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भागती छिपकली और दो अक्टूबर

आज गाँधी जयंती है. लाबहादुर शास्त्री का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था. ये इस देश का सौभाग्य है की यहाँ ऐसे महान सपूत पैदा हुए. इन्होने अपने कार्यों से न सिर्फ भारत में बल्कि संपूर्ण विश्व को राह दिखाई. लेकिन अफ़सोस इस बात का है की भारत देश ने इन सपूतों के आदर्शों को व्यवहार में लाना बंद कर दिया है. स्वतंत्रता के साथ वर्ष बीत चुके हैं. गाँधी और शास्त्री अब महज किताबों में सिमट कर रह गए हैं. क्लास वन से लेकर क्लास टेन तक हम गाँधी और शास्त्री के बारे में पढ़ते हैं. इसके बाद धीरे-धीरे कोर्स में इनका हिस्सा कम होने लगता है. जब बात इन दोनों के आदर्शों को जीवन में उतारने की आती है तब तक हम लोग इन्हें भूलने की कगार पर आने लगते हैं. इसके बाद तो सत्य का सिपाही हो या कर्म का पुजारी दोनों ही बस दो अक्तूबर को याद आते हैं. जो लोग अखबार मंगाते हैं उन्हें सुबह का अखबार देख कर पता चलता है. तमाम सरकारी विभागों को अचानक इस दिन गाँधी और शास्त्री याद आ जाते हैं. लिहाजा देश के लगभग सभी(जो छपते हो या जो न भी छपते हो) अख़बारों में यथा संभव जितने बड़े हो सके उतने बड़े विज्ञापन दिए हैं. भला इससे बेहतर क्

शुक्रिया शशि जी, आपने याद दिलाया हम युवा हैं

एक सुबह जीमेल और ऑरकुट पर लोगिन करते ही फ्रेंड लिस्ट में जुड़े उदय गुप्ता जी ने मुझसे मेरा फ़ोन नंबर पूछा, मैंने दे दिया. इसके थोड़ी देर बाद मुझे लखनऊ से एक फ़ोन आया. इस फ़ोन पर मुझसे कहा गया कि आपके पास थोड़ी देर में देहरादून से फ़ोन आएगा. इतनी देर में मेरे मन में कौतूहल आ चुका था. दो लगभग अनजान फ़ोन और तीसरे का इंतज़ार. हालाँकि ये इंतज़ार लम्बा नहीं चल सका और जल्द ही एक फ़ोन और आया. फ़ोन पर शशि भूषण मैथानी जी थे देहरादून से. कुछ देर कि बातचीत के बाद मुझे पता चल गया कि शशि कि मुझसे उम्र में बड़े और अनुभव में सम्पन्न हैं. शशि जी के हाथ मेरा एक लेख लगा था. शशि जी उसे अपनी पत्रिका' यूथ आईकॉन' में प्रकाशित करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने कई माध्यमों से होते हुए मेरा फ़ोन नंबर प्राप्त किया था. शशि जी युवाओं को ध्यान में रखकर एक पत्रिका का प्रकाशन करते हैं लिहाजा सोच भी युवा थी. मन में कुछ करने की ख्वाहिश और अन्याय के प्रति बागी तेवर. शशि जी के साथ मेरी बातचीत बहुत लम्बी नहीं थी लेकिन इस अल्प अवधि की बातचीत के दौरान मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं आज भी युवा हूँ. किसी मुद्दे प
O! Childhood, Sometimes beginning the day with a whisper, sometimes with a cry Sometimes gaping in the void, at times beginning it with an innocent invite The sudden trance that it takes me into away from the colossal clutches of the trite Dragging away, disconnected, liberating to the elementary momentary amnesia Cruising to the myopic state of bionic reflections jaded by the hyperemia The ephemeral circumvention of the moment drawn away from the empirical hysteria To the cerebral existence of the self-efficacious creation, to that fleeting vision There comes a time, When debates become primordial, when the need of solutions become unreal O! Childhood, Why don't you stay forever transcending me to the realms of that fading Ideal from my friend santosh

बारात में बसिऔरा

मैं ये दावा तो नहीं करता कि इस शीर्षक को पढ़ने वालों की बड़ी तादात शायद इस शीर्षक का मतलब ना समझ पाए लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि एक आदमी तो कम से कम होगा ही जिसे शायद इसका अर्थ समझने में कुछ परेशानी हो तो साहब बारात का मतलब आप जानते ही होंगे(नहीं जानते तो डूब मरिये कहीं, आजकल नालों में भी इतना पानी है कि काम हो जायेगा) और जहाँ तक बात बसिऔरा कि है तो जब घर मैं खाना बच जाता है तो उसे बासी कहते हैं और जब बारात या किसी अन्य बड़े आयोजन में बचा खाना फिर से परोसा जाता है तो उसे बसिऔरा कहते हैं.....अब समझ गए होंगे आप(नहीं समझे तो......) वर्तमान में इलेक्ट्रोनिक मीडिया की भी हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है..पूरी बारात है लेकिन परोसा जा रह है वही बासी भोजन. दूरदर्शन का एक अपना ज़माना था. सधी हुयी भाषा में किसइ सरकारी प्रेस विज्ञप्ति की तरह ख़बरें पढ़ दी जाती थी. धीरे धीरे परिदृश्य बदलने लगा और निजी क्षेत्र में मीडिया का पदार्पण हुआ. बुद्धू बक्सा समझदार होने लगा. अब टीवी पर ऐसी ख़बरें बोलने और दिखने लगी जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. एदुम से लगा कि इस देश में गरीबों और दलितों का न

