सोचिए कि उस पत्रकार के घरवालों पर क्या बीतेगी जब उन्हे ये पता चलेगा कि उनका बेटा, भाई, पत्रकारिता करते हुए मारा गया और उसकी लाश को सेप्टिक टैंक में फेंक दिया गया। उसकी आंखों में नुकीली तारें डाली गईं, उसके सिर पर लोहे की रॉड से मारा गया। क्या आप सोच सकते हैं कि ये सबकुछ कितना विभत्स रहा होगा। शायद आप, हम ये नहीं सोच सकते हैं और न ही ये सोच सकते हैं कि किसी पत्रकार के इस हाल में पहुंचने पर उसके घर वालों पर क्या बीत रही होगी।
समांतर व्यवस्था है भ्रष्टाचार
छत्तीसगढ़ के मुकेश चंद्राकर की हत्या आपको भारत में पत्रकारिता के उन खतरों से रूबरु कराती है जो अनदेखे हैं और बहुत हद तक अनसुने भी हैं। ये ऐसे खतरे भी हैं जिनके बारे में आमतौर पर सरकारों के जरिए आंखें बंद रखने की कोशिश की जाती है जबतक कि बहुत अधिक दबाव न बन रहा हो। मुकेश की हत्या देश में भ्रष्टाचार के उस समांतर सिस्टम के जरिए की हत्या है जिसे रोक पाना या खत्म कर पाना किसी सरकार के बस की बात नहीं लगती है।सरकारें, सरकारी अधिकारी, टेंडर, ठेकेदार और भ्रष्टाचार की ये समांनर व्यवस्था है जो पर्दे के पीछे भारत के आम नागरिक को हताश और निराश किए हुए है। ये समांतर व्यवस्था इतनी प्रभावशाली हो चुकी है कि वो भारत में पत्रकार की हत्या से भी नहीं डरती है।
अप्रत्यक्ष रूप से समूचा सिस्टम दोषी
भले ही मुकेश चंद्राकर ही हत्या के प्रत्यक्ष आरोपी वो ठेकेदार और उसके सहयोगी हों जिनके घटिया काम की रिपोर्ट मुकेश ने दिखाई थी लेकिन इस हत्या में अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार के डूबी हुई समांतर व्यवस्था में शामिल कई लोगों का हाथ है। उन अधिकारियों का हाथ है जो सड़क निर्माण में खामियों पर चुप्पी साधे रहे। उन जनप्रतिनिधियों का हाथ है जो सरकारी पैसे से बन रही सड़क निर्माण की निगरानी नहीं कर पाए। उस सरकारी तंत्र का हाथ है जो आम नागरिकों के पैसे से बन रही सड़क को सही तरीके से बनवाने की व्यवस्था नहीं बना पाई। समूचा तंत्र ही जब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हो तो जाहिर सी बात है कि मुकेश की हत्या में इन सभी को शामिल माना जाएगा।
भारत में पत्रकारों पर खतरे की तस्दीक
मुकेश की हत्या एक बार फिर से भारत में पत्रकारों के लिए काम करने के लिए बेहद खतरनाक माहौल की तस्दीक करती है। संस्थागत और स्वतंत्र दोनों ही तरह के पत्रकारों के लिए भारत में कई तरह के खतरे हमेशा बने रहते हैं।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) द्वारा 2021 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत को दुनिया के 180 देशों में 142वें स्थान पर रखा गया है। आरएसएफ कहता है कि "भारत पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक है जो पत्रकारों के खिलाफ पुलिस हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा घात लगाकर किए गए हमले और आपराधिक समूहों या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों द्वारा उकसाए गए प्रतिशोध सहित हर तरह के हमले के संपर्क में हैं।"
आप सोचिए कि भारत में पत्रकार किस हालात में काम कर रहें हैं। 2014 के बाद भारत में पत्रकारों पर एक और प्रकार का खतरा मंडरा रहा है और वो है सत्तारूढ़ दल के खिलाफ बोलने पर 'चुप' करा दिए जाने का खतरा। मोदी सरकार के आने के बाद देश में इस तरह की प्रवृत्ति बढ़ी है। केंद्र की भाजपा सरकार और राज्य में मौजूद भाजपा सरकारें आलोचना करने वाले पत्रकारों को पसंद नहीं करती है। पत्रकारों पर दबाव बनाया जाता है ताकि वो हर स्थिति को पहले से बेहतर बताते हुए नजर आएं। इस बात पर चर्चा न करें कि क्या होना चाहिए बल्कि ये बताएं कि जो है वही अच्छा है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में हालात ये हैं कि पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे लिखाए जा रहें हैं और पत्रकारों को उनके धर्म के आधार पर वर्गीकृत किया जा रहा है। संस्थागत पत्रकार 'सरकारी से मिली लाइन' से बाहर जाकर रिपोर्टिंग करने की सजा नौकरी जाने के रूप में पा रहें हैं।
मुकेश चंद्राकर की हत्या पत्रकारों के लिए जहां दुखद है वहीं भ्रष्टाचार की समांतर व्यवस्था को हर्षित करने वाली और उन्हे अठ्ठाहास का मौका देने सरीखी है। जहां पत्रकार डरे हैं तो वहीं एक ऐसा सिस्टम भी है जो पत्रकारों में व्याप्त इस डर को देख कर खुश हो रहा है।
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