठकें बुला रहे हैं। मुकदमे के मंथन के बाद चाहें जो भी निकले लेकिन इस बीच एक बहस का मौका जरूर मिल गया है। क्या पुलिस और पत्रकारों, विशेष तौर पर टीवी पत्रकारों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं? क्या विश्वास की जो डोर इन दोनों के बीच होनी चाहिए वह टूट चुकी है? आखिर पुलिस और पत्रकारों के बीच संवादहीनता की स्थिती क्यों आ गई?
इन सवालों के जवाब तलाशना मुश्किल तो नहीं लेकिन इच्छाशक्ति से प्रभावित जरूर है। बनारस ही नहीं पूरे देश मंे पुलिस और टीवी पत्रकारों के बीच इस तरह का व्यवहार अब साधारण रूप से दिखने लगा है। पुलिस को जब अपने मैनेज्ड वर्क को गुडवर्क की श्रेणी में खड़ा करना होता है तब वह पत्रकारों की शरण लेती है। कई पत्रकार भी अपनी पुलिस भक्ति में सराबोर जरूरत के हिसाब से किसी टुच्चे चेन स्नैचर को हार्डकोर नक्सली या फिर अंतरप्रातीय अपराधी बना कर बेच देते हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी पढ़ा लिखा समझदार पत्रकार दिल पर हाथ रखने के बाद मेरी इस बात से इंकार कर सकेगा। इन्हीं में से चैनल वाले कई पत्रकार तो कुछ पुलिस थानों में बाकायदा अपनी दुकान लगा लेते हैं। सिपाहियों के ट्रांसफर और प्रमोशन की सिफारिशें बड़े साहब तक पहुंचाई जाती हैं। बदले में क्या मिलता होगा सब जानते हैं। उस चर्चा तक न जाएं तो भी चलेगा। यह हमारी टीवी मीडिया की विडम्बना का एक हिस्सा है। अक्सर किसी टीवी पत्रकार की काबीलियत का पता उसके रिश्तेदार इस बात से लगाते हैं कि वो पुलिस या प्रशासनिक महकमे में कितने काम करा सकते हैं। टीवी पत्रकारिता में एक बड़ी जमात ऐसे लोगों की है जो किसी कोड आॅफ कंडक्ट को तो छोडि़ए अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी नहीं जानते। सच शायद कड़वा हो लेकिन मैंने जब वाराणसी में टीवी पत्रकारिता की शुरुआत से जुड़े एक वरिष्ठतम पत्रकार से दबी जुबान से यह कहा कि चैनल के पत्रकार की शक्ल में कई विशुद्ध दलाल भी हैं तो उन्होंने कोई प्रतिकार नहीं किया। मेरे लिए यह सुखद तो नहीं लेकिन हैरानी भरा जरूर था। आप जानते हैं कि आपके बीच, आपकी ही छवि खराब करने वाले लोग मौजूद हैं लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते। यह भी किसी विडंबना से कम नहीं। लेकिन यहां एक बात और स्पष्ट करना जरूरी है कि इस भेड़ चाल में सभी को दोषी नहीं ठहरा सकते।
अविष्कार, आवश्कता की जननी है। क्या यह बात खबरों की दुनिया में भी लागू होती है। मुझे लगता है कि हां। नब्बे के दशक में जब प्राइवेट न्यूज चैनलों का युग शुरू हुआ तब कैमरे की जानकारी रखने वाले लोग कम ही होते थे। चैनलों को विजुअल्स की आवश्कता थी लिहाजा कई पत्रकारों का अविष्कार कर दिया गया। इनमें से कइयों को आप दुर्घटना से पत्रकार बनने वालों की श्रेणी में भी डाल सकते हैं। किसी भी तरीके के फिल्टर को यहां प्रयोग में नहीं लाया गया। अच्छे और योग्य की तलाश लगभग नहीं के बराबर रही। धीरे धीरे चैनलों की संख्या बढ़ती गई और दुर्घटनावश पत्रकार बने लोग भी बढ़ते गए। जाहिर है कि इससे पत्रकारिता मरती गई। लेकिन बावजूद इसे रोकनी की छटपटाहट कम ही दिखी। आखिर क्यों नहीं वरिष्ठ पत्रकार इस क्षेत्र में आए किसी नवांगतुक को उसकी सामाजिक और पेशागत जिम्मेदारियों के बारे में बताते हैं? क्यांे नहीं किसी टीवी पत्रकार के गलत आचरण को पूरा कुनबा साथ मिलकर दूर करने की कोशिश करता है? आपात बैठकें ऐसे समय में भी बुलायी जानी चाहिए।