You the Indian dog

You the Indian dog, मेरे लिए यही संबोधन था उस व्यक्ति का फेसबुक पर कश्मीर पर चर्चा के दौरान. मई हैरान था, जहाँ तक मुझे पता था, ये कहने वाला एक हिन्दुस्तानी( कश्मीरी) था. बात चल रही थी कश्मीर में उछाले जा रहे पत्थरों की तभी एकायक इस विमर्ष में जगह बना ली इस्लाम ने. मैं अकेला था इस बात को कहने वाला कि कश्मीर समस्या का हल पत्थरों से नहीं हो सकता और कई थे इस मत के पोषक की अब तो इस जन्नत को पत्थरों के सहारे ही बचाया जा सकता है... कश्मीर के हालात पर मुझ जैसे किसी नौसिखिया पत्रकार को कुछ भी लिखने का अधिकार बुद्धजीवियों की और से नहीं दिया गया है लेकिन मै ये दुस्साहस कर रहा हूँ. भारत का कोई भी नागरिक कश्मीर को अपने दिल में रखता है. देश का आम नागरिक जो किसी पार्टी विशेष से सरोकार नहीं रखता हो या कश्मीर के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना से ग्रसित न हो(रखने को कई लोग तो बिहार के प्रति भी दुर्भावना रखते हैं) वो यही कहेगा की कश्मीर हमारे देश का ताज है. आज आखिर ऐसा क्या हो गया की लगभग एक अरब जनता की भावना पर घाटी के कुछ लाख लोगों के पत्थर भारी पड़ गए. सन १९४७ में मिली आज़ादी के बाद स

पाकिस्तान जिंदाबाद

आपको ये शीर्षक कुछ अजीब लग सकता है. आखिर लगे भी क्यों ना, साल में महज दो बार आपको याद आता है कि आज आप स्वतंत्र हैं, आज़ाद मुल्क में रहते हैं और इस आज़ादी को पाने के लिए कुछ लोगों ने कुर्बानी दी थी........१५ अगस्त और २६ जनवरी ना आये तो आप को याद ही ना आये कि आज आप जिस खुली हवा में सांस ले रहें हैं उसके लिए कईयों कि साँसे बंद कर दी गयीं हैं. वैसे आप भी अपना फ़र्ज़ अदा करते हैं इसमें कोई दो राय नहीं.....साल में एक एक बार आने वाली इन दो तारीखों पर आप फिल्मी गीत बजाते हैं....बच्चों का शौक पूरा करने के लिए २ रूपये में तीन रंगों में रंगा हुआ कागज का एक टुकड़ा खरीदते हैं.....कई दिनों बाद अपने कुछ ख़ास रिश्तेदारों से मिलने जाते हैं, थोड़ी देर आराम करते हैं, शाम को किसी बड़े से मॉल में शॉपिंग करते हैं, बाहर खाना खाते हैं और घर आकर सो जाते हैं. अब भला इससे बेहतर दिनचर्या क्या हो सकती है? अब ऐसे में कोई आपको याद दिलाये कि आज पंद्रह अगस्त है तो आप उसपर नाराज़ तो होंगे ही. अब वो आपका सामान्य ज्ञान जांच रहा है...ऐसे हालात फिलवक्त हर युवा भारतीय के हैं...उन्हें पूरे साल याद नहीं रहता कि वो ए

गुरु, ई मीडिया वाले त.......

गुरु ई मीडिया वाले त पगला गैयल हववन....धोनिया के बिआयेह का समाचार कल रतिए से पेलले हववन और सबेरे तक वही दिखावत हववन...जब तक एकरे एक दू ठे बच्चा ना पैदा हो जैईहें लगत हव तब तक दिखवाते रहियें....इनकी माँ कि ........... यह वो सहज प्रतिक्रिया थी जो मुझे अपने शहर बनारस में एक चाय की दुकान पर चुस्कियों के बीच सुनायी दी थी..यकीन जानिए मैंने बिल्कुल भी इस बात का खुलासा वहां नहीं किया था कि मैं भी इसी खेत में पिछले पांच सालों से 'उखाड़' रहा हूँ.....अगर मेरे मुहं से ये तथ्य गलती से भी निकल कर बाहर आ गया होता तो आप समझ सकते हैं कि मेरी बारे में वहां क्या क्या कहा जाता? वैसे एक बात जगजाहिर है कि बनारसी पैदा होते ही बुद्धजीवियों की कोटि में आ खड़े होते हैं....नुक्कड़ की चाय और पान की दुकाने इन बुद्धजीवियों के पाए जाने का केंद्र होती हैं और अगर आप उस दुकान के इर्द गिर्द बहने वाली हवा के विपरीत जाते हैं तो आप से बड़ा बेवकूफ कोई नहीं होगा....हाँ अगर आपको अपनी बात कहने का बहुत शौक है तो बनारसी अंदाज़ में कहिये, शायद कोई सुन भी ले..वरना पढ़े लिखे लोगों की तरह तथ्यात्मक ज्ञान देने लेगे तो आप लौ

