हैरानी नहीं हुई जब इस देश के तमाम राजनीतिक दल दागियों की परिभाषा तय करने और उन्हें बचाने के लिए एकजुट हो गए। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ही राजनीतिक हलकों में बेचैनी बढ़ गई थी। हमाम में नंगे होेने के लिए बेताब नेताओं ने आखिरकार बेशर्मी की सभी हदें पार कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद की सर्वोच्चता का हथियार चल दिया। सांसदों को लगता है कि जन प्रतिनिधी कैसा हो इसे चुनने का अधिकार सिर्फ जन प्रतिनिधियों को ही है। यही वजह है कि संसद में एक दूसरे पर चीखने चिल्लाने वाले सभी दलों के नेता इस परिस्थिती में एक हो चुके हैं। उन्हें पता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद की सर्वोच्चता का ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं हुआ तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में दागी सांसदों के आने का रास्ता बंद हो जाएगा।
10 जुलाई 2013 को लिली थामस, चुनाव आयोग, बसंत चैधरी और जनमूल्यों को समर्पित संस्था लोकप्रहरी के द्वारा दायर जनहित याचिका पर फैसला देते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ कर दिया कि दो वर्ष या उससे अधिक की सजा पाने वाले व्यक्तियांे को जनप्रतिनिधि नहीं बनाया जा सकता है। यही नहीं जेल से चुनाव लड़ने पा भी सुप्रीम कोर्ट ने पूरी तरह रोक लगा दी। कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को ही निरस्त कर दिया। दरअसल यह धारा दागियों के लिए संसद में पहुंचने के लिए बाईपास का काम करती है। कानून की इस धारा के तहत प्रावधान है कि दोषी जनप्रतिनिधि ऊपरी अदालत में अपील दायर करने के और उस अपील पर फैसला आने तक अपनी सदस्यता को बरकरार रख सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यही व्यवस्था खत्म कर दी है। कोर्ट ने राजनीति को मूल्यपरक विषयों पर केंद्रित करने के लिहाज से भड़काऊ भाषण देने के दोषी की सदस्यता को समाप्त करने की व्यवस्था दी है।
कोर्ट की यह दवा राजनीतिज्ञों को कुछ अधिक ही कड़वी लगी। फैसला आने के बाद से ही राजनीतिक दल अपनी असलियत छुपाने के लिए एकजुट होने लगे। मुखौटों के पीछे की स्याह सच कहीं सामने न आ जाए इसलिए संसद की सर्वोच्चता और संसद की गिरती साख जैसी भावुक शब्दों का प्रयोग शुरू हो गया। सांसदों ने मिलकर व्यूह की रचना की। अब तय हुआ है कि किस जनप्रतिनिधि को दागी कहा जाए और किसे क्लीन चिट दी जाए यह कोर्ट नहीं बल्कि संसद ही तय करेगी। बाकायदा इसके लिए कानून में बदलाव किया जा रहा है। लेकिन हमारे माननीय यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि संसद की गिरती साख का जिम्मेदार कौन है। माननीय यह भी नहीं बताना चाहते कि आखिर संसद की सर्वोच्चता क्यों खत्म हो गई। संसद की विशाल इमारत में गोल हाल में बैठकर तमाम मुद्दों पर एक दूसरे को पूरी तरह गलत साबित करने वाले सांसदों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि आखिर इस मुद्दे पर उनकी सहमति इतनी जल्दी कैसे बन गई।
दरअसल 1952 से शुरू हुआ भारतीय गणतंत्र का सफर पैंसठ सालों में इतना भटक चुका है कि उसे अपनी मंजिल ही याद नहीं रह गई है। चुनाव प्रणाली और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर शोध करने वाली संस्था एडीआर और नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट के मुताबिक देश 30 फीसदी जनप्रतिनिधियों ने माना है कि उनके खिलाफ अपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। इनमें से 14 फीसदी ऐसे हैं जिनपर गंभीर आरोप हैं। झारखंड जैसे नए राज्य की विडंबना देखिए कि यहां 2009 के विधानसभा चुनावों में जीत कर पहुंचे 74 फीसदी जनप्रतिनिधि अपराधिक मामलों का सामना कर रहे थे। बिहार की 2010 विधानसभा में 58 फीसदी जनप्रतिनिधि अपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी मंे 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में 47 फीसदी जनप्रतिनिधि अपराधिक मुकदमें झेल रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतने वाले 82 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों ने चुनाव आयोग के समक्ष दायर अपने हलफनामे में माना है कि वह अपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं।
यह सच है कि इस बात की आशंका भी है कि राजनीतिक दांव पेंच के बीच सुप्रीम कोर्ट के इन प्रावधानों का दुरुप्रयोग भी हो सकता है। लेकिन सरकार का रवैया इस पूरे मामले में बेहद हैरान करने वाला है। सरकार ने इस बात की कोई कोशिश नहीं कि चुनाव सुधारों के दौर को आगे बढ़ाया जाए और संसद में दागियों के पहंुचने पर रोक लगाई जाए। बल्कि सरकार ने अपने और अपने ‘मौसेरे भाइयों‘ को सुरक्षित रखने के लिए नई व्यवस्था बना दी। अब ऐसे में अगली बार जब सांसद, संसद की सर्वोच्चता की बात करेंगे तो जवाब क्या दिया जाए ?
10 जुलाई 2013 को लिली थामस, चुनाव आयोग, बसंत चैधरी और जनमूल्यों को समर्पित संस्था लोकप्रहरी के द्वारा दायर जनहित याचिका पर फैसला देते हुए देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ कर दिया कि दो वर्ष या उससे अधिक की सजा पाने वाले व्यक्तियांे को जनप्रतिनिधि नहीं बनाया जा सकता है। यही नहीं जेल से चुनाव लड़ने पा भी सुप्रीम कोर्ट ने पूरी तरह रोक लगा दी। कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को ही निरस्त कर दिया। दरअसल यह धारा दागियों के लिए संसद में पहुंचने के लिए बाईपास का काम करती है। कानून की इस धारा के तहत प्रावधान है कि दोषी जनप्रतिनिधि ऊपरी अदालत में अपील दायर करने के और उस अपील पर फैसला आने तक अपनी सदस्यता को बरकरार रख सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यही व्यवस्था खत्म कर दी है। कोर्ट ने राजनीति को मूल्यपरक विषयों पर केंद्रित करने के लिहाज से भड़काऊ भाषण देने के दोषी की सदस्यता को समाप्त करने की व्यवस्था दी है।
कोर्ट की यह दवा राजनीतिज्ञों को कुछ अधिक ही कड़वी लगी। फैसला आने के बाद से ही राजनीतिक दल अपनी असलियत छुपाने के लिए एकजुट होने लगे। मुखौटों के पीछे की स्याह सच कहीं सामने न आ जाए इसलिए संसद की सर्वोच्चता और संसद की गिरती साख जैसी भावुक शब्दों का प्रयोग शुरू हो गया। सांसदों ने मिलकर व्यूह की रचना की। अब तय हुआ है कि किस जनप्रतिनिधि को दागी कहा जाए और किसे क्लीन चिट दी जाए यह कोर्ट नहीं बल्कि संसद ही तय करेगी। बाकायदा इसके लिए कानून में बदलाव किया जा रहा है। लेकिन हमारे माननीय यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि संसद की गिरती साख का जिम्मेदार कौन है। माननीय यह भी नहीं बताना चाहते कि आखिर संसद की सर्वोच्चता क्यों खत्म हो गई। संसद की विशाल इमारत में गोल हाल में बैठकर तमाम मुद्दों पर एक दूसरे को पूरी तरह गलत साबित करने वाले सांसदों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि आखिर इस मुद्दे पर उनकी सहमति इतनी जल्दी कैसे बन गई।
दरअसल 1952 से शुरू हुआ भारतीय गणतंत्र का सफर पैंसठ सालों में इतना भटक चुका है कि उसे अपनी मंजिल ही याद नहीं रह गई है। चुनाव प्रणाली और उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर शोध करने वाली संस्था एडीआर और नेशनल इलेक्शन वाच की रिपोर्ट के मुताबिक देश 30 फीसदी जनप्रतिनिधियों ने माना है कि उनके खिलाफ अपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। इनमें से 14 फीसदी ऐसे हैं जिनपर गंभीर आरोप हैं। झारखंड जैसे नए राज्य की विडंबना देखिए कि यहां 2009 के विधानसभा चुनावों में जीत कर पहुंचे 74 फीसदी जनप्रतिनिधि अपराधिक मामलों का सामना कर रहे थे। बिहार की 2010 विधानसभा में 58 फीसदी जनप्रतिनिधि अपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी मंे 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में 47 फीसदी जनप्रतिनिधि अपराधिक मुकदमें झेल रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतने वाले 82 प्रतिशत जनप्रतिनिधियों ने चुनाव आयोग के समक्ष दायर अपने हलफनामे में माना है कि वह अपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं।
यह सच है कि इस बात की आशंका भी है कि राजनीतिक दांव पेंच के बीच सुप्रीम कोर्ट के इन प्रावधानों का दुरुप्रयोग भी हो सकता है। लेकिन सरकार का रवैया इस पूरे मामले में बेहद हैरान करने वाला है। सरकार ने इस बात की कोई कोशिश नहीं कि चुनाव सुधारों के दौर को आगे बढ़ाया जाए और संसद में दागियों के पहंुचने पर रोक लगाई जाए। बल्कि सरकार ने अपने और अपने ‘मौसेरे भाइयों‘ को सुरक्षित रखने के लिए नई व्यवस्था बना दी। अब ऐसे में अगली बार जब सांसद, संसद की सर्वोच्चता की बात करेंगे तो जवाब क्या दिया जाए ?
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