राम
मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा की तैयारियां चल रहीं हैं। प्राण
प्रतिष्ठा समारोह के लिए निमंत्रण पत्र बांटे जा रहे हैं। राम मंदिर के प्राण
प्रतिष्ठा का ये निमंत्रण कांग्रेस के नेताओं को भी मिला है। हालांकि कांग्रेस ने
इसे अस्वीकार कर दिया है। अब सवाल ये कि इस निमंत्रण को सम्मान सहित अस्वीकार करने
का क्या असर कांग्रेस पर पड़ेगा..सवाल ये भी है कि कोई असर पड़ेगा भी या नहीं ?
मौजूदा
राजनीतिक हालात देख कर यही लगता है कि राम मंदिर का निर्माण मोदी सरकार करा रही है
और इसका सारा क्रेडिट मोदी सरकार को ही जाना चाहिए।
हालांकि
शायद आप थोड़ी देर ठहर कर सोचे तो आपको लगेगा कि राम मंदिर के निर्माण में उन
लाखों करोड़ों लोगों की आकांक्षाएं उम्मीदें आशाएं अधिक हैं जो प्रभु श्री राम का
एक भव्य मंदिर इस देश में देखना चाहती थीं।
उन
हजारों लाखों कारसेवकों का सामर्थ्य और संघर्ष अधिक है जो राम लला को उनके घर में
स्थापित करने के लिए हर कुर्बानी देने को हमेशा तैयार रहे।
राम
मंदिर पर फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने फैसला दिया और इस फैसले के
बाद ही मंदिर का निर्माण हो रहा है।
हालांकि
ये दीगर बातें हैं और अब देश यही जान रहा है कि मंदिर का निर्माण मोदी सरकार करा
रही है।
मंदिर
की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का न्यौता कांग्रेस को भी दिया गया। हालांकि
कांग्रेस ने इसे ससम्मान अस्वीकार कर दिया।
कांग्रेस
ने एक बयान जारी कर कहा कि देश में लाखों भगवान राम की पूजा करते हैं। धर्म एक
निजी मामला है लेकिन आरएसएस और बीजेपी ने लंबे समय से अयोध्या में राम मंदिर को एक
राजनीतिक प्रोजेक्ट बनाया है।
कांग्रेस
के इस निमंत्रण को अस्वीकार किए जाने के बाद अब बीजेपी ने कांग्रेस पर निशाना साधा
है। बीजेपी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि देश जब जब करवट लेता है कांग्रेस ने
उसका बहिष्कार किया है।
फिलहाल
इस स्वीकार और अस्वीकार के बीच बड़ा सवाल ये है कि आखिर कांग्रेस ने क्या सोच कर
इस निमंत्रण को अस्वीकार किया होगा। इस निमंत्रण को अस्वीकार करना कांग्रेस का
पॉलिटिकल स्ट्रेटजी का हिस्सा है या फिर उससे कोई पॉलिटिकल ब्लंडर हो गया ?
ये
सवाल इसलिए भी पूछा जाएगा क्योंकि हाल ही में हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों
एमपी,
छत्तीसगढ़, राजस्थान में विधानसभा के चुनाव
हुए हैं और इन तीनों ही राज्यों में कांग्रेस कमाल नहीं दिखा पाई। चूंकि राम मंदिर
का मसला हिंदी पट्टी के लिए हमेशा से एक अहम मुद्दा रहा है तो ऐसे में क्या
कांग्रेस ने हिंदी पट्टी में एक और बड़ा सियासी जोखिम ले लिया है?
सवाल
ये भी उठेगा कि आखिर कांग्रेस ने इतना बड़ा जोखिम लिया भी थी क्यों ?
जानकार
बताते हैं कि कांग्रेस के लिए दक्षिण की राजनीति में मजबूत स्थिती बनाए रखने के
लिए ये जरूरी था।
कुछ
जानकार बता रहें हैं कि केरल में कांग्रेस जिस इंडियन मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन
में है वो उसकी नाराजगी नहीं मोल लेना चाहेगी।
फिर
दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस ने जिस तरह से पिछले कुछ सालों में फोकस किया है
वो उसके लिए फाएदेमंद भी रहा है। बीजेपी और खासतौर पर पीएम नरेंद्र मोदी की
कोशिशों के बाद भी बीजेपी दक्षिण में अपना पैठ नहीं बना पा रही है।
हालांकि
इस पूरी चर्चा को आप सिर के बल खड़ा कर दें और सोचिए कि आखिर ये चर्चा हो ही क्यों
रही है। क्या मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में किसी पार्टी के नेताओं के जाने या न
जाने से क्या बनता बिगड़ता है। सच तो यही है कि धर्म और राजनीति दो अलग अलग धाराएं
हैं और इन दोनों को एक दूसरे से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
फिलहाल
जब बात चली है तो कुछ बातें और भी याद रखनी चाहिए। साल था 1986। राजीव गांधी इस
देश के पीएम थे। राम मंदिर का मसला उस समय भी चल रहा था। इसी बीच फैजाबाद जिला
अदालत का एक फैसला आना था। एक फरवरी 1986 को शाम
तकरीबन साढ़े चार बजे के आसपास जिला जज कृष्ण मोहन पांडेय ने एक ऐतिहासिक फैसला
सुनाया। जिला जज ने बाबरी मस्जिद का ताला खोलने के आदेश दे दिए। कोर्ट का ये फैसला
दिल्ली में तत्कालीन पीएम राजीव गांधी तक भी पहुंचा। सरकार तैयार हो गई। स्थानीय
अधिकारियों को आदेश दिए गए कि वो कोर्ट के आदेश का पालन करें। कोर्ट का आदेश मिलने
के महज एक घंटे से भी कम समय में बाबरी मस्जिद का ताला खोल दिया गया।
एक
और दिलचस्प बात जो आपको पता होनी चाहिए वो ये है कि 90 के दशक में कांग्रेस ने
अपने चुनावी घोषणा पत्र में राम मंदिर का मसला आपसी सहमति से सुलझाने की बात कही
थी।
इन
सारे तथ्यों को एक साथ रखने के बाद अब आप ही तय करिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि
कांग्रेस की स्थिती कुछ ऐसी हो गई है कि माया मिली न राम
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