बंगलुरु से आई खबर जितनी सुखद लगती है उतनी ही दुखद भी। ये खबर दिल को तसल्ली देती है तो सवालों की पोटली भी पीठ पर लाद देती है। हालांकि कई लोगों को जब फेसबुक, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से इस खबर का पता चला तो उन्हें यकीन नहीं हुआ लेकिन अब आप यकीन कर लीजिए क्योंकि ये खबर सौ फीसदी सच है।
वाक्या इस पोस्ट को लिखने से ठीक पहले वाले शनिवार का है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी बंगलुरू में थे। उन्हें मेट्रो का उद्घाटन करना था। राष्ट्रपति को राजभवन से कार्यक्रम स्थल तक सड़क मार्ग से जाना था। कार्यक्रम खत्म करके महामहिम का काफिला राजभवन को लौट रहा था। इसी बीच त्रिनिटी सर्किल पर तैनात ट्रैफिक पुलिस के एसआई एमएल निजलिंगप्पा ड्यूटी पर थे। निजलिंगप्पा को एक एंबुलेंस दिखाई दी। मैं तो कभी बंगलुरू गया नहीं लेकिन लोगों ने बताया और खबरों में पढ़ा कि वहां ट्रैफिक अधिक रहता है। इसी ट्रैफिक में एंबुलेंस भी थी। यही वक्त राष्ट्रपति के काफिले के गुजरने का भी था। निजलिंगप्पा की नजरें एंबुलेंस पर गईं। निजलिंगप्पा ने एंबुलेंस को रास्ता देना शुरु ही किया था कि राष्ट्रपति का काफिला आ गया, बस फिर क्या था। निजलिंगप्पा ने मन बना लिया था। उन्होंने राष्ट्रपति के काफिले को रुकने का इशारा किया और एंबुलेंस को पहले निकल जाने दिया। एंबुलेंस के बाद राष्ट्रपति का काफिला गुजरा।
निजलिंगप्पा के इस काम की खूब सराहना हुई।
बंगलुरू पुलिस ने ट्वीट कर इसकी सराहना सार्वजनिक रूप से की। लोगों ने भी इसे सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों को बहुत बड़ा जानकार बन कर बताया।
लेकिन इस देश का काम एक निजलिंगप्पा से नहीं चलने वाला। आमतौर पर हम एंबुलेंस के लिए ग्रीन कॉरिडोर की खबरें दक्षिण भारत से सुनते हैं। या फिर दिल्ली और नोएडा से। यूपी और बिहार में आप संभवत: ऐसा सोच भी नहीं सकते। यूपी, बिहार, झारखंड, जैसे प्रदेशों में एंबुलेंस मरीज को समय पर अस्पताल पहुंचा दे तो मरीज की किस्मत समझिए। इस संबंध में आंकड़ा देने की भी जरूरत मैं नहीं समझता क्योंकि इस बात को पूरा देश महसूस करता है। सड़क पर हमारी सोच सड़क छाप हो जाती है। हम इंसानी एहसासों को बेवजह की तराजू में तौलने लगते हैं। हमारे लिए एंबुलेंस को मौका देना अपनी गाड़ी निकालने से अधिक महत्वपूर्ण नहीं होता। हमारा सारा सिविक सेंस, मॉरल सेंस, पब्लिक सेंस खत्म हो जाता है।
इस पोस्ट में बहुत बुद्धजीविता डालने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। बस इतनी भर कोशिश कर रहा हूं कि आप और हम एंबुलेंस और उसके भीतर के मरीज के बारे में सोचना शुरु करें। एक मोटा आंकड़ा बताता है कि अगर एंबुलेंस को खाली रास्ता मिल जाए तो 60 फीसदी केसेज में मरीज को बचाया जा सकता है। अगली बार जब आप किसी एंबुलेंस को जाम में फंसा हुआ देखें तो उसके लिए रास्ता बनाने की कोशिश करें। करेंगे ना?
वाक्या इस पोस्ट को लिखने से ठीक पहले वाले शनिवार का है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी बंगलुरू में थे। उन्हें मेट्रो का उद्घाटन करना था। राष्ट्रपति को राजभवन से कार्यक्रम स्थल तक सड़क मार्ग से जाना था। कार्यक्रम खत्म करके महामहिम का काफिला राजभवन को लौट रहा था। इसी बीच त्रिनिटी सर्किल पर तैनात ट्रैफिक पुलिस के एसआई एमएल निजलिंगप्पा ड्यूटी पर थे। निजलिंगप्पा को एक एंबुलेंस दिखाई दी। मैं तो कभी बंगलुरू गया नहीं लेकिन लोगों ने बताया और खबरों में पढ़ा कि वहां ट्रैफिक अधिक रहता है। इसी ट्रैफिक में एंबुलेंस भी थी। यही वक्त राष्ट्रपति के काफिले के गुजरने का भी था। निजलिंगप्पा की नजरें एंबुलेंस पर गईं। निजलिंगप्पा ने एंबुलेंस को रास्ता देना शुरु ही किया था कि राष्ट्रपति का काफिला आ गया, बस फिर क्या था। निजलिंगप्पा ने मन बना लिया था। उन्होंने राष्ट्रपति के काफिले को रुकने का इशारा किया और एंबुलेंस को पहले निकल जाने दिया। एंबुलेंस के बाद राष्ट्रपति का काफिला गुजरा।
निजलिंगप्पा के इस काम की खूब सराहना हुई।
बंगलुरू पुलिस ने ट्वीट कर इसकी सराहना सार्वजनिक रूप से की। लोगों ने भी इसे सोशल मीडिया पर अपने दोस्तों को बहुत बड़ा जानकार बन कर बताया।
लेकिन इस देश का काम एक निजलिंगप्पा से नहीं चलने वाला। आमतौर पर हम एंबुलेंस के लिए ग्रीन कॉरिडोर की खबरें दक्षिण भारत से सुनते हैं। या फिर दिल्ली और नोएडा से। यूपी और बिहार में आप संभवत: ऐसा सोच भी नहीं सकते। यूपी, बिहार, झारखंड, जैसे प्रदेशों में एंबुलेंस मरीज को समय पर अस्पताल पहुंचा दे तो मरीज की किस्मत समझिए। इस संबंध में आंकड़ा देने की भी जरूरत मैं नहीं समझता क्योंकि इस बात को पूरा देश महसूस करता है। सड़क पर हमारी सोच सड़क छाप हो जाती है। हम इंसानी एहसासों को बेवजह की तराजू में तौलने लगते हैं। हमारे लिए एंबुलेंस को मौका देना अपनी गाड़ी निकालने से अधिक महत्वपूर्ण नहीं होता। हमारा सारा सिविक सेंस, मॉरल सेंस, पब्लिक सेंस खत्म हो जाता है।
इस पोस्ट में बहुत बुद्धजीविता डालने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। बस इतनी भर कोशिश कर रहा हूं कि आप और हम एंबुलेंस और उसके भीतर के मरीज के बारे में सोचना शुरु करें। एक मोटा आंकड़ा बताता है कि अगर एंबुलेंस को खाली रास्ता मिल जाए तो 60 फीसदी केसेज में मरीज को बचाया जा सकता है। अगली बार जब आप किसी एंबुलेंस को जाम में फंसा हुआ देखें तो उसके लिए रास्ता बनाने की कोशिश करें। करेंगे ना?
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें