बिस्मिल्लाह खां को यूं तो पूरी दुनिया जानती है लेकिन जो लोग उनसे मिले थे वो बिस्मिल्ला खां को उनके संगीत के साथ साथ उनके इंसानी जज्बातों के प्रति संवेदनशीलता के लिए भी मानते थे। मेरा सौभाग्य रहा कि जिस शहर में बिस्मिल्ला खां ने शहनाई के सुर साधे उसी शहर में मेरी भी आंख खुली। बिस्मिल्ला खां को करीब से देखा तो महसूस हुआ कि ये दुनिया बिस्मिल्ला खां को जितना जानती है कुछ कम ही जानती है।
शहर बनारस की तंग गली में एक छोटे से मकान में रहने वाले बिस्मिल्ला खां अपने घर के ड्राइंग रूम में बांह वाली बनियान या बंडी पहने मिल जाते। कमरे में उनके मिले पुरुस्कारों और सम्मान की तस्वीरे लगी थीं। बिस्मिल्ला खां की शहनाई उनके संगीत के शिखर पर तो ले आई थी लेकिन बतौर इंसान वो बिल्कुल सरल थे। बनारसी अंदाज और ठसक हर ओर से झलकती। बातों में मुलायमियत थी ही। रह रह कर ठहाके लगाकर हंसते फिर प प प प करते शहनाई की धुन गुनगुना देते।
बनारस और गंगा के प्रति उनका लगाव गजब का था। एक बार उन्हें अमेरिका में रहने का निमंत्रण दिया गया। बिस्मिल्ला खां ने निमंत्रण देने वाले से पूछा कि सब तो ठीक है लेकिन अमेरिका में बनारस की मस्ती और गंगा का किनारा कहां से आएगा?
बिस्मिल्ला खां के संगीत साधना से जुड़ी भी एक अजीब कहानी है। खां साहब ने बनारस में गंगा किनारे एक मंदिर में बैठकर अपनी शहनाई के सुर साधे। बालाजी मंदिर में बिस्मिल्ला खां शहनाई बजाया करते। कहते हैं कि बिस्मिल्ला को भगवान का आशीर्वाद मिला हुआ था। बिस्मिल्ला खां मां गंगा को खुश करने के लिए भी देर तक शहनाई बजाते रहते। बिस्मिल्ला थे तो धर्म से मुसलमान लेकिन बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में वो नियमित शहनाई बजाया करते। मोहर्रम के मौके पर बिस्मिल्ला की मातमी धुन हर एक की आंखों से बरबस आंसू ले आती। बनारस की गंगा जमुनी तहजीब के नजीर थे बिस्मिल्ला।
बिस्मिल्ला खां ने मुल्क की आजादी के मौके पर 1947 में लाल किले से अपनी शहनाई की धुन छेड़ी थी। जवाहरलाल नेहरू के खास बुलावे पर बिस्मिल्ला खां दिल्ली पहुंचे थे। यही नहीं बहुत कम लोग जानते हैं कि 26 जनवरी 1950 को भी दिल्ली में अपनी शहनाई बजाई।
जीते जी बिस्मिल्ला और बनारस का साथ कभी नहीं छूटा। 90 की उमर में बिस्मिल्ला खां बीमार पड़े। बनारस के एक निजी अस्पताल में बिस्मिल्ला खां ने 21 अगस्त 2006 को दुनिया को अलविदा कहा। भारत रत्न बिस्मिल्ला खां के निधन पर राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। जिसने जीते जी बनारस नहीं छोड़ा वो मरने के बाद कहां जाता। बिस्मिल्ला खां वहीं बनारस में एक गहरी नींद में आज भी सो रहें हैं।
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