क्योंकि ख़्वाब देखने का कोई वक़्त नहीं होता.....

क्या सपने देखने के लिए भी कोई वक़्त तय किया जा सकता है....सोचता हूँ लोग क्यों कहते हैं कि ये दिन में सपने देखता है? क्या सपने महज रातों में देखे जाने चाहिए? क्या सपने देखने के लिए जगह भी ठीक ठाक होनी चाहिए? कहीं भी कभी भी सपने देखने में क्या बुराई है? पता नहीं लेकिन जब से सपने देखने शुरू किया है तभी से यह सुनता रहा हूँ कि सपने देखने का एक वक़्त होता है...हर समय सपने नहीं देखे जाते...मुझे लगता है कि ये बातें तब कहीं गयी होंगी जब लोग किसी ख़ास समय पर सपने देखते होंगे और एक मुख़्तसर वक़्त उन्हें हकीकत में बदलने के लिए मुक़र्रर करते होंगे....लेकिन पवन से भी तेज इस मस्तिष्क में एक सवाल यहाँ और आता है कि क्या उनके सपने इतने छोटे हुआ करते थे कि किसी ख़ास वक़्त में देखे जाएँ और किसी ख़ास समय में उन्हें पूरा कर लिया जाये....और अगर पूरे नहीं हो पाए तो क्या? सपने ही नहीं देखते थे....? एक और सवाल मन में आ जाता है कि वो सपने कब देखते होंगे? जहाँ तक मुझे पता चला है वो वक़्त रात का था....लीजिये अब एक सवाल और आ गया मन में कि लोग रात को ही सपने क्यों देखते थे? क्या दिन में किसी का डर था

गाँधी को समझे अरुंधती..............

क्या आपको याद है कि वर्ष २००४ में सिडनी शांति पुरस्कार किसे मिला था? नहीं याद है तो हम याद दिला देते हैं ..ये पुरस्कार मिला था अरुंधती रॉय को....कितनी अजीब बात है ना! कभी अपने अहिंसात्मक कार्यों के लिए इतने बड़े सम्मान से नवाजे जाने वाली महिला आज उसी अहिंसा को नौटंकी के समकक्ष रखने पर तुली है.....मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान अरुंधती रॉय ने कहा था कि 'गांधीवाद को दर्शकों की ज़रुरत होती है'...ये एक पंक्ति ही काफी है कि हम अरुंधती रॉय की मनोदशा के बारे में समझ सके....अरुंधती रॉय के गाँधी के विचारों के प्रति क्या नजरिया है ये भी आसानी से समझा जा सकता है....जिस तरीके से अरुंधती रॉय ने मावोवादियों के समर्थन में अपने सुर अलापे हैं उसका निहितार्थ देश की वर्तमान राजनीतिक और सामजिक व्यवस्था से परे है..... आज देश में आतंरिक सुरक्षा को लेकर जो सबसे बड़ा खतरा है वो है नक्सालियों और मावोवादियों से और इस बात को आम आदमी से लेकर ख़ास तक जानता है तो क्या इसे अरुंधती रॉय नहीं समझ रही हैं....दंतेवाडा में सुरक्षा बलों पर हमले के बाद जिस तरीके से झारग्राम में ट्रेन को नि

बंधे धागे खोल दो....

ना जाने किस पीर की दरगाह पर कुछ कच्चे धागे बांध आया था मैं किस वाली के दरबार में हथेलियाँ जोड़ मन्नत मांगी थी मैंने गुलाबों की चादर से आती खुशबू और जलती अगरबत्तियों के धुएं के बीच कुछ बुदबुदाया था मैंने किसी मंदिर की चौखट पर सिर झुकाया था मैंने हाथों से घण्टियों को हिलाकर अपने ही इर्द गिर्द घूम कर कुछ तो मनाया था मैंने तपती धूप में शायद किसी साये की आस की थी मैंने या फिर तेज़ बारिश में ठौर की तलाश की थी मैंने या कभी यूँ ही सुनसान राहों पर चलते हुए किसी साथी की ज़रुरत महसूस हुयी थी तभी तो मुझे ' तुम ' मिले हो शायद अब वक़्त आ गया है दरगाह पर बंधे धागों को खोलने का ...............