वाराणसी में हुई घटना के बाद भी कम से कम पूरे देश के पत्रकारों को सबक लेना चाहिए। पुलिस ने सहयोग मांगने के नाम पर पत्रकारों का लगभग उत्पीड़न ही शुरू कर दिया। पुलिस की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में रही है इसमें कोई दो राय नहीं हैं। एक कहावत है कि पुलिस वालों से दोस्ती अच्छी न दुश्मनी। फिर चैनल वाले पत्रकार इस लकीर को पकड़ कर क्यांे नहीं चल पाते? क्या किसी मोह के शिकार हैं? बनारस एक ऐसा शहर है जहां के लगभग 75 फीसदी टीवी पत्रकार पिछले कुछ सालों मंे पुलिसिया मुकदमें मंे फंस चुके हैं। इस बारे मंे बनारस में टीवी पत्रकारिता की शुरुआत से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार गिरीश दुबे भी हैरानी जताते हैं। छूटते ही सवाल दागते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि दो तिहाई के करीब पत्रकार गलत ही हों। वो प्रशासन पर प्रहार करते हैं। कहते हैं अपनी गलती छुपाने के लिए पुलिस पत्रकारों को फंसा देती है। कुछ देर कर बातचीत के बाद हालांकि गिरीश जी यह जरूर कहते हैं कि मीडिया वालों की और खासकर इस टीवी मीडिया की विधा की मजबूरी को सभी को समझना चाहिए। दृश्य और श्रव्य माध्यम में अक्सर खबरों में ‘कुछ मैनेज‘ करना होता है। चलते चलते वह यह भी मान लेते हैं पत्रकारों के बीच कई दलाल भी हैं जिन्हें फिल्टर किया जाना जरूरी है। लेकिन इस बीच गिरीश जी पूरी मजबूती के साथ पुलिस के खिलाफ खड़े रहे। पुलिसिया कार्रवाई की कड़े शब्दों में निंदा करते रहे और कहते रहे कि अब पुलिस पत्रकारों को अपराधी बना रही है। वैसे प्रश्न यह भी उठता है पुलिस ने जजों वाला काम कब से शुरू कर दिया। पुलिस कैसे यह तय कर सकती है कि अमुक खबर गलत है या फिर अमुक खबर सही। यह प्रश्न तत्कालिक लग सकता है लेकिन मेरी समझ में यह पत्रकारिता के स्वतंत्र भविष्य से जुड़ा मसला है। काशी में इलेक्ट्रानिक मीडिया की शुरुआत से जुड़े वरिष्ठतम पत्रकारों में शामिल अजय सिंह जब यह सवाल उठाते हैं तो इससे जुड़े कई और पहलुओं पर भी सिलसिलेवार चले जाते हैं। अजय सिंह तल्खी भरे अंदाज में कहते हैं कि खबरों की सत्यता परखने का काम संपादक का है, पुलिस का नहीं। अगर पुलिस खबरों के सही या गलत होने का निर्णय करने लगी तो छप चुके अखबार और चल चुके न्यूज चैनल। बात बात मंे सवाल यह भी उठा कि किसी पहुंच वाले के खिलाफ मुकदमा करने के लिए पुलिस किसी शिकायत का इंतजार करती है लेकिन पत्रकारों के खिलाफ बिना किसी शिकायत के ही मुकदमा दर्ज हो जाता है। शायद पुलिस अपने को जज समझ कर स्वयं संज्ञान की अवधारणा को अपना चुकी है। ऐसे में पुलिस की कार्यशैली को गुंडई के रूप में परिभाषित करना ज्यादा आसान होगा।
इस देश का कानून कुछ यूं है कि यहां बेगुनाह अपनी बेगुनाही साबित करता है। किसी खद्दरधारी ने अगर सौ खून भी किए हों तो पुलिस दो-चार साल तक सोचने के बाद उसके खिलाफ रपट लिखती है और इसके दो-चार साल बाद एकाध घंटे के लिए उसे थाने में बैठा लेती है। लेकिन मामला किसी आम आदमी का हो तो न सोचना, न जांचना। बस उठाना, मुकदमा लिखना और अंदर कर देना। करते रहिए आप अपनी बेगुनाही साबित। इतने में आठ-दस साल तो निकल ही जाएंगे। वाराणसी में पत्रकारों के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। लेकिन इसी बहाने टीवी माध्यम के पत्रकारों से भी उम्मीद होगी कि ऐसे लोगों की पहचान कर लें जो खबरों को अपनी रखैल समझते हैं। जब चाहा, जैसे चाहा नचा दिया।
क्षमा प्रार्थना- चूंकि इस विधा से मैं भी जुड़ा रहा हूं और इसी की रोटी खाता हूं लिहाजा इस बारे में मुझे बोलने का कोई हक नहीं लेकिन इसी वजह से मेरी जिम्मेदारी भी है। हो सकता है सच की आदत कुछ सहयोगियांे को न हो लेकिन शीशे सबके घरों में। बस एक बार हम सब को शक्ल अपनी देखनी होगी।
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